जब पटना प्रभात खबर में रहते दुखी करने वाले कुछ मौके आये

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ओमप्रकाश अश्क
ओमप्रकाश अश्क

आप वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क की संस्मरणों पर आधारित प्रस्तावित पुस्तक- मुन्ना मास्टर बने एडिटर- का धारावाहिक अंश लगातार पढ़ते रहे हैं। थोड़े व्यतिक्रम के बाद फिर से हम पेश कर रहे हैं। इसमें हरवंश जी द्वारा पटना यूनिट की जिम्मा अश्क को दिये जाने का जिक्र है 

वर्ष 1998। कभी न भूलने वाले साल की शुरुआत अजोबोगरीब तरीके से हुई। 31 दिसंबर 1997 की रात डाक संस्करण का काम खत्म हुआ और अपने सेकेंड मैन मिथिलेश कुमार सिंह को बता कर कि मैं एक दिन के लिए गांव निकला। मन में उमंग थी कि साल का पहला दिन बच्चों के साथ बिताऊंगा। जो गाड़ी अखबार लेकर सीवान तक जाती थी, उसी पर बैठ गया। जाड़े की रात और खुली जीप में पैर लटका कर बैठे रहने से ठंड का शिकार हो गया। साल के पहले दिन घर में बच्चों के साथ रहने की जितनी खुशी थी, उससे ज्यादा दुखदायी ठंड लगने के कारण बीमार पड़ना हो गया। लगभग हफ्ते भर बीमार रहा। यहां यह स्पष्ट कर दूं कि अगस्त 1997 में कोलकाता से डेरा-डंडा उखाड़ कर पटना आया था। बच्चे अभी गांव पर ही रह रहे थे। बाद में वे पटना आये। पटना यूनिट का प्रबंधकीय जिम्मा भी मेरे पास था। प्रबंधन में दूसरे नंबर पर एकाउंट्स का काम देखने वाले निर्भय सिन्हा थे। उन्हें यह बात पच नहीं रही थी कि एडिटोरियल का आदमी यूनिट मैनेजर का काम कैसे देखेगा। मुझ से पहले यह काम अभय सिन्हा जी देख रहे थे। साजिशन निर्भय सिन्हा ने उनसे यह काम छुड़ा लेने में कामयाबी पायी थी, इस उम्मीद में कि यूनिट मैनेजर की कुर्सी उन्हें ही मिलेगी। बाद में वह इस कुर्सी पर बैठे भी। हालांकि अभय जी की सलाह और दूसरे साथियों की हामी पर तत्कालीन प्रधान संपादक हरिवंश जी ने निर्भय सिन्हा की चाहत पर पानी फेर दिया था। हरिवंश जी की वजह से जिम्मेवारी मुझे मिल गयी।

जहां तक मेरा अनुमान है कि निर्भय सिन्हा हमेशा इस फिराक में रहे कि कैसे यह कुर्सी उन्हें मिल जाये। गांव जाकर बीमार पड़ जाने पर मैंने दफ्तर को लिखित सूचना फैक्स से भेजवायी कि तबीयत खराब है। हफ्ते भर बाद लौट पाऊंगा। तब गांव में न फोन होते थे और फैक्स। मोबाइल तो सपने की चीज थी। भतीजे को घर से 8 किलोमीटर दूर मीरगंज (गोपालगंज जिले का एक कस्बा) भेज कर मैंने फैक्स भेजवाया। बाद में मेरे एक साथी सियाराम प्रजापति ने बताया कि आपका फैक्स आया था तो मैंने मिथिलेश जी को दे दिया था। सियाराम को पैक्स इसलिए मिला था कि वह प्रांतीय डेस्क के इनचार्ज थे। फैक्स से खबरें आती थीं और उस पर उन्हीं की नजर रहती थी।

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इधर मेरी गैरहाजिरी को मिथिलेश जी और निर्भय सिन्हा ने हरिवंश जी के सामने इस रूप में पेश किया कि बिना सूचना गायब हैं। मिथिलेश जी ने भी किसी तरह की सूचना से इनकार किया था। जाहिर है कि हरिवंश जी को यह बात नागवार लगी होगी। जब मैं लौटा तो वह भी आये। आने के साथ ही मुझे बुलाया और कहा कि पूरे यूनिट की जिम्मेवारी आप पर है। आप बिना सूचना गायब रहे। नये साल के विज्ञापन का समय था। आपका यह आचरण ठीक नहीं। मैंने सफाई दी कि प्रापर सूचना देकर गया था और बीमार होने की हालत में फैक्स से समय पर सूचना दी। अब यूनिट का काम निर्भय सिन्हा संभालेंगे। खैर, हरिवंश जी और मेरे बीच खटास का बीजोरोपण हो गया।

दूसरा मौका 1998 में होली के वक्त आया। गांव गया था होली की छुट्टी में। होली के दिन कोई साथी हीरो होंडा मोटरसाइकिल लेकर आया। यह बाइक उन्हीं दिनों लांच हुई थी। मैं राजदूत बाइक चला लेता था तो सोचा इसे भी चला कर देखूं। जहां तक जाना था गया, पर लौटते वक्त नाली देख अचानक ब्रेक लगाया तो बाइक पलट गयी और उसके साइलेंसर से पैर का ऊपरी हिस्सा सट गया। देखने में छोटा फफोला लगा। अगले दिन मुझे पटना निकलना था तो घाव सुखाने वाला पाउडर उपर से छिड़का और पट्टी बांध जूते पहन निकल गया।

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शाम को पटना दफ्तर पहुंचा। पता चला कि जिस मकान में हम रहते हैं, उसके निचले हिस्से में रहने वाले अविनाशचंद्र ठाकुर जी सपरिवार घर गये हैं। देर से जाने पर वही दरवाजा खोलती थीं। अब तो रात में घर जाने की उम्मीद थी नहीं, इसलिए मैं प्रेस में ही उन्हीं कपड़ों में न्यूज प्रिंट पर सो गया। सुबह घर गया और जूते-मो  जे हटा कर पट्टी खोली तो होश उड़ गये। मामूनी फफोला एक इंच के डायमीटर में चमड़े के साथ उखड़ गया। देख कर मेरे होश उड़ गये। चलने में दर्द होता था। मैं कमरे में ही दिन भर पड़ा रहा। फोन नहीं था कि किसी को सूचना दूं। शाम चार बजे तक दफ्तर नहीं पहुंचा तो खोजबीन करते सियाराम और उनके साथ एक और कोई आये। मेरी हालत देख एक ने नल से पानी भर कर बोतलों में रखा तो सियाराम किसी से पूछ कर मरहम और कुछ दवाएं दे गये।

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तब संपादक-मैनेजर के लिए दफ्तर आने-जाने के लिए कोई गाड़ी नहीं होती थी। डेढ़-दो किलोमीटर पैदल चल कर दफ्तर आना-जाना करना पड़ता था। उस हालत में इतना पैदल चलना संभव नहीं था। चार-पांच दिन तो उसी हालत में रहा। खाने की व्यवस्था अविनाश जी के परिवार के आ जाने पर उन्हीं के घर से हुई। चार-पांच दिन बाद हवाई चप्पल पहन कर दफ्तर जाना शुरू किया। इसे भी किसी ने अपने ढंग से प्रचारित-प्रसारित किया ही होगा।

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जून-जुलाई के बाद से हरिवंश जी का मेरे प्रति रुख बदल गया। आखिरकार उन्होंने मेरी जगह यशोनाथ झा (वाईएन झा) को पटना में रखने का फैसला किया। मुझे धनबाद संस्करण शुरू करने के लिए भेजने का फैसला हुआ। यहां यह बताना अपना नैतिक धर्म समझता हूं कि प्रभात खबर में कभी हमारे वरिष्छ रहे अविनाश चंद्र ठाकुर को लेकर हरिश जी के मन में क्या था कि उनका रांची से तबादला पटना किया और उन्हें भागलपुर भेजने की बात आयी थी। हालांकि भागलपुर जाने से मैंने रोक लिया था। हम से पहले उनका तबादला धनबाद कर दिया गया। वह इस उम्मीद में वहां जाकर शुरुआती चीजें करते रहे कि संपादक उन्हीं को बनना है। लेकिन ऐन मौके पर मुझे जून 1999 में वहां भेज दिया गया। ठाकुर जी का फिर तबादला देवघर कर दिया गया।

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अगस्त में धनबाद से प्रभात खबर शुरू होना था। पहली बार पेज मेकर पर पन्ने बनने वहीं से शुरू हुए। मैंने छोटी टीम बनायी, जिसमें डेस्क पर पटना से स्वयमप्रकाश (फिलहाल जी टीवी में बिहार-झारखंड के संपादक) और राकेश (अभी प्रभात खबर पटना) को लेकर मैं गया। कम आदमी, नया सिस्टम और 16 पेज का अखबार। उन मुश्किल क्षणों को याद कर अब भी सिहर उठता हूं।

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