गांधी के निर्माण में क्सतूर बाई के योगदान की नहीं होती चर्चा !

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गांधी के बारे में सभी बात करते हैं। उनके गुणों का बखान करते हैं। पर, गांधी के निर्माण में उनकी अर्धांगिनी कस्तूर बाई के त्याग, सांाजिक आंदोलनों में सहभागिता भूल जाते हैं।
गांधी के बारे में सभी बात करते हैं। उनके गुणों का बखान करते हैं। पर, गांधी के निर्माण में उनकी अर्धांगिनी कस्तूर बाई के त्याग, सांाजिक आंदोलनों में सहभागिता भूल जाते हैं।
गांधी के बारे में सभी बात करते हैं। उनके गुणों का बखान करते हैं। पर, गांधी के निर्माण में उनकी अर्धांगिनी कस्तूर बाई के त्याग, सामाजिक आंदोलनों में सहभागिता भूल जाते हैं। वरिष्ठ राजनीतिक चिंतक प्रेमकुमार मणि ने कस्तूर बाई यानी क्सतूरबा या बा के बारे में विस्तार से चर्चा की है।
  • प्रेमकुमार मणि 
प्रेमकुमार मणि
प्रेमकुमार मणि

1983 में मैंने आठ ऑस्कर पुरस्कारों से सम्मानित एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ देखी थी। उस फिल्म में गांधी की पत्नी कस्तूर का अभिनय रोहिणी हट्टनगडी ने किया था। गांधी तो गांधी थे; लेकिन कस्तूर बाई का जीवन  उन्ही दिनों मेरे मन में गहराई से उभर आया। मुझे यह अनुभव हुआ कि कस्तूर की जाने-अनजाने उपेक्षा हुई है। मेरे जानते, उन पर ढंग से  कोई काम नहीं हुआ है। नारायण देसाई ने  एक नाटक ‘कस्तूर बा’ जरूर लिखा  है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उससे पहले गांधी की बकरी पर नाटक (सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का नाटक ‘बकरी’) लिखा जा चुका था। यह एक सच्चाई है कि कस्तूरबा से अधिक चर्चा गांधी की  बकरी की हुई है। लेकिन, यह प्रसंग इसलिए स्थगित कर रहा हूं  कि फिलहाल इसका कोई अर्थ नहीं है। एक आम हिंदुस्तानी औरत की यही औकात है। कस्तूर उस से अलग कैसे हो सकती थीं।

कस्तूर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन  के महानायक मोहनदास करमचंद गांधी की पत्नी थीं। अर्धांगिनी। गांधी जब राष्ट्र के बापू बने, तब कस्तूर राष्ट्र की  बा (मां) बन गईं। हमने अपने बापू का महिमा-मण्डन तो खूब किया, लेकिन बा पर नहीं के बराबर सोचा-विचारा। जैसे हम अपने पिता की तो खूब बात करते हैं; किन्तु अपनी मां की कोई चर्चा नहीं करना चाहते। स्त्रियों के प्रति भारतीय जनता के सामान्य रवैये का शिकार कस्तूर भी हुईं। वह केवल गांधी की धर्मपत्नी ही नहीं थीं, सामाजिक कार्यकर्त्ता भी थीं और इस रूप में कई बार उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। जोतिबा फुले की पत्नी सावित्री बाई फुले की तरह कस्तूर बाई गांधी ने भी अपने पति के पदचिह्नों पर चल कर समाज और राष्ट्र की सेवा की। उनके इस रूप को रेखांकित करने की आवश्यकता आज भी है। यह दिलचस्प है कि कस्तूर उम्र में मोहनदास से बड़ी थीं। मोहनदास का जन्म 2 अक्टूबर 1869 का है, जबकि कस्तूर उससे कुछ महीने पूर्व 11  अप्रैल 1869 को जन्म ले चुकी थीं। कस्तूर के माता-पिता ब्रजकुँअर कपाड़िया और गोकुलदास कपाड़िया थे। गांधी परिवार की तरह ही कपाड़िया परिवार भी मोढ़ बनिया था और पोरबंदर में ही उनका भी कारोबार था। 1883  में दोनों का विवाह हुआ। तब दोनों तेरह के इर्द-गिर्द थे। गांधी ने अपनी आत्मकथा में इस विवाह के दिलचस्प वर्णन प्रस्तुत किये हैं- मंडवे में बैठे, भाँवर घूमे, कसार खाया-खिलाया और वर-वधु तभी से साथ रहने लगे। वह पहली रात! दो मासूम बच्चे अनजाने संसार सागर में कूद पड़े। भाभी ने सिखलाया कि मुझे पहली रात में कैसे बरतना चाहिए। धर्मपत्नी को किसने सिखलाया, इसे पूछने की बात याद नहीं है। अब भी पूछा जा सकता है, पर पूछने की इच्छा तक नहीं होती। पाठक इतना जान लें कि हम दोनों एक दूसरे से डरते थे, ऐसा ख्याल आता है। एक-दूसरे से शर्माते तो थे ही। मैं क्या जानूं कि बातें कैसे और क्या करनी चहिए? दी गई सिखावन भी क्या मदद देती? ये बातें क्या सीखनी पड़ती हैं? जहां संस्कार बलवान है, वहां सिखावन फालतू चीज होती है। धीरे-धीरे हम एक दूसरे को पहचानने लगे, बोलने लगे। हम दोनों समवयस्क हैं, पर मैंने पति का अधिकार जताना आरम्भ कर दिया। (आत्मकथा पृष्ठ- 16 )

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गांधी ने स्वीकार किया है कि वह जिद्दी पति थे। अपनी पत्नी को काबू में रखना चाहते थे। गांधी और आश्रम से जुड़े दूसरे लोगों के संस्मरणों से जानकारी मिलती है कि कस्तूर आंख मूंद कर पति की भक्ति नहीं करती थीं। जैसे-जैसे वह सयानी होती गईं, और जैसे-जैसे गांधी एक नायक बनने लगे, कस्तूर का गांधी के प्रति सम्मोहन बढ़ता गया। वह समझने लगीं कि उनका पति सामान्य पुरुष नहीं है। गांधी ने जो जानकारी दी है, उसके अनुसार कस्तूर विवाह के बहुत समय बाद तक निरक्षर थीं। गांधी ने उनमें  पढ़ने के प्रति रुचि विकसित करनी चाही। खुद पढ़ाया। कस्तूर सामान्य तौर पर  गुजराती जुबान पढ़ने-लिखने लगीं। हालांकि उनका लिखना चिट्ठियों भर ही था। लेकिन बिलकुल निरक्षर दुल्हन का इतना भर भी पढ़ना-लिखना उल्लेखनीय है। गांधी ने कस्तूर के दबंग व्यक्तित्व का एक चित्र आत्मकथा में विस्तार से दिया है। घटना 1898 की है। गांधी परिवार दक्षिण अफ्रीका के डरबन में रह रहा था; जहां   गांधी वकालत कर रहे थे। इस पेशे में मुंशी-मोख्तारों का आना-जाना लगा रहता है। कभी-कभार ऐसे कामकाजी मुंशी उनके घर रुक भी जाते थे। मुंशी सामान्य जात-वर्ग से आते थे, तो कस्तूर को कोई दिक्कत नहीं होती थी। लेकिन इस बार अतिथि मुंशी दलित-ईसाई था। गांधी ने लिखा है- ‘मुंशी ईसाई था। उसके माता-पिता पंचम वर्ण के थे।’ गांधी का जो घर था, वह पश्चिमी तरीके का था, लेकिन अतिथि के कमरे से जुड़ा वाशरूम नहीं था। गांधी ने उस कमरे में किरमिच या चीनी मिट्टी का बना बर्तन  रख दिया था। पहले कोई अतिथि आते थे, तो अपने उपयोग किये ऐसे बर्तन खुद साफ़ कर दिया करे थे। इस नए अतिथि ने नहीं किए। गांधी के अनुसार सफाई की जिम्मेदारी घर के लोगों की थी। लेकिन महामना गांधी इसे खुद साफ नहीं कर पत्नी द्वारा साफ़ करवाना चाहते थे। पत्नी अतिथि के जात से भी परिचित थीं। उन्होंने इंकार किया। गांधी ने दबाव बनाया। गुस्से से भरी कस्तूरबा ने बर्तन तो साफ कर दिया, लेकिन उनकी नाराजगी स्पष्ट थी। अब गांधी को ही देखिए- “आंखों से मोती की बूंद टपकाती, हाथ में बर्तन लिए मुझे अपनी लाल-लाल आंखों से उलाहना देती, सीढ़ियों से उतरती कस्तूरबाई की तस्वीर मैं आज भी खींच सकता हूं। पर मैं तो जितना प्रेमी उतना ही जानलेवा पति था। मैं अपने को उसका शिक्षक भी मानता था।”

गांधी चाहते थे कि कस्तूर यह काम प्रसन्नता पूर्वक करे। कस्तूर की लाल-लाल आंखों ने शिक्षक पति को क्रोध से भर दिया। ताना  दिया कि यह कलह यहां नहीं चलेगा। कस्तूर ने भी दहला मारा- ‘तो रख अपना घर। मैं चली।’ और तब एक पारंपिक भारतीय पति की तरह गांधी ने कस्तूर का बांह पकड़ा और धक्के देकर घर से बाहर करने लगे। कस्तूर ने प्रतिरोध के बीच भी जो संवाद दिया, वह बेजोड़ है। कहा- ‘तुमको तो शर्म नहीं है, मुझको है। जरा तो शरमाओ ! मैं बाहर निकल कर कहाँ जाऊँ। मैं औरत की जात ठहरी, इसलिए मुझे तुम्हारी धौंस सहनी ही होगी। अब शरमाओ और दरवाजा बंद करो। कोई देखेगा तो दोनों के मुँह पर कालिख लगेगी।”

यह है कस्तूर बाई का साहस। उपरोक्त वर्णन कस्तूर का लिखा नहीं, गांधी का लिखा हुआ है, जो उनकी आत्मकथा में दर्ज है। हिन्दुस्तानी पुरुष स्वाभाविक तौर पर हिंसक होते हैं। गांधी असामान्य नहीं हैं। लेकिन गांधी ने कस्तूरबाई के इस संवाद को यदि प्रमुखता से याद रखा है, तो इसका मतलब है कि महात्मा के निर्माण में कस्तूर की बड़ी भूमिका है। सोचता हूं, हमारी पौराणिकता की रामकथा में अग्नि-परीक्षा या वनवास-दण्ड के वक़्त यदि इसी तरह राम को सीता ने फटकारा होता, तो कितना अच्छा होता।

1904 से कस्तूर सीधे तौर पर सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में आती हैं। फीनिक्स सेटलमेंट की जिम्मेदारी उन्हें दी जाती है। 1906 में छत्तीस वर्षीय गांधी ब्रह्मचर्य की शपथ लेते हैं। कस्तूर उनके इस निर्णय से प्रसन्न हैं। उनका मोहन महात्मा बनता जा रहा है। वह अधिक से अधिक सामाजिक कार्यों में भागीदारी करने लगी हैं। 1913  में दक्षिण अफ्रीका के भारतीय लोगों के उत्पीड़न के खिलाफ जो विरोध-प्रदर्शन होता है, उसमें वह प्रकट रूप में हिस्सा लेती हैं और 23 सितम्बर 1913 को गिरफ्तार होती हैं। मेरे जानते कस्तूर पहली भारतीय स्त्री हैं, जो देश के भीतर या बाहर सामाजिक-राजनीतिक कार्यों के लिए गिरफ्तार की जाती हैं। (एक मित्र ने सूचना दी है कि बंग-महिला टुकड़ीबाला जी राजनीतिक संघर्ष में जेल जाने वाली पहली स्त्री थीं)

गांधी को महसूस होता है कि उनका दक्षिण अफ्रीका अभियान पूरा हो गया। उन्होंने जो टॉलस्टॉय आश्रम स्थापित किया था, उसके बच्चों को शांतिनिकेतन भेज कर वह जुलाई 1914 में भारत के लिए रवाना होते हैं। 1915 में जब गांधी शांतिनिकेतन पहुंचते हैं, तब उनके साथ कस्तूर भी हैं। 1917 में बिहार के चम्पारण में कस्तूर महिलाओं के उत्थान-कार्य में जुट जाती हैं। 1922 के बोरसाड़ के सिविल नाफरमानी आंदोलन में वह शामिल होती हैं। 1920  से देश का राष्ट्रीय  आंदोलन गांधीमय हो जाता है। कस्तूर हर समय अपने मोहन के साथ होती हैं। मोहन अब महात्मा हो गया है। देश की  धड़कन। लेकिन उस धड़कन की धड़कन कस्तूर बनी हुई हैं। जितना जानती-समझती हैं, उतने से उनका काम चल जाता है। उनका पति अच्छा कर रहा है। गरीब-गुरबे, किसान-मजदूर उनके साथ हो रहे हैं। देश की  महिलाएं उनके साथ हो रही हैं। यह सब कस्तूर देख-समझ रही हैं। उनका मोहन देश का बापू बन रहा है, वह देश की  बा।

बा का स्वास्थ्य निरंतर गिरता जा रहा है। नमक-सत्यग्रह में अस्वस्थता के कारण वह शामिल नहीं हो सकी हैं, जिसका उन्हें मलाल है। राष्ट्रीय आंदोलन का कोलाहल बढ़ता जा रहा है। नई-नई चुनौतियां आ रही हैं। 1898  में जिस बात को लेकर गांधी दम्पति में झगड़ा हुआ था, वह अब राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है। महाराष्ट्र के एक तेज-तर्रार  नौजवान डॉ आंबेडकर दलितों के प्रश्न को गंभीर रूप से राजनीतिक बना देते हैं और गांधी उसे राष्ट्रीय मसले के रूप में लेते हैं। 1932 के बाद से गांधी का अधिक समय दलितोत्थान में लगता है। कस्तूर हर कदम उनके साथ होती हैं। 1939 में उनकी गिरफ्तारी होती है। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अपने पति के साथ वह गिरफ्तार होती हैं। उन्हें आगाखान पैलेस पुणे में उनके पति के साथ रखा जाता है। उनका स्वाथ्य ठीक नहीं है। खांसी ने उनके जिस्म को तोड़ दिया है। अंग्रेजी दवाओं के अलावा कोई उपाय नहीं दिखता। अंग्रेजी दवाएं एलोपैथ होती हैं, स्वभाव से शत्रुनाशक। वह प्रकृति के विरुद्ध है। इसलिए उन से उनका पति परहेज करता है। इंजेक्शन देने के तो वह सख्त खिलाफ है। कुछ ऐसी व्याधि है कि बा को पेन्सिलिन का इंजेक्शन देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। डाक्टर अनुमति चाहते हैं। गांधी कहते हैं, यदि कस्तूर चाहे तो इंजेक्शन ले सकती है। कस्तूर का कहना है कि वह पति के साथ होना चाहेगी। पति ही उसका निर्णय लेगा। बेचारी कस्तूर बा। पति बेचारा तो शपथ से बंधा था। बीमारी के पास समय नहीं था। कस्तूर को पेन्सिलिन का इंजेक्शन नहीं दिया जा सका। वह 22 फ़रवरी 1944 को चुपचाप  अपने पति की बांहों में हमेशा के लिए सो गईं।

कस्तूर के चार बेटे- हरिलाल, देवदास, मणिलाल और रामदास। हरिलाल  बिगड़ैल हो गया था। पिता से 1911 से ही  उसका कोई संबंध नहीं रह गया था, क्योंकि वह भी अपने पिता की तरह इंग्लैंड जाकर बैरिस्टर बनना चाहता था, और परिवर्तित पिता ने उसकी इच्छा पूरी नहीं की थी। लेकिन माँ को वह भी खूब मानता था। माँ के नहीं रहने की खबर ने उसे रुलाया। वह गांधी के पास आया। अंग्रेजी दवा इंजेक्शन के रूप में नहीं देने के उनके फैसले के खिलाफ खूब अनाप-शनाप बोला। अपने पिता को खूब खरी-खोटी सुनाई। गांधी चुपचाप सुनते रहे। पता नहीं वह क्या सोच रहे होंगे। उनकी कस्तूरबा अब एक कहानी बन गईं थी। फूल उड़ गया था, बास रह गई थी। कस्तूर की यही संक्षिप्त कथा है।

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