बिहार में मैं अपना अगला जन्म लूंगा, कह रहे पत्रकार शंभुनाथ शुक्ल

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कल से पितृ पक्ष है। पितरों का तर्पण कल से शुरू होगा। पितृपक्ष में कुश की जरूरत पड़ती है।गया में पिंडदान का काफी महत्व है
कल से पितृ पक्ष है। पितरों का तर्पण कल से शुरू होगा। पितृपक्ष में कुश की जरूरत पड़ती है।गया में पिंडदान का काफी महत्व है
  • शंभूनाथ शुक्ल
वरिष्ठ पत्रकार शंभुनाथ शुक्ल
वरिष्ठ पत्रकार शंभुनाथ शुक्ल

बिहार में मैं अपना अगला जन्म लूंगा, क्योंकि बिहार के लोग बड़े मोहिल होते हैं। आदमी-औरतें सभी। पिछले वर्ष पटना प्रवास में यह फील किया। यह साधारण बात नहीं है कि मुझसे मिलने दूर छपरा से श्री मुकुंदहरि शुक्ल आए, अस्वस्थता के बावजूद। सुधीरकुमार झा अपनी पत्नी के साथ समस्तीपुर से आए। और शैलेश कुमार तो हवाई अड्डे पर चंद्रकला मिठाई लेकर आए।

दिल्ली प्रवासी बिहारी मित्र संजय सिन्हा सुबह-सुबह खस्सी लेकर आए और पटना क्लब में दावत दी, यह जानते हुए भी कि मैं शुद्ध वैष्णव हूँ। पर संजय का आग्रह टाला नहीं जा सका। मैंने भी सोचा कि सच्चा मित्र तो साक्षात भगवान होता है और जब वही आदेश दे रहा है तो प्रसाद स्वरूप ग्रहण किया जाए। अब ऐसे बिहार की मिठास पर कौन न मिट जाए!

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यूँ भी मेरा बिहार से लगाव 37 साल पुराना है, जब कानपुर दैनिक जागरण से मुझे भागलपुर भेजा गया था आँखफोड़वा कांड कवर करने। तब दैनिक जागरण को बिहार तो दूर कानपुर के बाहर यूपी में भी लोग नहीं जानते थे। लेकिन भागलपुर में रिपोर्टिंग के समय जिन स्वनामधन्य पत्रकारों से भेंट हुई, उनमें से श्री गिरधारी लाल जोशी आज भी अपने मित्र हैं।

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वहीँ पहली बार मिले थे दिग्गज पत्रकार श्री अरुण शौरी, उसी एकमात्र होटल में, जहाँ मैं भी रुका था। वे तब इंडियन एक्सप्रेस दिल्ली में कार्यकारी सम्पादक थे। उन्होंने मुझे कानपुर में पीयूसीएल का काम भी सौंपा। तीन साल बाद मैं जब इंडियन एक्सप्रेस के हिंदी अख़बार जनसत्ता में काम करने आया, तब वे टाइम्स ऑफ इंडिया में सम्पादक थे। मैं उनसे मिला और उन्हें अपनी पहली मुलाक़ात की याद दिलाई तो अति प्रसन्न हुए। और क्रमशः जार्ज वर्गीज तथा सुमन दुबे के जाने के बाद वे इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान सम्पादक हुए। तब वे अपने लेख जनसत्ता में छपवाने के लिए मुझसे ही उनका हिंदी अनुवाद कराते थे। उनसे बात करना और उनके लिखे को पढ़ना दोनों का अलग ही आनंद था।

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पहले मैं भी समझता कि उत्तर प्रदेश और बिहार में सामाजिक और सांस्कृतिक एकता है और कोई फर्क नहीं, लेकिन तीन वर्ष कलकत्ता रहकर लगा, नहीं दोनों के मिजाज़ और कल्चर में बहुत फर्क है। सत्य तो यह है कि यूपी की अपनी कोई संस्कृति नहीं, अपना कोई समाज नहीं और वाकई यह यह कापुरुषों का ही प्रदेश है। मसलन कलकत्ता में बसे यूपी के लोग पांच खण्डों में बटे हैं। एक, जिन्हें पुरबिया कहा जाता है और जो ईस्टर्न यूपी से हैं। ये लोग अलीगंज से लेकर टालीगंज तक मारवाड़ियों के भव्य बंगलों (हालाँकि इन बंगलों की चारदीवारी इतनी ऊंची होती है कि इन्हें जेल कहना ठीक होगा) के गार्ड हैं। इन्हें दरबान के रूप में ही जाना जाता है। जो कालान्तर में बाहुबली हो गए, वे अब ट्रांसपोर्ट का धंधा करते हैं।

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दूसरे हैं देशवाड़ी, जो सेन्ट्रल यूपी से हैं, ये लोग इतर के व्यापारी हैं और कपड़ा तथा केमिकल का काम करते हैं (मजदूर और मालिक दोनों)। तीसरे हैं आगरा-मथुरा के लोग। ये लोग खुद को राजस्थानी कहलाना पसंद करते हैं और कचौड़ी-समोसा की दुकानें और भोजनालय चलाते हैं। चौथे हैं मेरठ-मुजफ्फर नगर आदि कौरवी प्रदेश के लोग, जो स्वयं को हरियाणा-पंजाब से जोड़ते हैं। ये लोग कोयला-जूट-चायबागान की दलाली से लेकर जमीनों को खरीदते-बेचते हैं।

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इनका गुट अलग है। इनमें से किसी का बिहार के लोगों से न के बराबर वास्ता है। अकेले बलिया के लोगों का यहाँ स्वतंत्र अस्तित्त्व है और बलिया के लोग खुद को न यूपी का बताते हैं न बिहार का, वे तो ठाठ से कहते हैं कि वे बलिया के हैं। ये यहाँ मोदी की दुकान से लेकर दूध का व्यापार करते हैं। अधिकतर खटाल (दूध-डेरियाँ) इन्हीं की हैं।

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