सिन्हा लाइब्रेरी वाले सच्चिदानंद सिन्हा का नाम क्या आपने सुना है ?

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पटना के सिन्हा लाइब्रेरी वाले सच्चिदानंद सिन्हा का नाम क्या आपने सुना है ? मुझे बिहार की कुछ चुनिंदा विभूतियों के प्रति अतीव सम्मान है। उनमें एक हैं सच्चिदानंद सिन्हा।
पटना के सिन्हा लाइब्रेरी वाले सच्चिदानंद सिन्हा का नाम क्या आपने सुना है ? मुझे बिहार की कुछ चुनिंदा विभूतियों के प्रति अतीव सम्मान है। उनमें एक हैं सच्चिदानंद सिन्हा।
  • प्रेमकुमार मणि 
प्रेमकुमार मणि
प्रेमकुमार मणि

पटना के सिन्हा लाइब्रेरी वाले सच्चिदानंद सिन्हा का नाम क्या आपने सुना है ? मुझे बिहार की कुछ चुनिंदा विभूतियों के प्रति अतीव सम्मान है। उनमें एक हैं सच्चिदानंद सिन्हा। संभव है, आप उन्हें जानते हों; नहीं भी जानते हों। मुझे अधिक विश्वास है कि नयी पीढ़ी उनके बारे में कुछ नहीं जानती। यह मेरे लिए अत्यंत पीड़ादायक है। परसों मैंने चुपचाप छज्जूबाग स्थित सिन्हा लाइब्रेरी में जाकर कुछ समय बिताए। जीर्ण-शीर्ण स्थिति देख कर मन क्षुब्ध हुआ। आजाद भारत की हुकूमतें आईं और गईं, सिन्हा लाइब्रेरी की हालत निरंतर बद से बदतर होती चली गई। बिहार के नेताओं और कर्ताओं को गुंडों-शोहदों के महिमामंडन से फुर्सत मिले तब तो !

लेकिन मैं भी तो अवांतर बातें करने लगा। शायद इसका कारण मेरा भावावेग हो। नयी पीढ़ी को पहले पता तो हो कि सच्चिदानंद सिन्हा थे कौन। इसके लिए आवश्यक है कि पहले उनकी संक्षिप्त चर्चा कर ली जाये। सिन्हा साहब के नाम से  मशहूर सच्चिदानंद सिन्हा का जन्म आज ही के दिन यानी 10 नवम्बर को 1871 में मौजूदा बक्सर जिले के कोरान सराय के पास मोरार गाँव में हुआ था, जहाँ उनके पिता की छोटी-सी ज़मींदारी थी। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की और फिर लंदन जाकर बैरिस्टर बने। वहाँ उनके शिक्षकों में सुप्रसिद्ध भारतविद मैक्स मूलर भी थे, जिन्होंने इन्हें अपना नाम शुद्ध लिखना सिखाया। सिन्हा अपना नाम अशुद्ध लिखा करते थे। इसकी चर्चा उन्होंने अपने संस्मरण में की है।  भारत लौटने पर उन्होंने पहले कोलकाता, फिर इलाहाबाद और आखिर में पटना में वकालत की। लेकिन यह तो उनका पेशा था, जिनसे उनका जीवन यापन होता था। सिन्हा साहब के  दो कार्य मेरी दृष्टि में महत्वपूर्ण हैं- एक राजनीतिक और दूसरा सामाजिक। राजनैतिक तौर पर उन्होंने बिहार को अलग प्रान्त बनाने में केंद्रीय भूमिका निभाई और सामाजिक स्तर पर बिहार में रेनेसां अथवा नवजागरण का सूत्रपात किया। यह उनके प्रयासों का ही नतीजा था कि बिहार 1912 में बंगाल से पृथक प्रान्त के रूप में अस्तित्व में आया।

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सिन्हा साहब ही थे, जिन्होंने इस तथ्य को समझा था कि बिहार जैसे पिछड़े इलाके दोहरा औपनिवेशिक संकट झेल रहे हैं। पहला तो ब्रिटिश उपनिवेशवाद  था और दूसरा बंगाली उपनिवेशवाद। ब्रिटिश उपनिवेशवाद तो ऊपर-ऊपर था, लेकिन यह बंगला उपनिवेशवाद प्रत्यक्ष सीने पर सवार था। हर शहर का नागरिक जीवन बंगालियों की गिरफ्त में था। हर जगह डाक्टर, वकील, प्रोफ़ेसर बंगाली ही होते थे। वे बिहारियों से भरपूर नफरत भी करते थे। रेलवे के विस्तार के साथ बंगालियों का भी अखिल भारतीय विस्तार हो गया। कहते हैं सिन्हा साहब जब लंदन से पढाई कर गाँव लौटे और बक्सर रेलवे स्टेशन पर एक रेलवे कांस्टेबल को बंगाल पुलिस का बिल्ला लगाए देखा, तब क्षुब्ध हुए। उन्होंने लंदन प्रवास में ही ठान लिया था कि बिहार को बंगालियों के चंगुल से मुक्त कराऊंगा। बिहार लौट कर तुरत-फुरत वह अपने काम में लग गए और महेश नारायण जैसे कुछ मित्रों के सहयोग से बिहार की आज़ादी का झंडा बुलंद कर दिया।

बिहारियों का कोई नागरिक जीवन नहीं था। जात-पात में उलझे सत्तूखोर बिहारी केवल कमाना-खाना जानते थे। भोन्दू भाव न जाने, पेट भरे सो काम। उनका एक बहुत छोटा हिस्सा ही  शहरी हुआ था, जिसमें मुख्यतः अशरफ़ मुसलमान और श्रीवास्तव कायस्थ थे। ये लोग भी हद दर्जे के काहिल थे। पटना से न कोई अखबार निकलता था, न यहाँ  थियेटर की कोई परंपरा थी। साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में भी बिहारियों का पढ़ा-लिखा तबका बंगालियों का पिछलग्गू था। सिन्हा साहब के शब्दों में ‘चारों ओर मायूसी थी’। उन्होंने इस कमजोरी को चिन्हित किया। उन्होंने 1894 में  बिहार टाइम्स अख़बार का प्रकाशन शुरू किया। बंगालियों ने इसे बिहारियों का प्रलाप कहा। सिन्हा डिगे नहीं। आगे चल कर उन्होंने इलाहबाद से निकलने वाले कायस्थ समाचार पत्रिका को खरीद लिया और उसे हिंदुस्तान रिव्यू बना दिया। इसी अख़बार के सम्पादकीय में उन्होंने  राजेंद्र बाबू पर टिप्पणी की थी, जब प्रवेशिका परीक्षा में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रथम आकर कमाल का प्रदर्शन किया था। दरअसल सिन्हा साहब ने इसे बिहार के उभरते गौरव के रूप में देखा था।

1907 में अपने मित्र और सहयोगी महेश नारायण के देहांत के बाद वह अकेले हो गए, लेकिन 1911 में अपने साथी सर अली इमाम से मिल कर इन्होंने केंद्रीय विधान परिषद् में बिहार का मामला रखने के लिए उत्साहित किया। अली साहब ने सम्राट की घोषणा में बिहार के लिए लेफ्टिनेंट गवर्नर इन कौंसिल की घोषणा कर दी। जैसे ही सम्राट की घोषणा हुई, सिन्हा बच्चों की मानिंद उल्लास से भर गए। दरअसल अपने मित्र से उन्होंने छल किया था। अली इमाम साहब बिहार के लिए लेफ्टिनेंट गवर्नर की घोषणा का ही प्रस्ताव करना चाहते थे। सिन्हा ने जिद की कि उसे कौंसिल के साथ करवाइये। वह मान गए और अंग्रेज हुक्मरानों, जिनके बगलबच्चे बंगाली भी थे, इस बारीकी पर ध्यान नहीं दे पाए। जैसे ही घोषणा हुई, सिन्हा साहब ने अपनी ख़ुशी को प्रदर्शित किया। इमाम को बिहार के निर्माण की बधाई दी। इमाम साहब ने कहा- ‘मूर्खता की बातें कर रहे हो। बिहार कैसे बन गया?’  सिन्हा साहब ने स्पष्ट किया- यदि कौंसिल बनेगा तो अलग प्रान्त बनाना  ही होगा। उनकी वकील बुद्धि पर इमाम साहब हैरान हो गए। नाराजगी  प्रदर्शित करते हुए कहा- सिन्हा, तुमने मेरे साथ छल किया है। अंग्रेज लोगों ने आँख मूँद कर मुझ पर विश्वास किया और मैंने उन्हें धोखा दे दिया। सिन्हा साहब का कहना थ- मैंने जो भी किया, अपने बिहार के लिए किया।

सच्चिदानंद सिन्हा पर लिखने और बोलने के लिए समय चाहिए। मैं रोम-रोम से उनका सम्मान करता हूँ। राजनीति को वह पसंद नहीं करते थे और इसे ऐरू-गैरु-नत्थू खैरू लोगों का शगल कहते थे। विचारों से वह ज़मींदारों के हित के पक्षधर थे। एक वक़्त उन्होंने ज़मींदारों की सभा की सदारत भी की थी। लेकिन पूरी तरह शफ्फाक होना तो मुश्किल होता है। सिन्हा साहब ने बिहार के निर्माण और यहाँ सामाजिक नवजागरण विकसित करने में जो योगदान किया है, उस पर व्यवस्थित काम होना ही चाहिए।  9 दिसम्बर 1946 को जब संविधान सभा की पहली बैठक हुई तो सबसे उम्रदराज सदस्य के नाते सिन्हा साहब को ही इसका अस्थायी अध्यक्ष (सभापति) बनाया गया। जब संविधान बन गया, तब उनके हस्ताक्षर के लिए राजेंद्र बाबू के नेतृत्व में एक दल पटना आया, क्योंकि सिन्हा साहब दिल्ली जाने में अस्वस्थता के कारण अक्षम थे। पटना में इस वास्ते एक छोटा-सा समारोह हुआ। कहते हैं कि राष्ट्रगान पर उनका बिहारीपन एक बार फिर मचल उठा। उन्होंने एतराज किया- ‘इस गान में हमारा बिहार तो है ही नहीं।’  सिन्हा साहब हिंदी समर्थक भी नहीं थे। वह बिहारी बोलियों को भाषा का दर्जा देना चाहते थे। वह कभी हिंदी नहीं बोलते थे। भोजपुरी उनकी जुबान थी और इस पर उन्हें जरूरत से कुछ ज्यादा गुमान था। अंग्रेजी से फुर्सत मिलने पर वह भोजपुरी ही बोलते थे। भिखारी ठाकुर को पहली दफा नागरिक सम्मान उन्होंने दिया। उनके सम्मान में एक भोज दिया, जिसमें पटना के गणमान्य उपस्थित थे।

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लेकिन सबसे बड़ी सेवा उन्होंने शिक्षा जगत को दी। 1924 में पचास हजार रुपए देकर उन्होंने एक लाइब्रेरी स्थापित की, जो आज भी सिन्हा लाइब्रेरी के नाम से आख़िरी सांसें ले रहा है। उसी के साथ राधिका सिन्हा इंस्टिट्यूट है। राधिका सिन्हा उनकी पत्नी थीं। 1936 से 1944 तक वह पटना विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। उस समय संभवतः वह बिहार का एकमात्र विश्वविद्यालय था। इस विश्वविद्यालय को ऊंचाइयां देने के लिए उन्होंने सब कुछ किया। उनका कार्यकाल स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है। इन व्यस्तताओं से समय निकाल कर वह लिख-पढ़ भी लेते थे। कहते हैं कि वह खूब पढ़ते थे। पढ़ते वक़्त किताब की पसंदीदा पंक्तियों पर लाल-नीली रेखाएं खींचना भूलते नहीं थे। सिन्हा लाइब्रेरी की शायद ही कोई पुस्तक हो, जो उनके रेखांकन से बची हुई हो। उन्होंने अपने वक़्त के लोगों पर खूबसूरत संस्मरणात्मक लेख लिखे हैं। कवि इक़बाल पर भी उनकी एक किताब है- ‘इक़बाल: द पोएट एंड हिज मैसेज’।

सिन्हा साहब ही थे, जिन्होंने जाति से जमात की ओर और प्रदेश से देश की ओर का नारा बुलंद किया था। वह कायस्थों की जातिसभा के अध्यक्ष रहे, लेकिन जाति की कट्टरता को तोड़ते हुए उन्होंने विवाह किया था और इसके लिए उन्हें जाति बहिष्कृत कर दिया गया। इसकी उन्हें कोई चिंता नहीं थी। राजेंद्र बाबू ने आत्मकथा में लिखा है कि किस तरह मैट्रिक पास करने के बाद सिन्हा साहब का आशीर्वाद लेने के लिए वह पटना आना चाहते थे, लेकिन इस भय से कि उन्हें भी जाति बहिष्कृत कर दिया जाएगा, डर गए थे। आखिरकार बहुत छुपते हुए वह सिन्हा साहब से मिले और चरणस्पर्श कर उनका आशीर्वाद लिया। सिन्हा साहब जब इलाहाबाद में वकालत कर रहे थे, तब मोतीलाल नेहरू के अभिन्न मित्र थे। दोनों कांग्रेस में साथ-साथ सक्रिय हुए। हालांकि 1920  के बाद सिन्हा साहब दलगत राजनीति से अलग हो गए। इलाहाबाद में मोतीलाल नेहरू के साथ मिलकर इन्होंने सत्यसभा की स्थापना में योगदान दिया। यह सत्यसभा ब्रह्मसमाज की तरह का एक सामाजिक मंच था। जिस पर अब तक कोई शोधकार्य नहीं हुआ है।

मैं समझता हूँ, मैंने एक बेतरतीब वृतांत लिख दिया है। इसे संवारने की मुझे  फुरसत नहीं है। मैं अपने मित्रों के लिए इसे छोड़ता हूँ। अभी मुझे बस मित्रों से यही अनुरोध करना है कि सिन्हा साहब के जन्मदिन पर एक छोटा-सा संकल्प लें कि बिहार में एक मुकम्मल नागरिक जीवन बहाल करेंगे। डॉ सच्चिदानंद सिन्हा का उनके जन्मदिन पर सादर नमन !

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