अज्ञेय के बहाने स्वैराचार पर एक बेबाक टिप्पणी

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  • प्रियंका सिंह

सन् 1967 में श्री भारतभूषण अग्रवाल ने ‘अज्ञेय’ को एक प्रश्नावली दी थी, जिसका लिखित उत्तर ‘अज्ञेय’ को देना था। यह प्रश्नावली तथा इसके उत्तर ‘अज्ञेय’ के निजी निबंधों (उन्हीं द्वारा प्रयुक्त पदबंध) के संग्रह ‘लिखि कागद कोरे’ में ‘व्यक्तित्व, विधाएँ, बाधाएँ’ शीर्षक से प्रकाशित हैं। इसमें भारतभूषण जी के एक प्रश्न से पता चलता है कि ‘अज्ञेय’ ने इलाहाबाद (योगी जी के प्रयागराज) में सहकारी सहजीवन की एक योजना का प्रयोग किया था। उनका प्रश्न है- “इलाहाबाद में ‘प्रतीक’ की सहकारी तथा सहजीवन की योजना अब इतने समय के परिप्रेक्ष्य में कैसी लगती है? प्रयास, क्या कहा जा सकता है कि असफल रहा? वैसा प्रयास क्या आज भी उपयोगी होता?”

लगभग साढ़े तीन सौ शब्दों में इसका उत्तर देते हुए ‘अज्ञेय’ ने लिखा है- “इलाहाबाद का प्रतीक का प्रयोग सफल भी हुआ और असफल भी हुआ। पूर्वग्रह, दुर्भावना या योजना लेकर आने वालों की बात तो छोड़ दीजिए, असफलता का एक कारण यह भी था कि उसमें कुछ लोग ऐसे भी शामिल थे, जिन्हें उससे तुरंत पहले सहकारी जीवन के नाम पर केवल आज्ञाकारी जीवन का अनुभव हुआ था। सहज आत्मतंत्र में रहना उन्हें नहीं आता था। वे या तो बताए हुए नियम पर चल या चला सकते थे या फिर बिल्कुल स्वैराचारी होकर रह सकते थे। और जिस तरह के सहकारी जीवन की योजना हमारी थी, उसमें इन दोनों प्रकार के अतिवाद के लिए स्थान नहीं था।…वैसा जीवन तभी संभव है, जब उसमें भाग लेने वाले सभी लोग इतने स्वस्थ-संतुलित और स्वाधीनता के अभ्यस्त हों कि नियम अथवा संयम का स्वेच्छा से वरण कर सकें। किसी के बताए हुए नियम से नहीं, प्रातिभ ज्ञान से दूसरे का सम्मान करते हुए ऐसे ढंग से रह सकें कि सभी का समान हित और सुख उससे सिद्ध हो।”

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कुछ दिन पहले यह पढ़ते हुए महसूस हुआ कि मन-मस्तिष्क का कोई अंधेरा कोना प्रकाशित हो गया है, स्वाधीनता का सही अर्थ समझ में आ गया है और जैसे कोई गुत्थी सुलझ गई है। तो इससे क्या हुआ? इससे यह हुआ कि मम्मी बच्ची को उसके भरोसे छोड़ गई है पन्द्रह-बीस दिनों के लिए। अब मम्मी के डर से हर काम समय पर करने की कोशिश करने वाली बच्ची ‘स्वैराचार’ की छूट लेने लगती है। नियम से सात बजे टूट जाने वाली नींद को स्वैराचारी मन फुसलाने लगता है कि अरे, घंटे-दो घंटे और रह ले, कौन डाँटने वाला है अभी। नींद उतनी स्वैराचारी नहीं है, जितना कि मन है। सो, नींद के गुडबाय कह देने पर झुंझलाया मन आलस को रजाई में से भागने नहीं देता और पड़ा रहना चाहता है बेवजह। दिन भर कहाँ-कहाँ आलसपन और मनमानी की छूट ले सकता है, इसकी योजनाएँ बनाता रहता है। आत्मा कचोटने लगती है कि उठ जा नामुराद, इतनी भी मनमानी ठीक नहीं तो आत्मा को चुप कराने के लिए वह करवट बदलता है।

करवट बदलते ही दीवार पर चिपकी ‘अज्ञेय’ की उस शानदार तस्वीर पर नज़र पड़ती है, जो बच्ची को 2011 में एक कार्यक्रम के आमंत्रण पत्र से मिली थी। ‘अज्ञेय’ की तस्वीर पर नज़र पड़ते ही “सहज आत्मतंत्र में रहना उन्हें नहीं आता”, “इतने स्वस्थ-संतुलित और स्वाधीनता के अभ्यस्त हों कि नियम अथवा संयम का स्वेच्छा से वरण कर सकें” आदि वाक्यांश आत्मा के सुर में सुर मिलाने लगते हैं। मन बेचारा स्वैराचार भूल कर खुद को धिक्कारने लगता है और संकल्प लेता है कि आज दिन भर सहज आत्मतंत्र में रहते हुए स्वेच्छा से संयम का वरण करेगा, ताकि वह स्वस्थ-संतुलित और स्वाधीनता का अभ्यस्त बन सके।

(नोट– ‘अज्ञेय’ पर शोध नहीं कर रही हूँ। ‘अज्ञेय’ से प्रेम है मुझे और प्रेम इसलिए है, क्योंकि बीए द्वितीय वर्ष में अभिजीत भट्टाचार्य सर ने ‘अज्ञेय’ पढ़ाया था)

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