जब गलतियों के लिए हरिवंश जी की डांट सुननी पड़ी

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एक अंतराल के बाद पेश है वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क की प्रस्तावित पुस्तक- मुन्ना मास्टर बने एडिटर- की अगली कड़ी

अखबार का आदमी आमतौर पर गलतियों से बचता है, लेकिन गलतियां होनी होती हैं तो हो ही जाती हैं। अपने पत्रकारीय जीवन में भी कई बार ऐसी घटनाओं से मेरी मुठभेड हुई है। जिन दिनों मैं उपसंपादक या संवाददाता बतौर अखबार का कर्मचारी था तो अक्सर सोचता कि संपादक का पद सबसे बढ़िया है। कोई काम नहीं करना पड़ता है। किसी भूल-चूक पर संपादक की डांट बड़ी नागवार लगती थी। यह भ्रम तब टूटा, जब संपादक के रूप में पहचान बनी। तब जाकर महसूस हुआ कि इससे तो बेहतर उपसंपादकी थी, जिसमें इतने झमेले नहीं थे। संपादक पर संपादकीय के झमेलों के अलावा विज्ञापन विभाग, प्रसार विभाग और दूसरे प्रबंधकीय महकमों का अतिरिक्त दबाव रहता है। उपसंपादक को तो महज अपने पन्ने तक की जिम्मवारी होती है या रिपोर्टर को रूटीन खबरों में मिसिंग से बचना होता है। यह भी जाना कि संपादक भी डांट सुनता है। हरिवंश जी की डांट प्रभात खबर में रहते कई मौकों पर मुझे सुननी पड़ी थी।

संपादक रहते दो-तीन मौके ऐसे आये, जब मुझे हरिवंश जी की डांट सुननी पड़ी। उनके डांटने का तरीका भी नायाब होता था। अमूमन वह मुझे तुम कह कर पुकारते थे। आज भी वह मेरे लिए तुम शब्द का ही प्रयोग करते हैं। उनकी नाराजगी का एहसास तब होता था, जब संबोधन आप से शुरू होता। पटना प्रभात खबर में संपादक रहते दो ऐसे मौके आये, जब हरिवंश जी की डांट मुझे सुननी पड़ी। दोनों मौके अनायास नहीं आये थे, बल्कि पक्के तौर पर चूक मेरी ही थी। पहले पन्ने पर एक राजनीतिक विश्लेषण मेरी बाइलाइन छपी। शीर्षक थोड़ा स्मरण आ रहा है- जनता दल में विद्रोह के बगूले। पेज बनवाने वाले ने इसे पहले पेज पर टाप बाक्स बना दिया। जाहिर है कि इसमें मेरी भी संपादक के नाते सहमति रही होगी। उसी दिन बैक पेज पर हाजीपुर से आई एक खबर थी, जिसे मैंने संपादित किया था। संपादन में बड़ी भूल यह हुई कि बैंक से 25 लाख रुपये लूटे जाने की खबर रिपोर्टर ने भेजी थी और कंप्यूटर पर करेक्शन करते समय मैंने 25 हजार रुपये लिख दिये। वर्ष 1997 में 25 लाख की रकम बड़ी मानी जाती थी।

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अगले ही दिन हरिवंश जी आने वाले थे। अपने हिसाब से मैंने अखबार को बेहतर बनाने की भरसक कोशिश की थी, लेकिन एक बड़ी चूक ने सब पर पानी फेर दिया। मैंने भी लूट की रकम 25 हजार होने की वजह से उसे बैक पेज पर जगह दी। सुबह जब दूसरे अखबार देखे तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। इसलिए कि सबने उस खबर को पहले पन्ने पर लिया था। कुछ ने तो उसे लीड ही बना दिया था। मेरे यहां बैक पेज पर और वह भी गलत तथ्य के साथ।

दफ्तर आदतन साढ़े 10 बजे पहुंच गया था। हरिवंश जी आये तो जिस गर्मजोशी से मिलते थे, वैसा नहीं किया। अपने कमरे में जाकर बैठ गये। पांच-दस मिनट बाद बुलावा आया। जाते ही उन्होंने कहा- ऐसा अखबार निकलता है। मैं चुप रहा। फिर कहा कि विश्लेषण लीड बनता है। एक तो वह खबर मेरी बाइलाइन थी, इसलिए मुझे झेंप ज्यादा हुई। दूसरे, जब उन्होंने 25 लाख की जगह 25 हजार वाली बात कही तो अंदर से थरथरा गया। इसलिए कि खबर का संपादन मैंने किया था। मैं चाहता तो झूठ बोल सकता था कि संवाददाता ने ही अपनी कापी में 25 हजार लिखा, लेकिन मन ने गवाही नहीं दी। मैं चुप ही रहा। फिर और कुछ भी उन्होंने कहा, जो स्मरण नहीं आ रहा।

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दूसरी चूक कोलकाता में प्रभात खबर निकालते वक्त हुई था। अखबार शुरू हुए हफ्ताभर ही हुए थे। पहला पन्ना मैं खुद बनाता था। पहला रविवार आया तो सप्लीमेंट की वजह से उसका दाम सामान्य दिनों से 50 पैसा ज्यादा होना चाहिए था। ध्यान नहीं गया और डाक संस्करण में सामान्य दिनों वाला दाम ही छप गया। हालांकि सिटी संस्करण में चूक का एहसास हो गया था। सारे एजेंटों की सूचना भिजवा दी कि दाम गलत छप गया है। इसलिए हाकर को देते समय पूरा दाम ही लें। सबने सहयोग का वादा भी किया। किसी ने इस भूल के लिए हरिवंश जी को रांची में फोन कर दिया। अगले दिन शाम को उनका फोन आया। बातचीत की शुरुआत उन्होंने आप से ही की। मैं समझ गया कि कुछ सुनना पड़ेगा। उन्होंने सीधे सवाल किया कि आप ने दाम 50 पैसे कम छापा, इसका खामियाजा कंपनी को उठाना पड़ा है। मैंने सफाई दी कि मैनेज हो गया था। इस पर वह बरस पड़े। गलती की और कह रहे हैं कि मैनेज हो गया। उन्होंने फोन काट दिया। आधे घंटे बाद उनका फिर फोन आया। इस बार लहजा बदला था- अश्क तुमको कितनी बार कहा है कि एक सेकेंड मैन रख लो। तुम खुद पेज बनाओगे तो ऐसी गलतियां होंगी ही। इस बार भी मैंने चुप ही रहना बेहतर समझा। सिर्फ जी-जी करता रहा।

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इसके तीसरे दिन एक और ब्लंडर हो गया। ममता बनर्जी ने सीपीएम के समर्थकों द्वारा ममता बनर्जी से संपर्क रखने वाले कई लोगों के हाथ काट लिये थे। उन्हें एक ट्रक पर लेकर ममता ने जुलूस निकाला था। उसी तस्वीर को लेकर एक बहस चलानी थी। इसका शीर्षक था- क्या आपको शर्म नहीं आती। इंट्रो के साथ हाथ कटे लोगों की फोटो लगनी थी। प्रूफ के लिए जो प्रिंट निकला, उसमें तो तसवीर ठीक लगी, लेकिन अखबार में जो तस्वीर छपी, वह सरस्वती जी की थी। अगले दिन इसके लिए भी क्लास लगी। काफी पड़ताल के बाद पता चला कि कंप्यूटर में एक ही नाम से दो फोटो सेव थे। जिस आदमी ने पीडीएफ बनाया, चूक उसकी ही थी। ऐसी स्थिति में कंप्यूटर जी पूछते हैं और आपरेटर अति विश्वास में इग्नोर आल कर देता है तो ऐसी गलती हो जाती है। अगर उसने पीडीएफ का व्यू देख लिया होता तो गड़बड़ी पकड़ में आ जाती।

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