इमर्जेंसी की 44 वीं सालगिरह पर जय प्रकाश आंदोलन का स्मरण

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इमर्जेंसी की 44 वीं सालगिरह पर जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में शुरू हुए आंदोलन की याद स्वाभाविक है। इसलिए कि इमर्जेंसी का आधार जय प्रकाश का आंदोलन ही माना गया।
इमर्जेंसी की 44 वीं सालगिरह पर जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में शुरू हुए आंदोलन की याद स्वाभाविक है। इसलिए कि इमर्जेंसी का आधार जय प्रकाश का आंदोलन ही माना गया।
  • शिवानंद तिवारी

इमर्जेंसी की 44 वीं सालगिरह पर जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में शुरू हुए आंदोलन की याद स्वाभाविक है। इसलिए कि इमर्जेंसी का आधार जय प्रकाश का आंदोलन ही माना गया। 18 मार्च 1974 को छात्रों और युवाओं के द्वारा बिहार आंदोलन की शुरुआत हुई थी। आंदोलन का नेतृत्व करने वाले छात्र युवा नेताओं के अनुरोध पर 1942 की क्रांति के अग्रदूत रहे जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने उस आंदोलन का नेतृत्व करना कबूल किया था। इसलिए उस आंदोलन को जयप्रकाश आंदोलन या जेपी आंदोलन के रूप में भी जाना जाता है। भ्रष्टाचार, महंगाई, शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन जैसी मांगों को लेकर उस आंदोलन की शुरुआत हुई थी। जयप्रकाश जी द्वारा आंदोलन का नेतृत्व कुबूल कर लिये जाने की वजह से आंदोलन का स्वरूप बदल गया। उनके नेतृत्व की वजह से छात्र, युवाओं का वह आंदोलन जन आंदोलन में बदल गया।

जयप्रकाश जी के नेतृत्व में उस आंदोलन का पहला कार्यक्रम 8 अप्रैल को मौन जुलूस के रूप में हुआ था। जुलूस में शामिल लोगों की संख्या सीमित रखी गई थी। नाम का चयन हुआ था। सबके मुंह पर काली पट्टी थी और उनके हाथ पीठ के तरफ थे। उसका संदेश था, ‘हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा’। अद्भुत दृश्य था वह। ऐसा लग रहा था जैसे औपचारिक रूप से सीमित संख्या वाले उस जुलूस में पूरा पटना शहर ही शामिल गया हो। उसकी एक अद्भुत गरिमा थी। जुलूस में भी गरिमा होती है! यह थोड़ा अटपटा लग सकता है, लेकिन उस मौन जुलूस में एक गंभीरता थी, गरिमा थी। उसके बाद अपने जीवन में कभी वैसा दृश्य मैंने फिर नहीं देखा। उसके अगले दिन जय प्रकाश नारायण जी ने गांधी मैदान में एक विशाल जनसभा को संबोधित किया। उसी सभा में उनको लोकनायक की उपाधि मिली थी।

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अप्रैल महीने की ही 12 तारीख को आंदोलन का एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम था। संपूर्ण बिहार में सरकारी कामकाज को ठप कर देने की घोषणा हुई थी। उसी कार्यक्रम के दरमियान गया में छात्र नौजवानों के जुलूस के साथ पुलिस का टकराव हुआ था। पुलिस ने गोली चलाई। दुकानों और घरों में घुस घुस कर लोगों को मारा गया। भयानक दमन हुआ। हल्ला हुआ कि दो दर्जन लोग उक्त गोलीकांड में मारे गए हैं, लेकिन 9 लोगों के शव बरामद हुए थे। विधानसभा का सत्र चल रहा था। सरकार ने विधानसभा में उक्त गोलीकांड को जायज ठहराया। उसी के बाद सवाल उठा कि जो विधानसभा नौजवानों के ऊपर अंधाधुंध गोली चला कर हत्या और दमन करने को जायज ठहरा रही है, वह जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करती है।

16 अप्रैल को जय प्रकाश नारायणजी गया गए। घटनाओं की जानकारी ली और वहीं आम सभा में उन्होंने विधानसभा को भंग करने की मांग का समर्थन किया। तय हुआ कि बिहार के प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र से विधानसभा को भंग करने की मांग के समर्थन में मतदाताओं से हस्ताक्षर कराया जाए। हस्ताक्षरयुक्त ज्ञापन को बिहार के राज्यपाल को सौंपा जाए।

5 जून 74 को जय प्रकाश नारायण जी के नेतृत्व में छात्र-नौजवानों का एक जुलूस बिहार की विधानसभा को भंग करने की मांग का ज्ञापन देने राजभवन की ओर जा रहा था। उक्त जुलूस पर किसी ने गोली भी चलाई थी। उसी दिन गांधी मैदान की सभा में जयप्रकाश जी ने उदघोष किया था कि यह आंदोलन संपूर्ण क्रांति के लिए है।

इस बीच कांग्रेस पार्टी के अंदर भी चर्चा चल रही थी कि जय प्रकाश नारायण जी और इंदिरा जी के बीच यह टकराव ठीक नहीं है। बीच-बचाव की कोशिश हुई। परिणामस्वरूप इंदिरा जी ने 1 नवंबर 74 को बातचीत के लिए जयप्रकाश जी को आमंत्रित किया, लेकिन विधानसभा को भंग करने की मांग को पूरा करने के लिए इंदिरा जी तैयार नहीं हुईं। उसी के बाद 4 नवंबर को पटना में इनकम टैक्स गोलंबर के पास जेपी के जुलूस पर भयानक लाठीचार्ज हुआ था। जेपी उस लाठीचार्ज में बाल-बाल बचे थे।

उस आंदोलन में कई कार्यक्रम चले थे। लेकिन उसके दो कार्यक्रम मेरे मानस पटल पर आज तक अंकित हैं। पहला 4 नवंबर का जयप्रकाश जी के नेतृत्व वाला जुलूस, जिस पर लाठी चली थी। दूसरा तीन दिनों का बिहार बंद। तीन, चार और पांच अक्टूबर के वैसे बिहार बंद की कल्पना अब नहीं की जा सकती है। इन पंक्तियों के लेखक को उसका अनुभव है। मोटरसाइकिल से भभुआ से डिहरी, नासरीगंज, पीरो होते हुए बिहिया आया था। जीटी रोड जैसे देश के व्यस्ततम सड़क पर चिड़िया क्या, चिड़िया का पूत तक नहीं दिखाई दे रहा था। सन्नाटा भी डरावना होता है, इसका पहला तजुर्बा मुझे उसी यात्रा में हुआ था।

इमरजेंसी के विषय में एक बात मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं। मेरी मान्यता है, उस आंदोलन की वजह से इंदिरा जी ने देश में इमरजेंसी नहीं लगाई थी, बल्कि अपनी सत्ता को बचाने के लिए इमरजेंसी के प्रावधान का नाजायज इस्तेमाल उन्होंने किया था। 1971 में इंदिरा जी रायबरेली से चुनाव लड़ी थीं। प्रसिद्ध समाजवादी नेता राज नारायण जी उस चुनाव में उनके प्रतिद्वंदी थे। चुनाव हारने के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट में राज नारायण जी ने इंदिरा जी के विरुद्ध चुनाव याचिका दायर की थी। उनका आरोप था कि इंदिरा जी ने अपने चुनाव में जीत के लिए भ्रष्ट तरीका अपनाया था। न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने राज नारायण जी के आरोप को सही पाया और इंदिरा जी के चुनाव को रद्द कर दिया।

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इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस फैसले के विरुद्ध इंदिरा जी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर संपूर्ण रोक नहीं लगाई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आप संसद के सत्र में तो भाग ले सकती हैं, लेकिन वहां किसी भी विषय पर मतदान के अधिकार से आप वंचित रहेंगी। इस फैसले के बाद उनके सामने दो विकल्प थे। पहला यह कि सुप्रीम कोर्ट के आंशिक स्थगन के फैसले को मान लेतीं। क्योंकि उस समय संसद का सत्र भी नहीं चल रहा था। दूसरा विकल्प था कि वह अपने बदले किसी अन्य को प्रधानमंत्री बना देतीं और सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले का इंतजार करतीं। लेकिन इन दोनों विकल्पों में से किसी को नहीं चुनकर उन्होंने देश में इमर्जेंसी लगा दिया। इमर्जेंसी भी बिल्कुल और असंवैधानिक तरीके से लगाया। इमर्जेंसी के प्रावधानों का इस्तेमाल पहले किया गया और मंत्रिमंडल से इमर्जेंसी मंजूरी बाद में ली गई।

कहा जाता है कि चुनाव कराने के पूर्व उन्होंने सरकार की गुप्तचर एजेंसी से देश में एक सर्वे कराया था। सर्वे का विषय था कि अगर इंदिरा जी अभी लोकसभा का चुनाव करवाती हैं तो उसका नतीजा क्या निकलेगा। कहा जाता है कि सर्वे का निष्कर्ष आया कि अगर अभी चुनाव होता है तो उसमें इंदिरा जी भारी बहुमत से जीतेंगी। कहा जाता है कि अंतरराष्ट्रीय दबाव और उस सर्वे के भ्रम में इंदिरा जी ने 1977 में चुनाव करा दिया। चुनाव का नतीजा सबके सामने है।

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