बिहार की सियासतः वेट एंड वाच की मुद्रा में हैं एनडीए के घटक दल

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बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग एक बार उठी है। नीति आयोग की रिपोर्ट में बिहार की खस्ताहाली उजागर होने के बाद नीतीश कुमार ने अपनी पुरानी मांग रिपीट कर दी है।
बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग एक बार उठी है। नीति आयोग की रिपोर्ट में बिहार की खस्ताहाली उजागर होने के बाद नीतीश कुमार ने अपनी पुरानी मांग रिपीट कर दी है।

पटना। एनडीए के घटक दल बिहार में सीटों के बंटवारे के सवाल पर मौनी बाबा बन गये हैं। हाल तक फुदकते, बिदकते और बहकते बोल पर विराम लग गया है। लगता है कि सबु कुछ ठीकठाक पर हैं। पर, अंदरखाने भारी भूचाल की तैयारी भी सबकी ओर से चल रही है। भाजपा प्रवक्ताओं के सुर भी बदले हुए हैं। सीटों के बंटवारे पर मौके-बेमौके बोलते रहने वाले घटक दल भी खामोश हैं।

एनडीए में कद के हिसाब से जदयू सबसे बड़ा घटक दल है। कुछ दिन पहले तक बड़े भाई और इतनी-उतनी सीटों को लेकर जदयू ने धमाल मचाया था। अभी उसकी बोलती बंद है। उसके प्रवक्ता हों या नेता, उनसे बात करें तो इस मुद्दे पर इतना भर कह कर सवाल टाल जाते हैं कि नीतीश जी और वषिष्ठ बाबू ने जो कहा है, उसे ही सच मानें। सनद रहे कि दोनों ने कहा था कि सीटों को लेकर कोई लफड़ा नहीं है, समय पर इसका खुलासा हो जाएगा। अलबत्ता उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा को छोड़ एनडीए के हर घटक दल के निशाने पर बिहार में लालू और उनका परिवार ही है।

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एनडीए की अगुआ पार्टी भाजपा के भी सुर बदले हुए है। पार्टी ने बस एक ही स्वर निकालना शुरू किया है कि सीटें जिसको जितनी मिलें, पर जीतनी सभी 40 सीटें हैं। भाजपा ने तो अपने प्रवक्ताओं को भी अब निर्देश दे दिया है कि वे बयान जारी करते समय सिर्फ केंद्र सरकार का ही गुणगान न करें, बल्कि बिहार सरकार की उपलब्धियों को भी गिनायें। उनके भी सुर बदले हुए हैं।

ऊपर-ऊपर सब कुछ ठीक दिख रहा है। पर, यह अंतिम सत्य नहीं है। कहते भी हैं कि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं। कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता राजनीति में। ऐन वक्त ऐसा कुछ हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अनुमान लगाया जाता है कि नवरात्र बीतते ही दीपावली तक बिहार की राजनीति एक बार फिर गरमायेगी। सीटों के बंटवारे को लेकर एनडीए ही नहीं, महागठबंधन में भी घमासान की आशंका है। इसी घमासान से बिहार में एक नयी धारा की राजनीति का सृजन हो सकता है।

संभावनाओं की बात करें तो सीटों के बंटवारे से असंतुष्ट घटक दलों को भाजपा किनारे लगा सकती है। इसमें उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा के साथ अनहोनी की आशंका ज्यादा है। नीतीश कुमार के साथ होने के कारण भाजपा अंदर से ऐसा चाहती भी है कि कुशवाहा खुद ब खुद किनारे हो जायें या उन्हें किनारे करने के लिए उन्हें उकसाया जाये। उकसाने का मतलब उनकी उम्मीद से कम सीटें देना। भाजपा नीतीश का साथ भी नहीं छोड़ना चाहती है और उनके कद को भी बढ़ने देने से उसे नफरत है। इसलिए नीतीश के पिछले आचरण को देखते हुए भाजपा को यह भरोसा नहीं हो रहा कि वह कब किधर पलटी मार दें। उनकी कांग्रेस से नजदीकी की खबरें भी कई बार उछलती रही हैं। हां, इतना तय है कि राजद के साथ उनके जाने का रास्ता आसान नहीं है। कुशवाहा महागठबंधन का हिस्सा हो सकते हैं, इसलिए कि नीतीश की मुखालफत पर ही उनकी राजनीति आधारित है और एनडीए में नीतीश का बढ़ता कद उन्हें शायद ही रास आये।

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एनडीए में सीटों के सवाल पर असहज होने पर कांग्रेस का साथ नीतीश को ज्यादा पसंद आयेगा। इसका फैसला जदयू के लिए तब ज्यादा अनुकूल होगा, जब जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा हुई है, उसके परिणाम एनडीए या यों कहें कि भाजपा के प्रतिकूल आयें। इसलिए यह कहना ज्यादा मुनासिब होगा कि घोषित विधानसभा चुनावों के परिणाम आने तक सब कुछ ठीक है, लेकिन उसके बाद ही बिहार की राजनीति की तस्वीर अधिक स्पष्ट हो पायेगी।

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