हिंदी साउथ वाले भी सीखना चाहते हैं, विरोध राजनीतिक है

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  • उमेश चतुर्वेदी
वरिष्ठ पत्रकार उमेश चतुर्वेदी
उमेश चतुर्वेदी

हिंदी साउथ वाले भी सीखना चाहते हैं, विरोध राजनीतिक है। जिस तमिलनाडु में इसका विरोध हो रहा, वहां के नेता भी हिंदी सीखना चाहते हैं। यह संयोग ही है कि उस तमिलनाडु के कुछ असरदार राजनेताओं से अपनी पहचान है, जहां एक बार फिर हिंदी विरोध परवान चढ़ा हुआ है। उन राजनेताओं से जब भी बातचीत होती है, एक दुख वे जरूर जाहिर करते हैं- अच्छी हिंदी ना जान पाने का दर्द। जाहिर है कि वहां के राजनेताओं की दिली चाहत है कि वे अच्छी हिंदी बोलना सीखें। जिस राज्य के प्रमुख राजनीतिक दल डीएमके के प्रमुख स्टालिन हिंदी विरोध में आग उगल रहे हों, वहां का राजनेता अगर अच्छी हिंदी बोलना चाहता है तो यह उस राज्य के विरोधाभासी स्वभाव को ही जाहिर करता है।

सवाल यह है कि आखिर तमिल राजनेता क्यों चाहते हैं कि वे अच्छी हिंदी बोलना सीख लें। मनुष्य जीवन की तीन इष्णाएं हैं- पुत्रेष्णा, वित्तेष्णा और लोकेष्णा। दुर्भाग्य देखिए कि तमिल राजनीति अपने अस्तित्व के लिए हिंदी का विरोध करती है। लेकिन लोकेष्णा यानी यश की कामना के लिए हिंदी सीखने को तत्पर दिखती है। राजनीतिज्ञ लोकेष्णा के शिकार हैं।

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तमिल राजनेता को पता है कि अगर उसे अखिल भारतीय छवि चाहिए, स्वीकार्यता चाहिए तो उसे हिंदी आनी ही चाहिए। ऐसी सोच बहुत पुरानी है। 1966 में लालबहादुर शास्त्री के निधन के बाद जब प्रधानमंत्री पद की दौड़ शुरू हुई तो उसमें एक नाम तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज का भी शामिल था। कामराज तमिलनाडु के रहने वाले थे, लेकिन हिंदी नहीं जानते थे। इसलिए दौड़ से उनका नाम बाहर हो गया।

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याद कीजिए 1996 में जब देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने तो उनकी राह में ही उनका हिंदी ना बोल पाना बड़ी बाधा थी। भले ही वे प्रधानमंत्री बन गए, लेकिन हिंदी बोलने के लिए उन्हें प्रयास करना पड़ा। आखिर 15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से वे कन्नड़ में तो नहीं बोल सकते थे।

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कुछ साल पहले टाइम्स ऑफ इंडिया ने चेन्नई डेटलाइन से एक खबर प्रकाशित की थी। उस खबर में उन लोगों के विचार जाहिर किए गए थे, जिन्होंने 1967 में फैले हिंदी विरोधी आंदोलन में हिस्सा लिया था। उन्हें अफसोस था कि हिंदी ना सीख पाने के कारण वे उत्तर भारत में अच्छी नौकरियां नहीं हासिल कर पाए। अब वे अपने बच्चों को हिंदी की कोचिंग करा रहे हैं।

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तमिलनाडु में हिंदी विरोध राजनीतिक है। अब वक्त आ गया है कि इस राजनीतिक विरोधाभास को उजागर किया जाए। बेहतर हो कि हमारे बीच के तमिल जानने वाले लोग वेबसाइट पर हिंदी विरोध की इस राजनीति को तमिल में लिखें और तमिल जनता को संबोधित करने की कोशिश करें, क्योंकि तमिल उपराष्ट्रीयता से प्रभावित तमिल अखबार और मीडिया इस विरोधाभास को शायद ही उजागर करे। इस विरोधाभास को जिस दिन तमिल जनता समझना शुरू करेगी, हिंदी विरोध की तमिल राजनीतिक दुकान बंद होने लगेगी।

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