प्रधान संपादक हरिवंश जी ने प्रभात खबर में कहां-कहां नहीं घुमाया

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ओमप्रकाश अश्क
ओमप्रकाश अश्क
वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क के संस्मरणों पर आधारित प्रस्तावित पुस्तक- मुन्ना मास्टर बने एडिटर- की धारावाहिक कड़ी 

तीन राज्य, पांच शहर और नौ तबादले। पत्रकारिता के बारे में जो सुना था, उस सत्य का साक्षात दर्शन मैंने कर लिया। असम के गुवाहाटी, झारखंड के रांची, बंगाल के कोलकाता, बिहार के पटना और झारखंड के धनबाद के बीच मेरे पत्रकारीय जीवन का पड़ाव बदलता रहा है। धनबाद की यात्रा इसी कड़ी में शुमार है। सुना था कि पत्रकारिता में मंजिल नहीं होती, अलबत्ता पड़ाव दर पड़ाव भटकाव खूब होता है। प्रभात खबर की नौकरी मैंने तीन बार छोड़ी और दो बार वापसी भी की। तीसरी बार वापसी में खुद को नाकाम पाया। ऐसा तब हुआ, जब मेरे ऊपर यह ठप्पा लगा था कि मैं हरिवंश जी का प्रियपात्र हूं। 1997-99 के बीच पटना के बाद मेरा अगला पड़ाव धनबाद बना, जो मेरे कार्यकाल का सर्वाधिक छोटा दौर महज ढाई-तीन महीने का रहा।

पटना-धनबाद के बीच चलने वाली गंगा दामोदर ही एक ऐसी ट्रेन है, जिसका समय कभी नहीं बदला। चाहे पटना से धनबाद जाना हो या धनबाद से पटना आना, दोनों ओर से उस ट्रेन का समय इतना यात्री अनकूल है कि किसी को परेशानी नहीं होती। वाईएन झा (यशोनाथ झा) को पटना की कमान सौं कर धनबाद की यात्रा की तैयारी में जुट गया। मेरा तबादला पटना के दो साल के प्रवास के बाद हरिवंश जी ने धनबाद कर दिया था। तब बिहार-झाऱखंड बंटे नहीं थे। मैं एक बड़ी कसक मन में लेकर धनबाद की यात्रा पर निकल रहा था। कसक यह थी कि हर कोई नीचे से ऊपर जाता है और मैं ऊपर से नीचे खिसक रहा था। महानगर कोलकाता से पटना राजधानी और अब धनबाद जैसा जिला।

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योजना के मुताबिक जिस दिन मुझे धनबाद निकलना था, उसके अगले दिन पटना से सीवान के अपने गांव के लिए बच्चों को निकलना था। एक अखबारी जीप एजेंट से मैंने आग्रह किया कि वे परिवार को घर तक छोड़ने के लिए जीप की व्यवस्था कर दें। यहां एक और पीड़ा का जिक्र करना मुनासिब समझता हूं। मेरे छोटे भाई की पत्नी की शादी तकरीबन दस साल होने को थे। उसे कोई संतान नहीं थी। उसके तीन-चार एबार्शन हो चुके थे। वह गर्भवती होती, पर तीन-चार महीने होते ही एबार्शन हो जाता। वह जब गर्भवती हुई तो उसे पटना बुला लिया था। इलाज मेरे एक व्यवसायी मित्र जगदीश मोहनका की डाक्टर बहन की देखरेख में चल रहा था। उन्होंने आठ महीने तक बेड रेस्ट की सलाह दी थी। तब उसके गर्भ का पांचवा महीना चल रहा था। काफी उम्मीद बंधी थी। उस हाल में उसे भी तब सीवान तक की खराब सड़क पर उसे जीप से जाना पड़ा। मेरे भीतर गुस्सा इतना भरा था कि सामने वाले का मुंह नोच लेने की मनःस्थिति बन गयी थी।

संभवतः जून 1999 की वह रात 18 या 19 जून की थी। मैंने एक बैग में किताबें, डायरी और कुछ कपड़े पैक कर निकल रहा था। निकलते समय मेरी तब सबसे छोटी एक दुलारी बेटी पुतुल (प्रिया अश्क) ने सोने का प्रहसन किया। निकलते वक्त सबसे मिल रहा था तो पूछा कि लगता है कि पुतुलवा सो गयी है तो उसने आंख बंद किये ही तपाक से कहा- हम सुतल नइखीं, जागले बानी। इसके आगे अपनी हालत को बयां करने के लिए मेरे शब्दकोश के शब्द देने से हाथ खड़े कर दिये हैं, इसलिए इस प्रसंग को विस्तार देने के बजाय यहीं विराम देते हैं। आप कल्पना कर लें कि मैं किस मनःस्थिति में रहा होऊंगा।

अगली सुबह मैं धनबाद पहुंच गया। गेस्ट हाउस में रहने की व्यवस्था थी। उसी में तब यूनिट मैनेजर आरके ओझा परिवार के साथ अपना डेरा जमाये हुए थे। उन्हें यह भनक थी कि मेरे आने से उन पर अंकुश लग सकता है। शायद यह बात उन्होंने अपनी पत्नी से शेयर की थी। अभी प्रभात खबर के कार्यकारी निदेशक आरके दत्ता भी मेरे धनबाद पहुंचने के वक्त वहां गेस्ट हाउस में मौजूद थे। मैंने बैग रख दिये और फ्रेश होकर सभी दफ्तर के लिए निकल गये।

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इसी दौरान एक दिलचस्प घटना हुई। दफ्तर का ही एक आदमी दौड़ते हुए आया और बताया कि आपके बैग से गोजर किस्म का कोई कीड़ा निकला है, ऐसा कहना है ओझा जी की पत्नी का। वह पूरे मोहल्ले में हल्ला मचा रही हैं कि उनके पति को हटाने के लिए मैंने कोई टोटका कराया है। जब मैं लौटा तो केयरटेकर के तौर पर वहां रह रहे दफ्तर के पिउन प्रमोद ने बताया कि भैया, गोजर था, जो बाथ रूम की तरफ से आया था। उसे मैंने झाड़ू से बाहर फेंक दिया। एक तो मैं टूटे मन से धनबाद गया था और ऊपर से श्रीमती ओझा की टिप्पणी ने मन को बहुत झकझोरा। अपनी किस्मत पर ही रोना आया। खैर, दत्ता जी ने पूरा माजरा समझ लिया और ओझा जी को गेस्ट हाउस से परिवार लेकर जाने को कह दिया। बहरहाल धनबाद का मेरा कार्यकाल महज तीन महीने ही रहा। 19 जून को पहुंचा था और अगस्त के आखिर में नौकरी ही छोड़ दी।       (कल पढ़ें धनबाद के तीन महीने के कार्यकाल की कहानी)

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