हरी चीटियाँ जहाँ सपने देखती हैं- फिल्म का संदेश तो समझें

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हरी चीटियाँ जहाँ सपने देखती हैं (Where the Green Ants Dream) पश्चिम जर्मनी के वर्नर हरिजोग (Werner Herzog) की यह चर्चित फिल्म है।
हरी चीटियाँ जहाँ सपने देखती हैं (Where the Green Ants Dream) पश्चिम जर्मनी के वर्नर हरिजोग (Werner Herzog) की यह चर्चित फिल्म है।
  • नारायण सिंह

हरी चीटियाँ जहाँ सपने देखती हैं (Where the Green Ants Dream) पश्चिम जर्मनी के वर्नर हरिजोग (Werner Herzog) की यह चर्चित फिल्म है। वर्नर हरिजोग ने 1984 में विलुप्त होती जा रहीं आदिम जनजातियों के संघर्ष पर यह फिल्म बनाई थी। फिल्म का लोकेशन था आस्ट्रेलिया का रेगिस्तान, जहाँ यूरेनियम निकालने वाली एक कंपनी आयर्स (Ayers) खनन कर रही थी और वहाँ की जनजातियाँ उन्हें रोकना चाहती थीं।

आदिवासियों का कहना था कि उस जमीन पर हरी चींटियाँ (Green Ants) रहती हैं और सपने देखती हैं; जमीन के साथ वे नष्ट हो जाएँगी और उन्हें नष्ट करने से मनुष्य जाति नष्ट हो जाएगी। उनके अनुसार हरी चींटी एक टोटम जीव है, जिसने संसार और मनुष्य को निर्मित किया है। दुनिया में तमाम ऐसे मिथक हैं जिन्हें लोग वास्तविक मानकर उस पर विश्वास करते हैं। हो सकता है यह प्रकृति और धरती को बचाने के उद्देश्य से बनाया गया मिथक हो।

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फिल्म में वांज़ुक मारिका (Wandjuk Marika) का संगीत था। मारिका (1927-1987) आस्ट्रेलिया के एक प्रसिद्ध आदिवासी कलाकार, संगीतकार तथा जनजातियों के अधिकार के लिए लड़ने वाले ऐक्टिविस्ट थे। फिल्म में उनके अनेक साथियों और परिवार के सदस्यों ने अभिनय किया था, इस कारण कहानी वास्तविक लगती है। वस्तुत: यह आंशिक रूप से आदिम जनजातियों और एक माइनिंग कंपनी नबाल्को (Nabalco Pty Ltd) के बीच हुई मुकदमेबाजी पर आधारित वास्तविक घटना पर आधारित थी भी।

जो भी रहा हो, वे मुट्ठी भर लोग कंपनी के चलते हुए डोजर के सामने जमीन पर बैठ जाते हैं। ड्राइवर चाहता है कि डोजर उन पर चढ़ा दिया जाये। मिट्टी से उन लोगों के पैर दब जाते हैं और मिट्टी कमर तक पहुँचने लगती है, लेकिन तभी एक सुपरवाइजर में मनुष्यता जागती है और वह उसे डाँटकर मशीन से उतार देता है।

यह एक तथ्य है कि ‘विकसित और सभ्य मनुष्य’ जितना चिंतित लुप्त होती जाती जानवर प्रजाति के लिए है, उतना आदिम जनजातियों के लिए नहीं। अमेरिका, लैटिन अमेरिका, एशिया, आस्ट्रेलिया… सभी जगह जनजातियाँ खत्म हो चुकी हैं अथवा धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं। जंगल कट चुके हैं। हमारे अपने देश में रहने वाली कई जनजातियों की संख्या लगातार घट रही है। अंडमान द्वीप समूह में तो स्थिति बहुत बुरी है। अनेक जनजातियों की जनसंख्या दो अंकों में पहुँच गई है अथवा पहुँचने को है।

उनके साथ दिक्कत ये है कि दूसरे लोगों और प्रदूषण के संपर्क में आने पर वे मिजल्स, गनोरिया आदि संक्रामक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। वर्तमान सरकार द्वारा अंडमान को एक ऐसे पोर्ट के रूप में विकसित करने की योजना पर काम शुरू किया जा चुका है, जो सिंगापुर से टक्कर ले सके। दूसरी ओर, यह वहाँ के आदिवासियों के लिए उनकी ताबूत में आखिरी कील साबित होगी, पर्यावरणविदों द्वारा ऐसी संभावना भी व्यक्त की जा रही है।

बहरहाल, ‘जहाँ हरी चींटियाँ स्वप्न देखती हैं’ फिल्म के अंत से कुछ पहले का एक दृश्य सुप्रीम कोर्ट का है। विभिन्न गवाह कटघरे में चढ़ते हैं और उतरते हैं। आदिम जनजातियों के गवाहों के बयान को वहाँ का दुभाषिया कोर्ट के सामने तर्जुमा और व्याख्यायित करता है। अंत में एक गवाह आकर अपनी बात रखता है। दुभाषिए को देर तक खामोश देखकर जज पूछता है- ‘यह क्या कह रहा है’। दुभाषिया जवाब देता है- यह अपनी जनजाति का अकेला आदमी बचा है; कोई भी इसकी भाषा नहीं जानता। इसलिए यह क्या कह रहा है, कोई नहीं जानता’।

आलोचकों ने फिल्म पर आरोप लगाया कि यह फीचर फिल्म नहीं, डॉक्यूमेंटरी है। आस्ट्रेलियन सरकार ने भी इसका विरोध इस तर्क के साथ किया कि उसे जनजाति विरोधी पेश करने की कोशिश की गई है और इस प्रकार उसकी छवि खराब की गई है। बहरहाल इस फिल्म के संदर्भ में मुझे अपनी सरकार और अपनी माँगों के लिए आंदोलन पर बैठे किसान याद आ गए।

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