इमरजेंसी में बड़े नेताओं, साहित्यकारों, पत्रकारों को यातनाएं भी दी गयीं

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आपातकाल-पीड़ित लोगबाग हर साल इमरजेंसी की वर्षगांठ मनाते हैं। मनाना जरूरी भी है। क्योंकि 25 जून  1975 को इमरजेंसी लगाकर पूरे देश को एक बड़े जेलखाना में बदल दिया गया था। 23 मार्च 1977 को ही इसे समाप्त किया जा सका था, जब लोकसभा के आम चुनाव के बाद मोरारजी देसाई की सरकार बनी।
आपातकाल-पीड़ित लोगबाग हर साल इमरजेंसी की वर्षगांठ मनाते हैं। मनाना जरूरी भी है। क्योंकि 25 जून  1975 को इमरजेंसी लगाकर पूरे देश को एक बड़े जेलखाना में बदल दिया गया था। 23 मार्च 1977 को ही इसे समाप्त किया जा सका था, जब लोकसभा के आम चुनाव के बाद मोरारजी देसाई की सरकार बनी।

इमरजेंसी के दौरान बड़े नेताओं, साहित्यकारों, पत्रकारों को जेलों में ठूंस दिया गया। उन्हें कई तरह की शारीरिक और मानसिक यातनाएं दी गयीं। यह उनकी डायरियों में दर्ज है। इमरजेंसी में जेलों में बंद नेताओं की डायरी के हवाले से इसे विस्तार से बताया है राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश ने।

  • हरिवंश
राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश
राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश

लालकृष्ण आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेता इमरजेंसी के दौरान 19 माह जेल में रहे। उस दौर का उनका अनुभव ‘ए प्रिजनर्स स्क्रैपबुक’ नाम से प्रकाशित डायरी में दर्ज है। हिंदी में यह ‘नजरबंद लोकतंत्र’ नाम से प्रकाशित है। इस डायरी में लोकतंत्र की रक्षा में निकाले गए पांच परचे भी हैं, जिनका उपयोग तानाशाही विरोधी कार्यकर्ताओं ने आपातकाल के दौरान भूमिगत साहित्य के रूप में किया था। इसका आमुख तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने लिखा था।  लालकृष्ण आडवाणी ने डायरी में लिखा है, ‘26 जून, 1975 का दिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का अंतिम दिन हो सकता है। आशा करता हूं कि मेरा यह भय गलत सिद्ध हो।’

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8 अगस्त को उन्होंने लिखा- 

‘सैद्धांतिक रूप से भारतीय संविधान का स्वरूप अभी गणतंत्रीय है। हालांकि सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए कानून को इतना बिगाड़ा जा रहा है, ताकि इंग्लैंड की महारानी की तरह इंदिरा गांधी को भी महारानी बनाया जाए। वैधानिक रूप से अपनी किसी भी गलती के लिए उनपर कोई भी कानूनी कार्रवाई न की जा सके। इंदिरा कोई गलती नहीं कर सकतीं।’

उन्होंने डायरी में लिखा- ‘आज की घटना आशीष नंदी के उस आलेख से मेल खाती है, जिसे उन्होंने ‘क्वेस्ट’ (नवंबर-दिसंबर 1975) के लिए पूर्व में लिखा था। मुझे आश्चर्य है कि सेंसर ने उस आलेख को कैसे नहीं देखा! कदाचित् नहीं देखा। यदि वे उसे देख लेते तो पत्रिका पर प्रतिबंध लगा दिया गया होता और प्रकाशक तथा लेखक को जेल में डाल दिया जाता। वह आलेख तो सचमुच में डायनामाइट की तरह है। यह इंदिरा गांधी को कड़े लहजे में चेतावनी देता है कि आप जो कर रही हैं, यदि उसे जारी रखेंगी तो आपकी हत्या कर दी जाएगी। ‘क्वेस्ट’ का यह अंक उन पुस्तकों और पत्रिकाओं में से एक था, जिन्हें जेल के बाहर के हमारे मित्र हमें पढ़ने के लिए भेजा करते थे। सीधा शीर्षक था ‘इनविटेशन टू ए बीहेडिंग : ए साइकोलॉजिस्ट्स गाइड टु असेसिनेशंस इन द थर्ड वर्ल्ड’ (एक हत्यारे का अपने शिकार से बड़ा गहरा और टिकाऊ नाता होता है)। यह ठीक है कि उत्पीड़क तानाशाह होते हैं, जो देश के सभी लोगों को अपना संभाव्य हत्यारा बना लेते हैं और इसके विपरीत कुछ नेता लोगों के दिमागों में अपने व्यवहार से कुछ ऐसा करते हैं कि उनके संभाव्य हत्यारों की संख्या अत्यंत नगण्य हो जाती है।’

31 दिसंबर को वह लिखते हैं- 

‘साल का अंतिम दिन विशेष रूप से हमारी जेल के भीतर प्रसन्नता की लहर लेकर आया है। मधु दंडवते का कारावास समाप्त कर दिया गया है। उन्हें जोशीली और स्नेहपूर्ण विदाई दी गई।’ बंगलौर जेल में रहने के दौरान आडवाणीजी, देश भर की 40 से भी अधिक जेलों के राजनीतिक बंदियों से नियमित संपर्क में थे। अकसर उनसे प्राप्त पत्र कोड भाषा में होते थे। ये सारी बातें डायरी में दर्ज हैं।

जब इमरजेंसी लगायी गई, तो 25-26 जून की घटनाओं का बेहतरीन वर्णन बिशन एन. टंडन की ‘पी.एम.ओ. (प्राइम मिनिटर्स ऑफिस) डायरी’ में है। आपातकाल हटने के पच्चीस वर्षों के बाद (2006 में) यह दो खंडों में छपी। प्रधानमंत्री कार्यालय में घटित होनेवाली 1975 की दैनिक घटनाओं के संबंध में टंडनजी की डायरी से उस समय की राजनीतिक संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है- ‘जब मैं कार्यालय से निकल रहा था, उस समय प्रधानमंत्री के मुख्य सूचना अधिकारी शारदा प्रसाद ने फोन करके मुझे बताया ‘तुमने अवश्य सुना होगा। सबकुछ खत्म हो गया।’ उनकी आवाज में काफी मायूसी लग रही थी। कार्यालय पहुंचकर सीधे मैं शारदा के कमरे में गया। वह जो कुछ जानते थे, उस संबंध में उन्होंने विस्तारपूर्वक मुझे बताया। विगत रात 10.00 बजे देवकांत बरुआ और सिद्धार्थ शंकर रे वहां पर मौजूद थे, जब प्रो. डी.पी. धर और शारदा प्रसाद वहां पहुंचे तो प्रधानमंत्री ने उनसे कहा, ‘मैंने आपातकाल घोषित करने का निर्णय ले लिया है। इसपर राष्ट्रपति सहमत हो गए हैं। कल इसकी सूचना मंत्रिमंडल को मैं दूंगी।’ यह कहते हुए उन्होंने आपातकाल घोषणा संबंधी प्रारूप प्रो. डी.पी. धर के हाथ में थमा दिया। वे और शारदा चकित रह गए। उन्हें सिर्फ यह सूचित करने तथा बाद के मिथ्या प्रचार के संबंध में उनकी सलाह के लिए वहां बुलाया गया था। प्रधानमंत्री ने उन्हें राष्ट्र को संबोधित करने के लिए एक प्रारूप तैयार करने को कहा। रात के 1.00 बजे तक वे प्रधानमंत्री निवास पर थे। सुबह 6.00 बजे कैबिनेट की बैठक होने वाली थी। कैबिनेट की बैठक में एक भी मंत्री ने आपातकाल का विरोध नहीं किया। यह एक अत्यंत गंभीर बात है।

अनुच्छेद 77 के अंतर्गत उल्लिखित नियमों के अनुसार, राष्ट्रपति द्वारा आपातकाल की उद्घोषणा जारी करने से पहले कैबिनेट की बैठक अनिवार्य है, लेकिन नियमों के अंतर्गत यह भी प्रावधान है कि यदि प्रधानमंत्री ऐसा करना अनिवार्य मानते हों, तो इस संबंध में वे कैबिनेट से सलाह लिये बिना निर्णय ले सकते हैं। किंतु प्रश्न यहां पर यह है कि क्या आपातकाल के संबंध में चर्चा करने के लिए कैबिनेट की बैठक नहीं बुलाई जा सकती थी? प्रधानमंत्री ने अकेले यह निर्णय लिया। ऐसा क्यों हुआ? दूसरा प्रश्न यह है कि राष्ट्रपति ने इन परिस्थितियों में प्रधानमंत्री की ‘सलाह’ को क्यों माना? वे कोई गैर-संवैधानिक काम नहीं करते, यदि वे प्रधानमंत्री से कहते कि वे इस विषय में संपूर्ण कैबिनेट की सलाह लेना चाहते हैं और उनका मत जानना चाहते हैं। मेरी जानकारी में यह पहला अवसर है, जब इतना महत्त्वपूर्ण निर्णय राष्ट्रपति ने सिर्फ प्रधानमंत्री की सलाह पर लिया हो।’

मशहूर अभिनेत्री स्नेहलता की डायरी

इसी क्रम में दक्षिण भारतीय फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री स्नेहलता की डायरी का जिक्र जरूरी है। स्नेहलता को ‘डायनामाईट केस’ में शामिल होने के आरोप में 02 मई, 1976 को गिरफ्तार किया गया था। वह सोशलिस्ट पार्टी के नेता जॉर्ज फर्नांडिस की सहयोगी थीं। फर्नांडिसजी आपातकाल के दौरान भूमिगत हो गए थे। जॉर्ज फ़र्नांडिस के संबंध में सूचना न देने के कारण स्नेहलता को गिरफ्तार किया गया। उनसे बंगलौर जेल में आठ माह तक पूछताछ की गई। इसी जेल में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मधु दंडवते बंदी थे। जेल में स्नेहलता के साथ बेहद अमानवीय दुर्व्यवहार किए गए। इसका वर्णन स्नेहलता की जेल डायरी में दर्ज है। मधु दंडवते ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि उन्हें रात के सन्नाटे में स्नेहलता की चीखें सुनाई देतीं थीं।

जेल में लिखी हुई एक छोटी सी डायरी में स्नेहलता ने लिखा- ‘जैसे ही एक महिला अंदर आती है, उसे बाकी सभी के सामने नग्न कर लिया जाता है। जब किसी व्यक्ति को सजा सुनाई जाती है, तो उसे पर्याप्त सजा दी जाती है। क्या मानव शरीर को भी अपमानित किया जाना चाहिए? इन विकृत तरीकों के लिए कौन जिम्मेदार है? इंसान के जीवन का क्या मकसद है? क्या हमारा मकसद जीवन मूल्यों को और बेहतर बनाना नहीं है? इंसान का उद्देश्य चाहे कुछ भी हो, उसे मानवता को आगे बढ़ाने के प्रयास करने चाहिए।’

09 जून, 1976 को जेल की यातनाओं के बारे में स्नेहलता अपनी डायरी में लिखती हैं- ‘महिलाओं को पहले बुरी तरह से पीटा जाता था, लेकिन अब इसमें कुछ कमी आई। कम से कम मैंने उनके अंदर के भय को तो दूर कर ही दिया है। मैंने तब तक भूख हड़ताल की, जब तक कैदियों को मिलने वाले खाने की गुणवता में सुधार नहीं हुआ।’ वह इसी डायरी में लिखती हैं- ‘इन सभी अनावश्यक उत्पीड़न से आप क्या हासिल करना चाहते हैं? यह गहरी शर्म का सवाल है और कुछ नहीं.’

01 अगस्त, 1976 को वह लिखती हैं- ‘पट्टाभि मुझे देखने नहीं आये। मैंने वार्डरों को ऊपर-नीचे भेजा, लेकिन वह यह कहकर वापस आ गए कि आज रविवार है- तुम्हारा पति कल, सोमवार आएगा।’ 2 अगस्त, 1976 को उन्होंने अपनी डायरी में लिखा- ‘मैंने इंतजार किया, लेकिन वह नहीं आये। मैंने कल रात से कुछ नहीं खाया है। फिर से मैंने संदेश भेजा है। अब वे कहते हैं कि वह कल मंगलवार को आएगा। अब मैंने खाने से इंकार कर दिया है, लेकिन मैं अब किसी डॉक्टर को बुलाने और अपने परिजनों मिलने की बिनती नहीं करूंगी। वे मुझे मार सकते हैं, मैं इसके लिए तैयार हूं।  उन्हें अपना सबसे बुरा करने दें।’

वह अस्थमा की मरीज थीं, बावजूद इसके उन्हें घोर यातनाएं दी गईं। जेल में उन्हें बेहतर उपचार भी नहीं मिला। ये बातें स्वयं स्नेहलता ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के समक्ष रखीं। 15 जनवरी, 1977 को वह पैरोल पर रिहा हुईं। रिहाई के महज 5 दिन बाद ही 20 जनवरी को हृदयाघात की वजह से उनकी मृत्यु हो गई।

स्नहेलता की मृत्यु के बाद मानवाधिकार आयोग ने उनकी डायरी के कुछ पन्ने जारी किए। इसमें उन्होंने अपने ऊपर हुए अत्याचार और अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का वर्णन किया था- ‘मेरा शरीर अपमान सह सकता है लेकिन मेरी आत्मा, मानव आत्मा को लंबे समय तक दबाया नहीं जा सकता।’

डायरियों की बात चल रही है तो लॉरेंस फर्नांडिस की आपबीती भी एक अहम दस्तावेज है। आपातकाल के दौरान कई राजनीतिक बंदी शारीरिक प्रताड़ना के शिकार हुए। जॉर्ज फर्नांडिस के भाई लॉरेंस फर्नांडिस का मामला हृदय-विदारक है। लॉरेंस को उनके भाई जॉर्ज फ़र्नांडिस के बारे में पूछताछ करने के लिए बंगलौर स्थित उनके घर से उठाया गया। उनकी कहानी उनके ही शब्दों में इस प्रकार है- ‘एक घंटे तक पुलिस ने मेरा बयान दर्ज किया और फिर मुझे जासूसों के एक दल के पास ले गए। वहां अचानक किसी ने मुझे थप्पड़ (कई मिनट तक मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाया रहा) जड़ दिया। जब मुझे होश आया, तब तक वे मुझे निर्वस्त्र कर चुके थे। वहां करीब 10 लोग (पुलिसवाले) थे और उन्होंने मुझे पीटना शुरू कर दिया। चार लाठियां टूट गईं।  वे मेरे शरीर के हर अंग पर वार कर रहे थे। मैं फर्श पर पड़ा दर्द से कराह रहा था। मैं रेंगने लगा और फिर से रहम की भीख मांगी।  इस बीच वे मुझे किसी फुटबॉल की तरह लात मारते रहे। फिर न जाने कहां से उन्होंने लकड़ी की एक छड़ी निकाली। यह भी टूट गई और मैं दर्द से चीख उठा। इसके बाद आखिरी हमला किया गया। मैं फर्श पर पेट के बल गिरा पड़ा था और उन सबने मुझे बरगद के पेड़ की जड़ से पीटना शुरू कर दिया। मैं अर्ध-मूर्चि्छत और पूर्ण मूर्चि्छत अवस्था के बीच झूलने लगा। सुबह के करीब 3 बजे प्यास से मेरी नींद खुल गई और मैंने पानी मांगा। मैं प्यास से मरा जा रहा था और मैंने जैसे ही पानी के लिए भीख मांगी, एक अफसर ने पुलिस के जवानों से कहा कि वे मेरे मुंह पर पेशाब करें। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। मेरा दम जब लगभग घुटनेवाला होता, तब वे चम्मच में पानी भरकर मेरे होंठ भिगो देते थे।’

लॉरेंस को बाद के दिनों में बंगलौर जेल में लाया गया। वह लिखते हैं- ‘फिर वे मुझे सीधा सेंट्रल जेल लेकर आ गए और मेरी सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया। जीप को उस कोठरी तक ले आया गया। मेरी किस्मत खराब थी कि वहां का वार्डन एक मोटा-ताजा, काला और छह फीट लंबा आदमी था। उसे देखते ही मैं गिर पड़ा। उन्होंने मेरे कपड़े उतार दिए, मेरी जेब से बीड़ी निकाल ली और उस मनहूस कोठरी में मुझे डाल दिया। वह कोठरी अंधेरी और बदबूदार थी और बिजली भी चली गई। फिर मैंने सुना कि कोई बार-बार मुझे बुला रहा है। चारों तरफ से आवाज आ रही थी। मुझे लगा कि मुझे भ्रम हो रहा है, क्योंकि उनमें से एक आवाज जानी-पहचानी थी। यह मधु (दंडवते) की आवाज थी। मैंने अपने आपको घसीटता हुआ कोठरी के गेट तक लाया और सलाखों को पकड़ लिया।

मधु ने कहा, ‘लॉरेंस, तुम हो क्या? जवाब दो। तुम्हें टॉर्चर किया गया?’ मैंने धीमे स्वर में कहा हां, और बाहर हंगामा मच गया। बंदियों के बीच एक अफवाह फैल गई थी कि बेलगाम जेल से भागे हुए एक कैदी को फिर से पकड़कर यहां लाया गया है। जेलों के इंस्पेक्टर जनरल, जेल सुपरिंटेंडेंट और डॉक्टर जल्दी ही वहां मौजूद थे। वे जोर-जोर से चीख रहे थे और मुझे लगा कि वे मुझे पागल बना देना चाहते हैं। हालांकि सांस लेने में तकलीफ के कारण उन्होंने मुझे बाहर सोने की इजाजत दे दी। फिर दंडवते और मीसा के अन्य बंदियों द्वारा जेल में भूख हड़ताल कर दी गई। उनकी मांग थी कि मुझे उस भयानक कोठरी से निकालकर किसी बेहतर जगह पर रखा जाए।’

मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर ने इमरजेंसी की कहानी को ‘इमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी’ नामक किताब में लिखा है। वह लिखते हैं- ‘विनोबा ने पवनार में आचार्यों (विद्वानों) की एक बैठक बुलाई। उन्होंने उनसे कहा कि वे देश की मौजूदा स्थिति का विश्लेषण निष्पक्षता से करें और सुख और शांति के लिए एक अनुशासन को विकसित करें। यह प्रशंसनीय है कि कुलपतियों, न्यायविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और लेखकों समेत अलग-अलग समूहों से आए सदस्यों के बीच आम राय थी। तीन दिनों की चर्चा के बाद 1,000 शब्दों का जो वक्तव्य जारी हुआ, वह स्पष्ट और असंदिग्ध था तथा उसने बीच का रास्ता अपनाया। इसने पिछली घटनाओं के लिए दोषारोपण नहीं किया। एक तरफ, इसने इमरजेंसी लागू किए जाने के बाद से उद्योग, अर्थव्यवस्था और शिक्षा के क्षेत्रों में हुई सकारात्मक घटनाओं की सराहना की। वहीं दूसरी तरफ, इसने कहा कि अहिंसा और सर्व धर्म समभाव में विश्वास रखनेवाले सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की बड़ी संख्या में अनिश्चितकाल के लिए की गई गिरफ्तारी देश के हित में नहीं है। इस वक्तव्य से श्रीमती गांधी इतना चिढ़ गईं कि उन्होंने भावे के दूत बनकर दिल्ली आए श्रीमन नारायण को हफ्ते भर इंतजार कराने के बाद भी मिलने का समय नहीं दिया। भावे ने श्रीमती गांधी का विरोध नहीं किया। इसकी बजाय, उन्होंने आचार्यों और बुद्धिजीवियों की एक और भी बड़ी बैठक को रद्द कर दिया, जिसे मौजूदा गतिरोध का जल्द समाधान निकालने के लिए बुलाया था।’

नैयरजी आगे लिखते हैं- ‘इमरजेंसी से के. कामराज को बहुत बड़ी ठेस पहुंची थी। वे अकसर कहते थे कि वे एक तानाशाह बनने की राह पर जा रही हैं, लेकिन कभी सोचा नहीं था कि सचमुच बन जाएंगी। अपनी मौत से एक महीने पहले जैसा कि उन्होंने मुझसे कहा था, उनका सबसे बड़ा डर यह था कि अगर आर्थिक और राजनीतिक एकता में देरी हुई तो भारत टूट जाएगा और उत्तर तथा दक्षिण अलग-अलग हो जाएंगे। इमरजेंसी ने इस समस्या पर बस परदा डाला, इसका समाधान नहीं किया। वास्तव में, कामराज ने अपनी मौत से पहले कुछ करीबी मित्रों से कहा था कि इमरजेंसी में उनकी कोई भूमिका नहीं थी, न ही जे.पी. और श्रीमती गांधी के बीच वे मध्यस्थ थे, क्योंकि वह किसी पर भरोसा नहीं करती थीं। एक बार जे.पी. से उन्होंने कहा था कि वे श्रीमती गांधी पर जरा भी विश्वास नहीं करते।

अहमदाबाद में 12 अक्तूबर को उसका एक सम्मेलन हुआ, जिसे बॉम्बे के पूर्व चीफ जस्टिस एम.सी. छागला, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस जेसी शाह, तारकुंडे, मिनू मसानी तथा कुछ अन्य वकीलों ने संबोधित किया। सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए, छागला ने कहा, ‘आज जेल में बंद ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं है कि वे वहां क्यों हैं और वे अपने बचाव नहीं कर सकते क्योंकि जहां कोई आरोप नहीं, वहां बचाव भी नहीं हो सकता है। वे किसी और अधिकरण के पास भी नहीं जा सकते, क्योंकि सब बंद पड़े हैं।’

उस दौर में मराठी ‘तरुण भारत’ में छपा ‘चांगले राज्य चांगल्यांचे राज्य’ भी खूब चरचे में रहा था। इमरजेंसी के समय प्री- पब्लिकेशन सेंसरशीप लागू था। खबरों के प्रकाशन के पूर्व जांच अधिकारी से अप्रूवल लेना होता था। इसलिये इमरजेंसी के समय सरकार या सत्ता के खिलाफ कुछ भी नहीं छपा। पत्रकारीय कौशल का उपयोग करते हुए, छद्म नाम से लिखा कुछ छप भी जाता था। जांच अधिकारी को झांसा देते हुए नागपुर से प्रकाशित ‘तरुण भारत’ में मोहन गोविंद वैद्य का लेख ‘चांगले राज्य चांगल्यांचे राज्य’ (A good state and state of good people) छपा। इस लेख में वैद्यजी ने पौराणिक आख्यानों का प्रयोग करते हुए तत्कालीन शासन पर टिप्पणी की। उन्होंने लिखा कि लंका के लोगों के रावण का शासन अच्छा था, लेकिन रावण एक अच्छा शासक नहीं था। इसलिए जो ये मानते हैं कि इमरजेंसी में ट्रेनें टाइम से चलने लगीं, भ्रष्टाचार पर लगाम लगा। इस सब के लिये आपातकाल को अच्छा नहीं माना जा सकता। हममें से कोई रावणराज्य लाने की बात नहीं करता है।

इस क्रम में एक महत्वपूर्ण नाम आता है मराठी लेखिका दुर्गा नारायण भागवत का। उन्होंने आपातकाल का प्रबल विरोध किया। इमरजेंसी लगने के बाद कराड में 51वां मराठी साहित्य सम्मेलन आयोजित हुआ। इस सम्मेलन में तत्कालीन उप प्रधानमंत्री यशवंतराव चव्हाण भी शामिल हुए। दुर्गा भागवत अध्यक्ष चुनी गईं। उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में आपातकाल का प्रबल विरोध किया। उन्होंने लेखकों से सत्य और न्याय के पक्ष में कलम चलाने का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि साहित्यिक मंचों पर नेताओं को नहीं आना चाहिए। यशवंतराव चव्हाण स्टेज पर नहीं गये। श्रोताओं के बीच बैठे रहे। इमरजेंसी के मुखर विरोध के कारण एशियाटिक सोसाइटी, मुंबई के पुस्तकालय में पढ़ते हुए उन्हें गिरफ्तार किया गया। वह आर्थर रोड जेल में बंदी बनायी गईं। पर, उन्होंने झुकना स्वीकार नहीं किया। जेल में रहने के दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का अनुवाद किया।

इमरजेंसी हटने के बाद हुए चुनाव में दुर्गाबाई ने कांग्रेस का खुला विरोध किया। उन्होंने पद्मश्री तथा ज्ञानपीठ जैसे साहित्य के प्रतिष्ठित सम्मानों को भी ठुकरा दिया।

इस दौरान पश्चिम बंगाल में भी इमरजेंसी का विरोध करनेवालों को सजा मिलती रही। 1975 में इमरजेंसी लगने के बाद, आनंद बाजार पत्रिका के संपादक, गौर किशोर घोष ने अपने 13 वर्षीय बेटे को एक प्रतीकात्मक पत्र लिखा। इसमें उन्होंने लिखने की स्वतंत्रता खत्म होने पर शोक जाहिर किया। कोलकाता से प्रकाशित, एक बंगाली मासिक में यह पत्र छपा। बाद में उनकी गिरफ्तारी का कारण भी बना। इस पत्र का खूब प्रसार हुआ।

इमरजेंसी का विरोध मलयालम भाषा भाषियों ने भी खूब किया। ‘1975 Adiyantharavasthayude Ormappusthakam’ शीर्षक से एक किताब है। इस किताब में कई समाचार पत्रों के संपादकीय, संस्मरणों, साक्षात्कारों सहित एम पी नारायण पिल्लई, सी वी श्रीरामन आदि जैसे लेखकों की रचनाएं प्रकाशित हुई हैं।

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