चंद्रा पांडेय के बारे में विष्णुकांत शास्त्री ने क्या कहा था, इसे जान लीजिए

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चंद्रा पांडेय के नाम से मशहूर डॉ. चंद्रकला पांडेय के व्यक्तित्व के एक नहीं, अनेक रूप हैं। कइयों के लिए वे कवयित्री हैं तो कुछ के लिए अनुवादक।
चंद्रा पांडेय के नाम से मशहूर डॉ. चंद्रकला पांडेय के व्यक्तित्व के एक नहीं, अनेक रूप हैं। कइयों के लिए वे कवयित्री हैं तो कुछ के लिए अनुवादक।
  • कृपाशंकर चौबे
कृपाशंकर चौबे
कृपाशंकर चौबे

चंद्रा पांडेय के नाम से मशहूर डॉ. चंद्रकला पांडेय के व्यक्तित्व के एक नहीं, अनेक रूप हैं। कइयों के लिए वे कवयित्री हैं तो कुछ के लिए अनुवादक। कुछ के लिए वे संपादक हैं तो कुछ के लिए आलोचक। बंगाल से लेकर पूर्वोत्तर तक फैली एक बहुत बड़ी आबादी के लिए वे ‘मैम’ हैं। चार दशकों तक उन्होंने अध्यापन किया। जब कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अध्यापक के रूप में चंद्रा जी की नियुक्ति हुई, उस समय विभागाध्यक्ष थे सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य विष्णुकांत शास्त्री, जो उनके शिक्षक भी रहे थे। नियुक्ति के बाद जब कार्यभार ग्रहण करने चंद्रा पांडेय पहुंचीं तो शास्त्री जी ने कहा था- विभाग में बसंत की ताजा हवा का स्वागत है। 2007 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर पद से चंद्रा पांडेय ने अवकाश ग्रहण किया। लेकिन एक शिक्षक क्या कभी अवकाश ग्रहण कर सकता है? नहीं कर सकता। इसीलिए चंद्रा जी आज भी बीच-बीच में कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाने का समय निकाल लेती हैं।

चंद्रा जी की एक देशव्यापी पहचान सीपीएम की नेता के बतौर भी है। वे 1993 से 2005 तक बारह वर्षों तक राज्यसभा की सांसद रहीं। उच्च सदन में भी उन्होंने अपनी वाग्मिता और ईमानदारी की अमिट छाप छोड़ी। जब पहली बार 1993 में राज्यसभा के लिए उनका चयन हुआ था तो भाजपा के तत्कालीन सांसद विष्णुकांत शास्त्री ने बयान दिया था- “सीपीएम अनेक भालो मेय पेयेछे।” (सीपीएम को बहुत अच्छी लड़की मिली है)। इससे चंद्रा जी की साख का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। चंद्रा पांडेय व्यक्तिगत जीवन में एक लोकतांत्रिक तथा उदारचित्त व्यक्ति हैं। विद्या विनय देती है और चंद्रा जी की विनयशीलता और आत्मीयता के कायल सभी हैं। उनकी आत्मीयता के कारण ही दिल्ली में उनका सांसद आवास लेखकों से अटा पड़ा रहता था और आज भी कोलकाता में ईई 164/302 साल्टलेक सेक्टर 2 का उनका आवास लेखकों, शिक्षकों, शोधार्थियों और विद्यार्थियों से भरा रहता है। राजनीतिक व्यस्तता और कतिपय गैर सरकारी संस्थाओं की व्यस्तता में भी चंद्रा जी कभी ‘उद्भावना’ के बांग्ला साहित्य विशेषांक का कुशलतापूर्वक संपादन कर लेती हैं तो त्रैमासिक पत्रिका ‘साम्या चिंतन’ के सह संपादन का समय भी निकाल लेती हैं। और तो और, कोटा स्थित मुक्त विश्वविद्यालय के लिए बारह पाठ्य पुस्तकों का संपादन भी कर लेती हैं। इसी के समानांतर वे लिखने और अनुवाद का काम भी करती रहती हैं। अभी अभी उनकी अनूदित किताब ‘तितास एक नदी का नाम’ तथा संपादित किताब ‘कॉकबरक की प्रतिनिधि कविताएँ’ प्रकाशित हुई हैं। बांग्ला साहित्य में अद्वैत मल्लबर्मन के उपन्यास ‘तितास एकटि नदीर नाम’ का चंद्रा दी ने जय कौशल के साथ मिलकर अनुवाद किया है। डॉ. मिलन रानी जमातिया की पुस्तक ‘कॉकबरक की प्रतिनिधि कविताएँ’ की कविताओं का चयन एवं संपादन चन्द्रा पाण्डेय ने किया है।

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एक समय चंद्रा जी ने भीष्म साहनी तथा प्रेमचंद की कहानियों का बांग्ला में अनुवाद किया था। उन्होंने राही मासूम रजा के ‘आधा गांव’ का भी बांग्ला में अनुवाद किया था। उन्होंने डिरोजियो की कविताओं का भी हिंदी में अनुवाद किया था। इन अनुवादों से उन्हें बहुत ख्याति मिली थी। अनुवाद के अलावा चंद्रा जी ने कई आलोचना पुस्तकें भी लिखीं। लेकिन उनके साहित्यिक जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव था-‘उत्सव नहीं हैं मेरे शब्द’ का 1998 में प्रकाशन। यह चंद्रा जी का पहला काव्य संग्रह है। इस संग्रह की कविताओं में पाठकों को अपनी जिंदगी का अक्स दिखाई देता है। इस संग्रह में विषयों की विपुल विविधता है। ‘रंग धूसर हो गए हैं’, ‘समय से संवाद’, ‘सुनो धरती पुत्र’, ‘शिशु सी कविता’, ‘मुरझाया बचपन’, ‘अपना अपना सूरज’, ‘चांदः एक गुच्छ कविताएं’, ‘लिखी मैंने भी कविताएं’, ‘खुद रचूंगी इतिहास अपना’, ‘दुःख जो नितांत मेरा है’, ‘मेरी गली के बच्चे’ और ‘फुटपाथ पर वर्णमाला’ शीर्षक कविताएं जटिल भावों पर कवयित्री की अचूक पकड़ का सबूत हैं। इसी संग्रह की ‘प्रतिबद्धता’ शीर्षक कविता में चंद्रा जी अपना काव्य सरोकार स्पष्ट कर देती हैं- “मेरी कविता जुड़ी रहना/ चाहती है/ अपने देश से/ देश से यानी दिल्ली, बंबई, कलकत्ता, मद्रास जैसे महानगरों से/ नहीं/ दूर सुदूर के अनाम गाँवों/ आदिवासी बस्तियों/ इतिहास से उन्मूलित किए जाते/ कबीलों, जनजातियों/ और मिटाई जाती लोक संस्कृतियों से/ यह बेरुखी से मूँद आँखें/ व्यवस्था और तंत्र की/ अमानवीयता से, केवल खुद के बनाए शब्दों/ के इंद्रजाल में/ नहीं उलझी रहना चाहती/ चाहती है आँकना/ रोग शोक विछोह उदासीनता भरा/ रोजमर्रा का जीवन मिथकों के अबूझ जगत/ और अंधविश्वास के कोहरे से निकल/ पकड़ हाथ शब्दों का चाहती है पहुँचना/ अभिव्यक्ति की खतरनाक ऊँचाइयों तक/ लिखना चाहती है दुःख और करुणा/ से भीगी/ धरती की व्यथा-कथा/ और/ आम आदमी की आँखों की रोशनी।”

इसी संग्रह की ‘समय की गंध’ शीर्षक कविता में कवयित्री के आत्मसंघर्ष को भी हम देख सकते हैं- “कभी-कभी यादों की दराज खोलते ही/ कैसी तीखी हो उठती है/ बीते हुए समय की गंध! नैप्थीन की गोलियों की तरह/ समय की ठोस तेज गंध। मैं बचना चाहती हूँ इससे/ और चाहती हूँ इसे सूँघना भी। बीता हुआ कल पुरातात्विक खंडहर/ नरम पत्थर पर खुदी कलाकृति सा/ ठोस और कठोर है, नहीं ध्वस्त किया जा सकता/ तेज धारदार पैनी छुरी से भी। जो कुछ हुआ और हो रहा है/ सबकी मूक गवाह/ अभिशप्त यक्ष सी मैं/ मर्मान्तक स्मृतियों को/ संवेदनात्मक स्तर पर दुहराते हुए/ अव्यक्त पीड़ा से गुजरती हूँ। अतीत का पुल पार कर/ अनेक चेहरे आ खड़े होते हैं जब-तब/ और मैं महसूसती रह जाती हूँ सबकी/ अलग-अलग तेज गंध। यह संग्रह बांग्ला में भी ‘उत्सव नय आमार शब्द’ शीर्षक से प्रकाशित होकर बांग्ला जगत में यथेष्ठ समादृत रहा। उसके बाद आया उनका दूसरा काव्य संग्रह-‘आकाश कहां है’ जिसका लोकार्पण करते हुए नामवर सिंह ने चंद्रा जी की काव्य संवेदना की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। नामवर जी ने कहा था, “चंद्रा पांडेय की कविताओं में नए भाषिक प्रयोग हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि हम जिंदगी के अनेक रंगों व अनुभवों की सतत यात्रा कर रहे हैं।” इसी  संग्रह के बारे में केदारनाथ सिंह ने लिखा, “एक ऐसे समय में जब लगभग सारी दुनिया एक बलात् वैश्वीकरण और बाजारीकरण की आशंका से आक्रांत है, यहां एक प्रौढ़ मन और प्रौढ़तर मस्तिष्कवाली कवयित्री चंद्रा पांडेय हैं जो खुली आंखों से दुनिया को देखती हैं और जो कहना है, उसे बिना किसी लाग-लपेट के निर्भ्रांत शब्दों में व्यक्त करती हैं। आवाज की इस दृढ़ता का संबंध उस गहरी प्रतिबद्धता से है जो उनके विचार और संवेदना दोनों का हिस्सा बन चुकी है। विचारधारा के विलयन या उस पर लगातार पड़नेवाली चोटों के इस युग में यह वैचारिक दृढ़ता कविताओं को अपनी जमीन पर खड़े रहने की ताकत देती है। यही कारण है कि उनकी अनेक कविताओं में स्त्री जीवन की व्यथा तो दिखाई पड़ेगी पर कातरता कहीं नहीं है। ‘आकाश कहां है’ में जो संग्रह की पहली कविता है और पूरे संग्रह का शीर्षक भी, एक स्त्री के संघर्ष और उसकी पीड़ा का बखान है, जिसका मुख्य स्वर है-‘शक्तिभरी आंखों में, पर एहसास कहां है? पंखों में द्रुतगति है, पर आकाश कहां है?’ यह स्त्री की वेदना की वह भूमि है जो पहले भी मिल जाएगी पर बाद की एक कविता मानों इसी प्रश्न का दो टूक उत्तर देती है-‘खोज ली है मैंने अपने पैरों तले की जमीन खड़ा होकर जिस पर खोज लूंगी अपने हिस्से का आसमान।’ ‘आकाश कहां है’ संग्रह एक प्रश्न से शुरू होकर निरंतर एक उत्तर की तलाश की दिशा में बढ़ता हुआ संग्रह है।” केदारनाथ सिंह की इस टिप्पणी की दो टूक पुष्टि ‘रूपकुंवर कब तक जलेगी’, ‘कहां व्यवधान है’, ‘कैसा शक्ति परीक्षण’ से लेकर ‘कहां हम सभ्य’ शीर्षक कविताएं कर देती हैं। आज चंद्रा दी का जन्मदिन है। दीदी आपको बहुत बहुत शुभकामनाएं।

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