जुगनू शारदेय नहीं रहे, सोशल मीडिया पर छायी निधन की सूचना

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जुगनू शारदेय चले गये। अपने जमाने के नामी पत्रकार। स्वाभीमानी और संयत. अंतिम दिनों में उनका अकेलापन, उनके जाने से दुखी नहीं करता।
जुगनू शारदेय चले गये। अपने जमाने के नामी पत्रकार। स्वाभीमानी और संयत. अंतिम दिनों में उनका अकेलापन, उनके जाने से दुखी नहीं करता।
जुगनू शारदेय चले गये। अपने जमाने के नामी पत्रकार। स्वाभीमानी और संयत. अंतिम दिनों में उनका अकेलापन, उनके जाने से दुखी नहीं करता। इसलिए कि अकेलापन आदमी की सबसे बड़ी पीड़ा है। उनके निधन के बाद सोशल मीडिया पर स्मृति शेष टिप्पणियों की भरमार लगी है।

पत्रकार और संप्रति फिल्मी दुनिया से सरोकार रखने वाले अविनाश दास उनके बारे में लिखते हैं- जुगनू शारदेय जी के निधन की सूचना अभी-अभी मिली है। उनसे मेरी पहली मुलाक़ात पटना में हुई थी। उस वक़्त तक पटना मैं छोड़ चुका था और किसी यात्रा में वह टकरा गये थे। नीतीश कुमार की सरकार थी और सरकार के कामकाज की तीखी आलोचना से भरे हुए नज़र आये। एक साथी थे, जिन्होंने तंज भी कसा कि आप तो उनके ही फ़्लैट में रहते हैं और उनका ही विरोध करते हैं। उन्होंने दो टुक जवाब दिया था कि मुझे एक छत देकर उसने मेरी ज़मीर थोड़े ही ख़रीद ली है!

बाद में जुगनू जी से अच्छी-ख़ासी मित्रता हो गयी और अतिरिक्त इज्जत देने पर अक्सर वो इज्जत उतारते हुए नज़र आये। उन्हें गवारा नहीं था कि उन्हें उम्रदराज माना जाए।

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मुंबई में कुछ दिन मेरे पास रहे, जब मैं मढ़ गांव में अपने दोस्त रामकुमार के साथ दो कमरों के एक घर में रहता था। मुझसे खिचड़ी बनवाते थे और थाली में ऊपर से सरसों का कच्चा तेल डलवाते थे। मुंबई से उनके लौटने के बाद उनसे एकाध बार फ़ोन पर बात हुई, लेकिन पिछले कुछ सालों से हम एक दूसरे के संपर्क में नहीं थे। उनके बीमार होने और वृद्धाश्रम में अंतिम वक़्त गुज़ारने की सूचना मिलती रही। मुझे अफ़सोस है कि मैं इस उत्तर-जीवन में उनके कोई काम नहीं आ पाया।

वह साहसी पत्रकार थे और उन्होंने अंतिम समय तक अपनी रीढ़ सीधी रखी। ऐसी दुर्लभ प्रजाति अब पत्रकारिता में शायद ही हम देख पाएं। जुगनू शारदेय को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।

लेखक-पत्रकार निराला लिखते हैं- जुगनू भइया नहीं रहे. इस नश्वर संसार को अलविदा कर गये। जुगनू भइया यानी जुगनू शारदेय। अपने बिहार के चर्चित पत्रकार। हनक और धमक रहती थी उनकी। हमेशा लोगों के बीच रहनेवाले, लोगों के बीच ही रहने की ख्वाहिश रखनेवाले, बोलते रहनेवाले, जुगनू भइया पिछले कुछ सालों से एकाकी जीवन गुजार रहे थे। बीमारियों के साथ। बीमारियों से ज्यादा पीड़ादायी यही था कि उनके जैसा आदमी,एकदम से सबसे कटकर अकेला, अलग-थलग पड़ गया है। इस लिहाज से उनका जाना दुखद खबर नहीं।

वरिष्ठ पत्रकार और जुगनू भइया के करीबी साथी Anurag Chaturvedi सर और जुगनूजी को बेपनाह चाहनेवाले उनके मित्र Shree Kant भइया से  हमेशा उनकी खबर मिलती थी। जुगनू भइया हमारे जिला-जवार के थे। औरंगाबाद के। हम जब भी बात करते, मगही में ही बतियाते थे। वे हिंदी में भले ही झारकर, कठोर बोलते हों कभी भी, पर अपनी भाषा मगही में मुलायमियत के साथ बतियाते थे। आमने-सामने की उनसे आखिरी मुलाकात पटने में आयोजित  शिवानंद तिवारीजी के उस फंक्शन में हुई थी, जिसका आयोजन उनके सक्रिय संसदीय या चुनावी राजनीति से संन्यास की घोषणा बाद किया गया था। उस दिन भी जुगनू भइया अपने रंग में थे। पूरे रंग में।

उनसे आखिरी बहस ‘नदिया के पार’ फिल्म को लेकर हुई थी, जिसमें उनके कहे से मैं सहमत नहीं था। वे अपने तर्कों के साथ जिद पर, मैं अपने तथ्यों के साथ जिद पर। ना वे अपनी बात से टकस-मकस कर रहे थे, ना मैं अपनी बात से। कुछ माह बाद उनका फोन आया कि पटने में हो? मैंने कहा कि नहीं भइया। फिर बोले कि औरंगाबाद में हो? मैंने बोला कि नहीं भइया अभी तो नहीं हैं। उन्होंने कहा कि अगर इधर होता तो मिलते और यह कहते कि तुम जो कह रहे थे, वह सही है।

यह विवेक आपके अंदर अनुभव से ही आता है कि किसी जूनियर से अगर किसी विषय पर द्वंद्व या दुविधा हो तो आप जूनियर को अरसे बाद ही सही, यह बतायें कि तुम सही हो। इससे जूनियर में आत्मविश्वास का भाव भी आता है और सीनियर के प्रति सम्मान का भाव भी। जुगनू भइया के जाने का दुख है। जिस तरह से गये, उससे मन दुखी है। पर, यह अच्छा ही हुआ कि वे दुनिया से अपनी ठसक, अपने शान-स्वाभिमान के साथ विदा हुए। बिना समझौता किये।

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