हिन्दी ग्रेजुएट को हरिवंश जी ने बिजनेस अखबार का प्रभारी बना दिया

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पत्रकार ओमप्रकाश अश्क की प्रस्तावित पुस्तक- मुन्ना मास्टर बने एडिटर- की अगली कड़ी पढ़ें। कल आपने पढ़ा कि वह जनसत्ता छोड़ प्रभात खबर समूह में कैसे लौटे। आज उस प्रोजेक्ट कारोबार खबर के बारे में पढ़ें, जो अश्क का ब्रेन चाइल्ड था।

कई बार चीजें इस रूप में बदल जाती हैं कि आपकी कल्पनाओं में दूर-दूर तक उसका कोई स्थान नहीं होता। मेडिकल की पढ़ाई किया व्यक्ति संत बन जाता है तो इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाला बुद्ध का अनुनायी बन अलख जगाने के लिए सारी हुनर को किनारे कर देता है। अपने जीवन में ऐसे दो लोगों के बारे में जानता हूं। एक हैं बिहारवासी संभ्रांत परिवार के भाईश्री और दूसरे मिले भंते तिस्सावरे। एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी कर चुके भाईश्री कोलकाता के किसी सुदूर इलाके में संत जीवन जीते हुए अध्यात्म के अध्येता अब भी बने हुए हैं तो तिस्सावरे आटोमोबाइल इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़ बुद्ध के संदेशों के प्रचार में लगे हैं। मेरे साख भी कुछ ऐसा ही हुआ। हिन्दी से ग्रेजुएट को शेयर बाजार और आर्थिक मामलों की समझ विकसित करने का अवसर हरिवंश जी ने दिया।

जिस प्रस्तावित बिजनेस साप्ताहिक की परिकल्पना मैंने की थी, उसका नाम- कारोबार खबर था। 12 पेज का ब्राडशीट पर वह छपता था। मेरी दूरदृष्टि यह थी कि अभी इसका प्रकाशन साप्ताहिक होगा। इसी बहाने आर्थिक पत्रकारों की टीम तैयार होगी और आगे चल कर इसे दैनिक में बदल दिया जाएगा। तब हिन्दी में बिजनेस के अखबार नहीं थे। अंग्रेजी में दो उल्लेखनीय अखबार थे- इकोनामिक टाइम्स और बिजनेस स्टैंडर्ड। उसी तर्ज पर आठ पेज पिंक पेपर में और चार पेज ह्वाइट पेपर में छापने की योजना बनायी।

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अखबार की पहली डमी तैयार की और उसे एक्सपर्ट के पास हरिवंश जी ने भेजवाया। जो फीडबैक मिले, उससे हरिवंश जी इतने उत्साहित थे कि इसे उन्होंने ड्रीम प्रोजेक्ट कहना शुरू किया। इस आलेख के साथ आप उनकी हाथ से लिखी चिट्ठी देखें, जिसकी पहली लाइन ही मेरे उत्साह की सीमा तोड़ देती है। उन्होंने लिखा कि डमी देख कर हम सभी का उत्साह बढ़ा है। पहले ही प्रयास में तुम स सफल दिख रहे हो। फिर और ज्ञान की बातें हैं। चिट्ठी की बातें लिखना दोहराव होगा, क्योंकि उसकी फोटो आप इस लेख के साथ देख पायेंगे।

बहरहाल, प्रोजेक्ट रिपोर्ट के मुताबिक हर महीने सारे खर्च एक लाख रुपये आंके गये थे और दो लाख रुपये महीने कमाई का लक्ष्य तय किया गया। टीम भी पांच-छह लोगों की ही बनी। इनमें कौशल किशोर द्विवेदी (संप्रति प्रभात खबर के गया संस्करण के संपादक), सुशील कुमार सिंह (अभी बिजनेस हेड, प्रभात खबर, बंगाल), इंद्रजीत सिंह (संप्रति संपादकीय विभाग, दैनिक जागरण, कोलकाता), विजय मिश्र (गुवाहाटी में सेंटिनल में काम करते वक्त मेरे वरिष्ठ साथी), नवीन राय (अभी प्रभात खबर, कोलकाता), एकाउंट्स के लिए उषा मार्टिन के चेयरमैन के पीए का साला दक्षिण भारतीय दुबला-पतला युवक वेंकटेश और एक पिउन जेम्स थे। फिलवक्त इतने ही नाम याद रहे हैं। दो लड़किया भी थीं। इनमें एक का नाम शायद मधुमिता था। मधुमिता मेरे एक बंगाली रिपोर्टर मित्र की परिचित थी। विज्ञापन के लिए कोई अलग से आदमी नहीं था। कमीशन के आधार पर एसके पांडेय थे और एक और उनके साथ एक क्रिश्चियन लड़का था। मधुमिता का तत्कालीन उद्योग राज्यमंत्री विद्युत गांगुली से अच्छा संबंध था। वह उसे बेटी की तरह मानते थे। उसकी वजह से ही मैं गांगुली दा के संपर्क में आया। वह भी श्यामनगर की तरफ ही रहते थे।

हरिवंश जी के बारे में हमेशा कहता रहा हूं कि वह मीडिया मैनेजमेंट के मेरे गुरु रहे हैं। उन्होंने सलाह दी कि प्रवेशांक में इतनी रकम का विज्ञापन कर लो, जो तुम्हारा कार्पस फंड बन जाये। हर महीने का नियमित खर्च अपनी योजना के तहत जुटाओ। हम लोगों ने वैसा ही किया। यह हिन्दी पत्रकारिता का लैंडमार्क कहा जायेगा कि अपने रिपोर्टरों के सहयोग से डनलप, आईटीसी, हिंडाल्को, बर्जर पेंट और राज्य सरकार जैसे संस्थानों से तकरीबन 12 लाख रुपये के विज्ञापन हम लोगों ने प्रवेशांक में ही जुटा लिए। यह रकम मेरे एक साल के खर्च के लिए पर्याप्त थी।

राज्य सरकार का विज्ञापन लेने की भी एक कहानी है। कारोबार खबर साप्ताहिक था। उसे अभी आरएनआई नंबर भी नहीं मिला था। लांचिंग की तारीख और स्थान तय हो गये। होटल ग्रैंड ओबेराय में लांचिंग समारोह था। इसे यादगार बनाने के लिए मैंने लांचिंग समारोह के लिए जिन नामों का चयन किया था, उसमें तत्कालीन केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री देवी पाल, मुख्यमंत्री ज्योति बसु, उद्योग राज्य मंत्री विद्युत गांगुली और कई उद्योपतियों को न्योता भेज उपस्थिति का आग्रह किया।

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इसी क्रम में मैं विद्युत गांगुली से मिलने तब के सचिवालय राइटर्स बिल्डंग गया। उनसे बांग्ला में बात करनी चाही। बांग्ला मुझे पूरी तरह आती नहीं थी। उनसे इतना भर कहा- दादा, आमी चाइछिलम…। उसके बाद क्या बोलना है, बोल नहीं पाया। इस पर तपाक से उन्होंने कहा- हम बोला था कि तुम हमसे हिन्दी में बात करना। हिन्दी में बोलो क्या कहना चाहते हो। मैंने बताया कि कार्यक्रम में ज्योति बाबू को बुलाना चाहते हैं। उन्होंने पूछा- चिट्छी किया है। मैंने उनकी ओर बढ़ा दी। वह बोले, अभी इनसे बात करो और एक साल के खर्च के लिए विज्ञापन की बात कर लो। बातचीत में पता चला, वह तो खादिम (फूटवीयर) के मालिक थे।

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गांगुली दा चिट्ठी लेकर ज्योति बाबू के पास चले गये। लौट कर बताया कि वह उस दिन नहीं रहेंगे, दिल्ली जा रहे हैं, कोई मीटिंग है। उन्होंने मुझे जाने को कहा है। फिर पूछा कि खादिम के मालिक से बात कर ली। मैंने हां कहा। इसके साथ ही मैंने एक और समस्या रख दी। मैंने कहा कि ग्रैंड होटल में कार्यक्रम है, 60 हजार रुपये खर्च का बंदोबस्त नहीं हो पा रहा है। उन्होंने किसी से बांग्ला में फोल पर बात की। फोन रख कर कहा- सेंड समवन टू डब्लूबीआईडीसी एंड कलेक्ट ए बिग साइज ऐड (किसी को वेस्ट बंगाल इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कार्पोरेशन भेज कर एक बड़े साइज का ऐड मंगा लो)।

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अमूमन ऐसा होता है कि आदमी अपनी औकात से अधिक की न तो मांग करता है और न उम्मीद करता है। लौट कर मैंने मधुमिता को ही वहां भेजा। मेरा अनुमान था कि क्वार्टर पेज का ऐड होगा। क्योंकि इससे अधिक की उम्मीद ही मैं नहीं कर सकता था। जब वहां से रिलीज आर्डर के साथ आर्टवर्क लेकर मधुमिता लौटी तो वह पूरे पेज यानी हमारी विज्ञापन दर के हिसाब से 60000 रुपये का ऐड था। किसी को अवांछित या असमय कामयाबी मिलने पर जो खुशी होती है, वैसी ही खुशी मुझे हुई। हमारे जेनरल मैनेजर पीके सेन साहब का कहना था कि अभी तो आरएनआई नंबर तक नहीं है, इसका पेमेंट फंस जायेगा। इसे न छापना ही बेहतर होगा। मैंने कहा कि दादा, जिसने विज्ञापन दिलाया है, उस पर मुझे पूरा भरोसा है। आखिरकार वि5पन छपा और 15 दिनों के अंदर उसका भुगतान भी हो गया।         (क्रमशः)

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