कोलकाता में कामयाबी की इबारत लिखी प्रभात खबर ने

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प्रभात खबर बिकने को तैयाार था। खरीदारों का हुजूम भी उमड़ा था। आखिरकार सौदा दैनिक जागरण की कंपनी के साथ तय हुआ, पर बिकने से प्रभात खबर बच गया। बता रहे हैं ओमप्रकाश अश्क
प्रभात खबर बिकने को तैयाार था। खरीदारों का हुजूम भी उमड़ा था। आखिरकार सौदा दैनिक जागरण की कंपनी के साथ तय हुआ, पर बिकने से प्रभात खबर बच गया। बता रहे हैं ओमप्रकाश अश्क
वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क की प्रस्तावित पुस्तक का अंश आप धारावाहिक रूप में पढ़ रहे हैं। कोलकाता में प्रभात खबर की शुरुआत अश्क ने ही की थी। कैसी रही प्रभात खबर की तैयारी और लांचिंग, इस बार इसी पर फोकस है यह अंश 

शायद वह भी 19 जनवरी थी सन 2000 की। सुबह मेरे पांव कोलकाता की सरजमीं पर तीन साल बाद पड़े थे। जाने के पहले अपने कुछ पुराने साथियों से बातचीत हो गयी थी, इसलिए मैं ट्रेन से उतर कर सीधे दमदम कैंटोनमेंट पहुंचा डा. मान्धाता सिंह के घर, जो जनसत्ता के दिनों के मेरे साथी थे। सामान वहीं रखा। खाना खाया और दस बजे निकल गया। मैं उसी दफ्तर पहुंचा, जिसे प्रभात खबर के अनुषंगी साप्ताहिक कारोबार खबर के लिए 1995 में बनवाया गया था और मई 1997 तक मेरा वहीं बैठना होता था।

दफ्तर में कारोबार खबर के पुराने साथियों का जमावड़ा लगा। उनमें सुशील कुमार सिंह, कौशल किशोर त्रिवेदी प्रमुख थे। कहां ठिकाना बनाया जाये, इस पर विमर्श हुआ और कौशल ने बताया कि उन्होंने अपने ही घर के पास मेरे ठहरने का इंतजाम किया है। शाम को मैं उनके साथ गया। कौशल का घर जहां था, उसी से सटे एक चाचा रहते थे, जिन्हें कौशल के जरिये ही हम जानते हैं। चाचा मुसलिम थे, लेकिन उनकी रसोई अपने ही घर में अलग थी। उनका खाना बनाने वाला एक नेपाली युवक था। चाचा के बारे में जानने वाली बात यह है कि वह पलासी एस्टेट के कभी मैनेजर रहे थे, इसलिए एस्टेट के विखंडित होने पर कोलकाता में काफी प्रापर्टी उनके पास थी। वे जिस घर में रहते थे, वह एक कोठी थी। उसी कोठी में एक क्यूबिकल में मेरा बिस्तर लग गया। खाना मैंने कौशल के यहां खाया और क्यूबिकल में सो गया। अल्लसुबह साफ-सफाई के लिए कोई महिला आई तो खटरपटर से नींद टूट गयी। चाचा ने भांप लिया कि मैं ठीक से सो नहीं पाया। उन्होंने कौशल से कहा कि कारपेंटर बुलवायें और इनके सोने के लिए क्यूबिकल की काठ की दीवारें ऊंची छत से सटा कर बनवा दें। उनकी चिंता यह थी कि अखबार वाले देर रात तक जगते हैं और सुबह देर से उठते हैं। क्यूबिकल की वजह से परेशानी होगी मुझे।

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बहरहाल अगले ही दिन मुझे दमदम कैंटोनमेंट में मान्धाता जी ने एक घर दिला दिया। पहली बार जब कोलकाता छोड़ रहा था तो एक सिंगल बेड साइज का गद्दा मान्धाता जी को दे आया था। उन्होंने वह गद्दा मेरे घर भेजवा दिया। खाना बनाने के लिए एक महिला मिली, जिसकी खासियत यह थी कि एक ही घर में वह 30 साल से काम कर रही थी। यानी भरोसेमंद थी। सुबह ही वह आती और दो समय का खाना बना कर चली जाती। रात में मैं आता तो सिर्फ चावल बनाता। सब्जी और दाल दिन की ही बची रहती, इसलिए कि वह दोनों समय का बना देती थी और दो कटोरों में रख कर चली जाती।

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19 जनवरी को मैं कोलकाता गया था और प्रभात खबर का प्रकाशन 31 अक्तूबर को हुआ। यानी नौ-दस महीने सिर्फ इसकी तैयारी में मैंने जाया किये। दफ्तर का रूटीन बिल्कुल स्कूल की तरह था। दस बजे सुबह निकलो और शाम पांच बजे घर आ जाओ। दफ्तर में दिन भर टीम की तैयारी और अकबार की योजना पर बात होती। पुराने  साथियों में गोपाल साव, कौशल किशोर, सुशील तो नियमित मिलते, बाकी भी कभी कभार आ जाते। मेरी योजना थी कि डेस्क और रिपोर्टिंग में 10-15 साथी ही रहें। इसलिए जहां नया दफ्तर मिला, वहां सिर्फ विजिटर्स मिला कर 25 लोगों के बैठने की ही व्यवस्था थी।

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अब बारी आयी दफ्तर तलाशने की। केके गोयनका जी और मैं एक वास्तुविद श्याम लाल जालान (अब नहीं रहे) को लेकर दिनभर साल्टलेक में दफ्तर की तलाश करते रहे। वास्तुविद ने आधा दर्जन मकान किन्हीं न किन्हीं कमियों के कारण रिजेक्ट कर दिया। दिन भर की तलाश के बाद भी कोई कामयाबी नहीं मिली। अकिरकार हमने उस जगह को पसंद किया, जिसे गोयनका जी नापसंद कर चुके थे। इस बार उनकी भी सहमति मिल गयी और 3, डेकर्स लेन, कोलकाता में प्रभात खबर के दफ्तर की बात फाइनल हो गयी। इंटेरियर का ठेका उसी ठेकेदार को दिया गया, जिसने रांची में प्रभात खबर के सिटी आफिस का काम किया था। मई से इंटेरियर का काम शुरू हुआ और अखबार निकलने के दो-चार दिन पहले तक चलता रहा।

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इस बीच टीम बन गयी थी। सर्कुलेशन में देवाशीष ठाकुर और विज्ञापन में सुशील कुमार सिंह शुरू से मेरे साथ रहे। संपादकीय में नियुक्तियां हो गयीं। अखबार की संभावनाओं पर मैंने एक रिपोर्ट तैयार की- स्कोप। इसमें तमाम तरह के आंकड़ों को लेकर यह संभावना तलाशी गयी थी कि प्रभात खबर के लिए स्कोप क्या है।

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