और प्रभात खबर में वाउचर पेमेंट वालों को कांट्रैक्ट लेटर मिला

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ओमप्रकाश अश्क
ओमप्रकाश अश्क

वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क की संस्मरणों पर आधारित प्रस्तावित पुस्तक- मुन्ना मास्टर बने एडिटर की अगली कड़ी

जब कोई बूढ़ा बरगद धराशायी होता है तो उसके इर्द-गिर्द की सारी झाड़ियां दब कर दम तोड़ने लगती हैं। हरिनारायण जी के हिन्दुस्तान जाने के बाद प्रभात खबर में यही हो रहा था। इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि प्रधान संपादक हरिवंश जी का निचले स्तर के साथियों से निकट का संबंध-संपर्क नहीं था। दफ्तर में उनके दरवाजे पर प्रवेश निषेध का कागज चिपका रहता था। उनसे सीधे मिलने की छूट संपादकीय में सिर्फ हरिनारायण जी को ही थी। नतीजा यह हुआ कि जब वे गये तो हरिवंश जी किससे बात करें या कुछ कहें, इसका संकट पैदा हो गया। मैंने कोलकाता से रांची पहुंचने के पहले दिन तो हवा का रुख भांपा और दूसरे दिन उन्हें दो सलाह दी। अव्वल तो उनके दरवाजे से प्रवेश निषेध का कागज हटा दिया जाये और दूसरे यह कि जब भी वह अपने कक्ष से बाहर निकलें तो एक बार संपादकीय में जरूर जायें। किसी भी साथी से सिर्फ यह पूछ लें कि कैसे हो, क्या हो रहा है।

हरिवंश जी ने इन दोनों बातों पर अमल किया। इसका परिणाम यह निकला कि जिन साथियों से वे हालचाल पूछ लेते, वे अपने को धन्य समझते। इस निकटता ने कई साथियों को हिन्दुस्तान जाने से रोका। प्रवेश निषेध का स्टिकर हट जाने के बाद किसी को भी उनके कक्ष में जाने की छूट थी, लेकिन साथियों में सहजता नहीं बन पा रही थी, इसलिए शुरू से ही वे उनसे कटे हुए थे।

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वर्ष 2000 तक प्रभात खबर में दो तरह की वेतन व्यवस्था थी। ज्यादातर कर्मचारी नियमित पे रौल पर थे और कुछ वाउचर पेमेंट पर। वाउचर वालों को भी तनख्वाह मासिक ही मिलती थी। वाउचर वाले लोगों की तनख्वाह 2000 से 5000 के बीच थी। 1999 तक मैं भी प्रभात खबर का नियमित कर्मचारी था। धनबाद से जाने के बाद चार महीने तक नौकरी से अलग रहने के कारण पहली बार साल भर के कांट्रैक्ट पर मेरी पुनर्वापसी हुई थी, जिसका एग्रीमेंट पेपर भी मैं नहीं ले सका था। प्रभात खबर छोड़ कर लोगों के दूसरे अखबारों में जाने की सबसे बड़ी वजह यही थी कि उनके पास कोई ऐसा सबूत नहीं था, जिससे वे कहीं कह सकें कि प्रभात खबर में काम करते हैं। वेतन कम होना दोहरी मार थी।

डैमेज कंट्रोल के लिए मैं रांटी बुलाया गया था। सुबह 10.30 बजे हरिवंश जी से मेरी मुलाकात होती। दिन भर मैं किस मुहिम में रहूंगा, इसकी जानकारी उनको देता और फिर शाम में साढ़े सात बजे उनसे मिल कर बताता कि क्या-क्या किया। मैंने अखबार के हर महत्वपूर्ण सेक्शन में इनचार्ज को लगभग जाने से रोक लिया था। इसके लिए ऊंचे पद का प्रलोभन दिया। वाउचर वाले जो लड़के छोड़ कर जाने की फिराक में थे, उन्हें कांट्रैक्ट लेटर दिलाने और तनख्वाह न्यूनतम तीन हजार कराने का वादा किया। इस बीच नये लड़कों की ट्रेनिंग भी चलती रही। जो गये थे, इनको वापस लाने के लिए भी कोशिश की, पर संपादकीय से कोई नहीं लौटा। हां, सर्कुलेशन में जमशेदपुर से एक आदमी गया था, जिन्हें सभी लोग बाबू दा कहते थे, उसे दत्ता जी ने बुलवाया और उन्हीं शर्तों पर रखने का आश्वासन दिया, जिन पर वह हिन्दुस्तान गये थे। वह तैयार हो गये। प्रभात खबर छोड़ने के लिए बाबू दा ने फैक्स से अपना इस्तीफा भेजा था। उसी अंदाज में हिन्दुस्तान को फैक्स से इस्तीफा बेजवाया गया। दत्ता जी के कमरे में सारी योजना बनी और हरिवंश जी से फाइनल नोड लेकर पैक्स करा दिया गया।

हम लोग अपनी रणनीति में कामयाब हो रहे थे। उथलपुथल थोड़ी शांत हुई तो मैंने कोलकाता वापस लौटने की बात हरिवंश जी से पूछी। उन्होंने कहा कि ठीक है, अब निकल सकते हो। साथ ही यह भी कहा कि जिन लोगों से जो वादा किया है, उनके पत्र भी दे दो। मैंने बड़ी ईमानदारी से सलाह दी कि यह काम आप करें। इससे लोगों की आप से निकटता और सहजता बढ़ेगी। वह मान गये और मुझे भी अपना नियमित कर्मचारी का लेटर लेने को कहा। उस दिन शनिवार था। मैंने कहा कि शनिवार ठीक दिन नहीं होता है, बाद में ले लूंगा। हंस कर उन्होंने कहा- ठीक है। जत्ता जी से भेजवा दूंगा। यह अलग बात है कि दत्ता जी ने मेरा जो अप्वाइंटमेंट लेटर भेजा, वह कुरियर भी मुझे शनिवार को ही कोलकाता में मिला। मेरे रहते ही दूसरे साथियों को भी प्रमोशन और नियुक्ति के कांट्रैक्ट लेटर उन्होंने दे दिये।

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