ELECTION खर्च दोगुना हुआ, पर वोटिंग की रफ्तार जस की तस

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भारत में वोटिंग की प्रक्रिया
भारत में वोटिंग की प्रक्रिया

ELECTION खर्च दोगुना हुआ, पर वोटिंग की रफ्तार जस की तस है। पिछले लोकसभा चुनाव से इस बार दोगुने खर्च का अनुमान लगाया जा रहा है। यह सरकारी खर्च का अनुमान है। उम्मीदवारों के निजी और चोर दरवाजे से किये गये खर्च शामिल कर लिये जाएं तो इस बार आम चुनाव में 60 हजार करोड़ से अधिक खर्च का अनुमान है। बावजूद मतदान का प्रतिशत जस का तस बना हुआ है। क्या हो सकते हैं इसके कारण, बता रहे वरिष्ठ पत्रकार हेमंत

‘चुनाव’ पर खर्च संबंधी भारत के विधि और कंपनी मामलों के मंत्रालय के आंकड़ों को आधार मानें, तो सहज ही यह अनुमान किया जा सकता है कि चुनाव के इंतजामात में होनेवाले खर्च में बढ़ोतरी का प्रतिशत तेजी से बढ़ रहा है। मोटे अनुमान के मुताबिक, हर पांच साल में खर्च का प्रतिशत दोगुना हो रहा है। आप चाहें और खोजने का कष्ट करें, तो ये आंकड़े निर्वाचन आयोग और भारत के विधि और कंपनी मामलों के मंत्रालय के ‘वेब साइट’ पर कहीं न कहीं मिल जाएंगे। वैसे, ‘प्रभु’ मीडिया ने जो खबर दी है, उसके मुताबिक 2019 के चुनाव में 50 हजार करोड़ रुपये खर्च का अनुमान है। अमेरिका में 2016 के चुनाव में 42 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में अपने देश में 30 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे।

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अगर आप वर्तमान लोकतंत्र में ‘गुड फील’ कर रहे हों, तो चुनाव-खर्च से संबंधित ये आंकड़े शायद आपको चिंतित नहीं करेंगे। उल्टे प्यास न होने पर भी ‘कोकाकोला’ पीने जैसा मजा देंगे। और, अगर आप ‘बैड फील’ कर रहे हैं, तो ये सूचनाएं कुछ कड़वी लगेंगी। प्यास बुझाने के लिए पानी की जगह कोकाकोला गटकने की अनिवार्य मजबूरी का एहसास जगायेंगी। इन आंकड़ों को देख ‘फील गुड के फरिश्ते’ कहेंगे कि चुनाव संपन्न करने के लिए बढ़ता खर्च देश की बढ़ती आर्थिक संपन्नता का उदाहरण है। यह खर्च देश में लोकतंत्र को निरंतर सुरक्षित करने व उसे मजबूती प्रदान करने के प्रयासों का पैमाना है। शायद ‘मातम के मसीहा’ भी ऐसा ही कहेंगे। वे शायद इतना और जोड़ेंगे कि यह खर्च कुछ ज्यादा है, लेकिन जरूरी है। इस तर्क को तो शायद सब दोहरायेंगे कि चुनाव कराने का बोझ बढ़ा, क्योंकि देश की आबादी बढ़ी और उसी अनुपात में वोटरों की संख्या बढ़ी। तमाम वोटर स्वतंत्र और निर्भय होकर वोट देने के अधिकार का उपयोग करें, इसके लिए चुनाव आयोग को मतदान केंद्रों की संख्या बढ़ाने से लेकर वोटर व वोटिंग मशीनों की सुरक्षा तक के इंतजामात करने पड़ते हैं। जाहिर है, इससे खर्च बढ़ेगा।

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चुनाव को लोकतंत्र का ‘उत्सव’ मानने वाले वोटर भी शायद चुनाव में बढ़ते खर्च को वाजिब ठहरायेंगे। हालांकि उनको यह दर्द भी सालता होगा कि अंततः इस खर्च का बोझ देश के नागरिक होने के नाते उन पर ही पड़ेगा। लेकिन क्या अपने अनुभव के आधार वे यह कह सकेंगे कि चुनाव का बढ़ता खर्च वोट देने की स्वतंत्रता और निडरता का माहौल मजबूत होने का प्रमाण है? क्या उन्हें वोटरों की बढ़ती संख्या और चुनाव खर्च के अनुपात में कोई ‘वाजिब’ तालमेल दिखता है?

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भारत में औसतन 60-70 प्रतिशत के बीच वोट पड़ते हैं। कभी कहीं का वोट प्रतिशत बढ़ता है, तो कहीं का घटता है। ऊपर से लोकतंत्र का या उत्सव हमारे देश में ‘लहर’ की सवारी के बिना परवान नहीं चढ़ता! ‘मोदी’ लहर के बावजूद, 2014 के लोकसभा चुनाव में 66.40 प्रतिशत वोट पड़े। जबकि वह चुनाव पिछले तमाम चुनावों में सबसे अधिक खर्चीला था। यानी 30-40 प्रतिशत वोटरों ने वोट नहीं दिया। वैसे, यह बात सही हो सकती है कि वोट न देनेवाले 30-40 प्रतिशत वोटरों में ऐसे लोग जरूर होंगे, जो वोट देने के अपने अधिकार से गाफिल हों, लेकिन क्या उनमें ऐसे वोटरों की संख्या कम है, जो ‘डर के मारे’ मतदान केंद्रों तक नहीं जाते? या जिनको मतदान केंद्रों तक पहुंचने से रोका जाता है? और तो और, क्या इसका कोई हिसाब है कि जो 60-70 % वोट पड़ते हैं, उनमें कितने प्रतिशत वोट ‘बोगस’ हैं?

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यूं मशीन के आने से ‘बूथ छपाई’ के खेल की सूचानाएं कम आती हैं। लेकिन लोकसभा चुनावों के पांच साल पहले और बाद के आंकड़ों की तुलना करें तो यह ‘तथ्य’ सामने आ सकता है कि बीते सालों में वोटरों की संख्या बढ़ी और मतदान केंद्रों की भी, लेकिन उनके अनुपात में वोट पड़ने का प्रतिशतनहीं बढ़ा! यानी चुनाव का खर्च बढ़ा, लेकिन वोट पड़ने का प्रतिशत जहां का तहां रह गया! ऐसा क्यों? (शेष अगली कड़ी में)

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