साल भर लटकी रही फाइल, पर पैरवी पर दो दिन में लग गया टेलीफोन

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ओमप्रकाश अश्क
ओमप्रकाश अश्क

पत्रकारीय जीवन के उतार-चढ़ाव और विविधता भरे जीवन के बारे में वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क ने अपनी प्रस्तावित पुस्तक- मुन्ना मास्टर बने एडिटर- में बड़ी बेबाकी से जिक्र किया है। इसे हम धारावाहिक रूप में लगातार प्रकाशित कर रहे हैं।

वर्ष 1989 से 1999 के महज दस वर्षों में तीन सूबे और चार शहर मेरे अल्प-दीर्घ प्रवास के केंद्र रहे। इनमें सर्वाधिक छह साल कोलकाता में कटे थे तो दो साल रांची और पटना में बीते। तीन-चार महीने के लिए धनबाद भी ठिकाना रहा। पटना में सिर्फ दो साल का मेहमान रहा। अपनी आदत आरंभ से अखबार के लिए जान लड़ा कर जांगर ठेठाने की बनी, जो आज भी बरकरार है। नौकरी के लिए निर्धारित आठ घंटे को कभी मैंने पैमाना नहीं बनाया, बल्कि यह मानता रहा कि नींद छोड़ कर बाकी समय अखबार का है। दस-बारह घंटे तो सदेह दफ्तर में उपस्थिति और बाकी समय मानसिक तौर पर मौजूदगी। सुबह देर से उठना, उठते ही अखबार देखना। दूसरे अखबारों से अपने का मिलान करना, भूल-चूक तलाशना, इसके लिए दुखी होना, खबरें मिस होने पर संबंधित रिपोर्टर पर कोफ्त के अलावा खुद को दुखी कर लेना और फिर अगले दिन के अखबार के लिए स्टोरीज की प्लानिंग में जुट जाना। देर रात छपने के लिए अखबार तैयार कर घर लौटना और इस चौकसी के साथ नींद के आगोश में समा जाना कि कहीं से कोई खबर संबंधी जरूरी फोन न आ जाये। यह करते-करते जिंदगी की सबसे उत्पादक उम्र (40 साल) मैंने बिता दी। आज भी किसी अहंकार नहीं, बल्कि आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूं कि 12 से 16 घंटे मैं अखबार के दफ्तर में बिताने का माद्दा रखता हूं।

प्रभात खबर पटना में रहते दो घटनाओं का जिक्र करना मुनासिब लग रहा है। गर्मी के दिन थे। दफ्तर से रात एक-सवा बजे घर लौटा था। तब तनख्वाह ऐसी थी कि न बढ़िया घर और न ऐशोआराम की कल्पना की जा सकती थी। घर में एक लैंडलाइन फोन जरूर था, जिसे कोलकाता से ट्रांसफर करा कर पटना लाया था। उन दिनों लैंडलाइन फोन के लिए भी बड़ी जद्दोजहद करनी होती थी। कोलकाता में मान्यता प्राप्त पत्रकार के नाम पर मुझे एक फोन कनेक्शन मिला था। पटना आते समय मैंने उसे सरेंडर कर दिया और पटना में कनेक्शन ट्रांसफर कराने के लिए आवेदन दे दिया।

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और पैरवी पर खत्म हुआ टेलीफोन लाइन का इंतजार

साल बीत गया। 1998 के आरंभ में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर पटना आये। हरिवंश जी के उनसे आत्मीय रिश्ते के मद्दनजर प्रेस कांफ्रेंस का जिम्मा मुझे मिला था। सब कुछ ठीक से हो गया। आखिरी दिन चंद्रशेखर जी की पार्टी के सचिव एचएन शर्मा ने मुझसे घर का नंबर मांगा। मैंने उन्हें फोन न होने की कहानी सुना दी। उन्होंने कहा कि 24 घंटे में आपका फोन लग जायेगा। पहले तो मैंने यही समझा कि नेता ऐसे ही हवाहवाई बात करते हैं। लेकिन अगली सुबह शर्मा जी का फोन आया- अश्क जी कल हम दिल्ली नहीं जा सके, आज निकल रहे हैं। कल तक आपके घर फोन लग जायेगा।

अगले दिन सुबह साढ़े दस-ग्यारह बजे के बीच कोलकाता से टेलीफोन विभाग के जीएम का फोन आया, यह कहते हुए कि ओमपकाश जी, आपका अप्लीकेशन मिल नहीं रहा है। हम फैक्स कर रहे हैं, उसे भर कर भेज दीजिए। कुछ ही देर में फिर फोन आया कि अप्लीकेशन मिल गया, फैक्स मत भेजिए। शाम तक पता चला कि पटना टेलीफोन विभाग के कर्मचारी घर में फोन टांग गये हैं। अभी चालू नहीं हुआ है। रात दस बजे के आसपास कोलकाता के मेरे एक मित्र का पद्म सरावगी का फोन आया और उन्होंने जब यह पूछा कि फोन तो घर में लग गया होगा तो मैं आश्चर्यचकित हुआ कि फोन की कहानी इनको कैसे मालूम। फिर उन्होंने बताया कि पटना में जो जीएम हैं, वे उनके मित्र हैं, कल आपके साथ चाय पीना चाहते हैं। आपको न्योता देंगे। इसमें मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी। मैंने हामी भर दी।

अगले दिन किसी साथी के साथ हम उनके दफ्तर पहुंचे। चाय-पानी के बाद उन्होंने सरावगी जी से जान-पहचान के बारे में पूछा। फिर मुद्दे पर आये। दरअसल पटना में फोन ट्रांसफर के लिए मैंने जो पता डाला था, वह समृद्धि कांप्लेक्स का था, जहां पहले आफिस होता था। अब तो आफिस भी बदल गया था और फोन मेरे घर पर लगा था। उन्होंने एक प्लेन पेपर दिया और कहा कि इस पर अपने घर का एड्रेस डाल दें। मैंने लिख दिया। फिर हम विदा हुए। साल भर बाद मेरे घर में चेलीफोन आ गया।

हम बात कर रहे थे कि रात एक-सवा बजे अखबार छोड़ कर जब घर पहुंचा और फर्श पर चटाई डाल कर अभी लंबा ही हुआ था कि रात करीब पौने दो बजे लंबी टोन का रिंग बजा। तब एसटीडी काल के लिए ऐसे ही टोन बजते थे। हड़बड़ा कर फोन उठाया तो उधर से जहानाबाद के तत्कालीन संवाददाता रामनंदन सिन्हा जी की एक लाइन की सूटना थी कि सर, 10 गये। मैंने उन्हें कहा कि आप पता करें, मैं आफिस पहुंच रहा हूं। उन दिनों प्रभात खबर में किराये का महज एक टेंपो होता था। उसी से अखबार का डिस्पैच और नाइट शिफ्ट के साथियों को छोड़ने का काम होता था। चूंकि आफिस और मेरा घर आधे किलोमीटर की दूरी पर थे, इसलिए रात में दफ्तर के कुछ साथियों को तुरंत बुलाया। जब तक वे लोग आते, तब तक वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी जी का फोन आ गया। उन्होंने एक अति महत्वपूर्ण जानकारी दी। उन्होंने बताया कि नक्सलियों ने गला रेता है। यह काम एमससी के लोग ही उन दिनों करते थे।

मैं दफ्तर पहुंचा। पटना संस्करण में उस खबर को ले पाना संभव नहीं हुआ, इसलिए कि मशीन की हालत और समय साथ देने को तैयार नहीं थे। अलबत्ता रांची संस्करण के लिए वह खबर महत्वपूर्ण जरूर थी। इसलिए कि तब दक्षिण बिहार में प्रभात खबर की स्थिति नंबर वन की थी। पिछली नक्सली वारदात के रेफरेंस संबंधित बीट देखने वाले रजनीश उपाध्याय अपडेट कर रखते थे। एक लाइन की सूचना, बाकी काल्पनिक शब्दावली और भेलारी जी के संकेत के आधार पर मैंने जो खबर बनायी और शीर्षक डाला कि एमसीसी ने इतने लोगों का गला रेता। दूसरे अखबारों ने भी कुछ इसी तरह की तकनीक अपनायी, लेकिन कल्पना में ज्यादातर लोगों ने नक्सलियों द्वारा अंधाधंध फायरिंग कर मौत के घाट उतारने की बात लिखी। अगले दिन हमारी खबर सत्य के ज्यादा करीब थी और दूसरे नरसंहार बताने में कामयाब तो रहे, पर तथ्यात्मक रूप से हम सही थे।

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