हिन्दी भाषा के एक दुर्लभ प्रसंग का उद्घाटन- हिन्दी  तेरी वह दशा !

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भारत यायावर
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उन्नीसवीं शताब्दी में उर्दू का इतना प्रसार और दबदबा था कि हिन्दी उसके नीचे दबी हुई थी। उसके उन्नायक तब दो ही लेखक थे- राजा लक्ष्मण सिंह और राजा शिवप्रसाद ‘सितारे-हिन्द’। राजा शिवप्रसाद हिन्दी के प्रवक्ता होने के बावजूद धीरे-धीरे उर्दू की ओर झुकते जा रहे थे। वे ‘आम फहम और खास पसंद’ जुबान के पैरवीकार बनते गए।

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उन्नीसवीं शताब्दी में, खासकर 1857 के बाद, हिन्दी प्रदेशों में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एक गहरी खाई बढ़ती गई। यह खाई दो धर्मों के बीच ही नहीं, एक ही जमीन पर विकसित खड़ी बोली के दो रूपों हिन्दी और उर्दू के द्वंद्व के रूप में सामने आई। कालिदास के ‘रघुवंश’ महाकाव्य का खड़ी बोली गद्य में अनुवाद कर, उसकी भूमिका में राजा लक्ष्मण सिंह ने लिखा- हिन्दी और उर्दू दो बोली न्यारी-न्यारी है। हिन्दी इस देश के हिन्दू बोलते हैं और उर्दू यहाँ के मुसलमान और पारसी पढ़े हुए हिन्दुओं की बोलचाल है।

उन्नीसवीं शताब्दी में उर्दू का इतना प्रसार और दबदबा था कि हिन्दी उसके नीचे दबी हुई थी। उसके उन्नायक तब दो ही लेखक थे- राजा लक्ष्मण सिंह और राजा शिवप्रसाद ‘सितारे-हिन्द’। राजा शिवप्रसाद हिन्दी के प्रवक्ता होने के बावजूद धीरे-धीरे उर्दू की ओर झुकते जा रहे थे। वे ‘आम फहम और खास पसंद’ जुबान के पैरवीकार बनते गए। सर सैयद अहमद मुसलमानों के ऐसे नेता के रूप में उभर चुके थे, जिनका अंग्रेज अधिकारियों से घनिष्ठ रिश्ता था। उन्होंने अंग्रेजी राज में मुसलमानों और उर्दू के विकास के लिए सबसे अधिक कार्य किए। उन्हीं के प्रयत्न से उर्दू को अदालती भाषा बनाया गया। पाठशालाओं में उर्दू पढ़ना अनिवार्य कर दिया गया। अयोध्या प्रसाद खत्री ने खड़ी बोली में कविता लिखे जाने का आन्दोलन चलाया था। लेकिन खड़ी बोली उर्दू-स्वरूप में तो कविताएँ काफी पहले से लिखी चली आ रही थी। भारतेन्दु युग के अधिकांश कवियों ने ग़जले लिखी थीं, किन्तु उसी खड़ी बोली के हिन्दी स्वरूप में कविता लिखना उनके लिए मुश्किल था। खत्री जी ने ‘खड़ी बोली का पद्य’ नामक एक संकलन भी संपादित किया था, जिसका ऐतिहासिक महत्त्व है। इस पुस्तक की भूमिका हिन्दी प्रेमी इंगलैंड के फ्रेडरिक पिंकाॅट ने लिखी थी, जिसमें उन्होंने अफसोस जताते हुए लिखा कि फारसी मिश्रित हिन्दी (अर्थात् उर्दू) के अदालती भाषा बन जाने से उसकी बहुत उन्नति हुई। इससे साहित्य की एक नई भाषा ही खड़ी हो गई। इसे एक विदेशी भाषा की तरह भारतीय विद्यार्थी स्कूलों में सीखने के लिए विवश किए जाते हैं।

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किन्तु, कुछ स्कूलों में देवनागरी में लिखी हिन्दी सिखाई जाती थी, वह भी कुछ पदाधिकारियों को नागवार गुजरता था। 1868 ई॰ में संयुक्त प्रान्त के शिक्षा विभाग के अध्यक्ष एम॰एस॰ हैवेल ने इस पर दुख जाहिर करते हुए कहा था कि यह अधिक अच्छा होता यदि हिन्दू बच्चों को उर्दू सिखाई जाती न कि एक ऐसी ‘बोली’ में विचार प्रकट करने का अभ्यास कराया जाता जिसे अंत में एक दिन उर्दू के सामने सिर झुकाना पड़ेगा। 1868 ई॰ में इलाहाबाद में भाषा को लेकर एक अधिवेशन हुआ, जिसमें यह बहस का विषय था कि ‘देशी जबान’ हिन्दी को मानें या उर्दू को। हिन्दी के पक्षपाती उसके लिए लगातार संघर्ष कर रहे थे, लेख लिख रहे थे, व्याख्यान कर रहे थे, किन्तु प्रशासन के द्वारा उर्दू के मुकाबले हिन्दी को कम महत्त्व दिया जा रहा था। ऐसे ही वातावरण में खड़ी बोली के इन दोनों रूपों – फारसी लिपि में लिखी जाने वाली उर्दू एवं देवनागरी में लिखी जाने वाली हिन्दी – के बीच एक गहरी दीवार खड़ी हो गई। इसके पीछे दो धर्मों के बीच की रस्साकशी भी थी, जिसमें हिन्दी उर्दू से हर मामले में पिछड़ी हुई थी। राजाश्रय से दूर होने के कारण वैसे ही उसका प्रसार नहीं हो पा रहा था, तथा शिक्षा के क्षेत्र में भी उसका न्यून महत्त्व था। इसी समय भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने ‘उर्दू’ का स्यापा’ नामक व्यंग्य कविता लिखी-

है है उर्दू हाय-हाय। कहाँ सिधारी हाय-हाय। 

 मेरी प्यारी हाय-हाय। मुंशी मुल्ला हाय-हाय। 

 दाढ़ी नोचे हाय-हाय। दुनिया उल्टी हाय-हाय। 

 रोजी बिल्टी हाय-हाय। सब मुखतारी हाय-हाय। 

भारतेन्दु पहले उर्दू में गजल कहते थे। तखल्लुस रखा था – ‘रसा’। किन्तु धीरे-धीरे उर्दू के वर्चस्व एवं उर्दू-भाषियों की महजबपरस्ती से दुखी हो गए थे। उन्होंने मुसलमानों को सम्बोधित कर कहा – “मुसलमान भाइयों को भी उचित है कि इस हिन्दुस्तान में बसकर वे लोग हिन्दुओं को नीचा समझना छोड़ दें। ठीक भाइयों की भाँति हिन्दुओं से बरताव करें, ऐसी बात जो हिन्दुओं का जी दुखाने वाली हो, न करें।“

लेकिन ऐसा न होना था, न हुआ। उर्दू का बोलबाला जारी था। भारतेन्दु द्वारा सम्पादित पत्रिकाएँ ‘कविवचन सुधा’ और ‘हरिश्चन्द्र चंद्रिका’ की मात्र ढाई सौ प्रतियाँ छपती थीं, जिनमें से डेढ़ सौ प्रतियों की सरकारी खरीद होती थीं एवं सौ प्रतियाँ हिन्दी पाठकों के बीच वितरित होती थीं। अर्थात हिन्दी पढ़ने वालों की संख्या कितनी कम थी, इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है। उस समय के हिन्दी के निर्माता जो पत्रिकाएँ एवं पुस्तकें प्रकाशित करते थे, उनकी घरफूंक मस्ती और दीवानगी का ही नमूना था। उन्होंने हिन्दी की सेवा के लिए सर्वस्व त्याग का आदर्श रखा था। वे धर्मप्राण लोग थे, जो एक विदेशी लिपि में फारसी शब्दों से लबालब भरी हुई उर्दू भाषा को अपना नहीं सकते थे। वे अपनी जातीयता अपनी संस्कृति में ही तलाशते थे। हिन्दी प्रदेशों में उच्च शिक्षित और पदाधिकारी वर्ग के लोग प्रायः अंग्रेजी भाषा में ही लिखा करते थे। उनके लिए हिन्दी और संस्कृत एक हीन भाषा थी। यहाँ तक कि पं॰ मदनमोहन मालवीय भी तब अंग्रेजी में ही लिखा करते थे।

ऐसे ही समय में मुसलमानों ने यह प्रचारित किया कि ‘हिन्दू’ शब्द का अर्थ फारसी भाषा में चोर, लुटेरा, गुलाम, काला, काफिर आदि है। अतः उन्हें स्वयं विचार करना चाहिए कि ‘हिन्दू’ और उसी से बना शब्द ‘हिन्दी’ नकारात्मक अर्थ का बोधक है, इसलिए इसका त्याग करना ही बेहतर होगा। तब हिन्दुओं ने दयानन्द सरस्वती के ‘आर्य’ शब्द को अपनाया तथा हिन्दी भाषा के लिए आर्य भाषा।

लेकिन ‘आर्य भाषा’ सिर्फ हिन्दी ही नहीं, भारत की कई भाषाएँ भी है, इसलिए इससे सिर्फ हिन्दी का बोध नहीं हो सकता था। तब हिन्दी लेखकों ने यह विचार किया कि देवनागरी का प्रयोग लिपि के लिए हो एवं ‘नागरी’ हिन्दी भाषा के लिए। लेकिन ‘नागरी’ से लिपि का बोध होता था, भाषा का नहीं। बावजूद इसके, उस दौर के हिन्दीसेवियों की यह मान्यता थी कि ‘नागरी’ लिपि के प्रचलन होने से ही हिन्दी का विकास हो सकता है। इसीलिए महत्त्वपूर्ण है ‘नागरी’। इस ‘नागरी’ के पहले झंडा बरदार पं॰ गौरीदत्त हुए, जिन्होंने सन् 1870 ई॰ में हिन्दी की पहली औपन्यासिक रचना ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ लिखी है। ये सम्पन्न परिवार के थे और चालीस वर्ष की उम्र में ‘नागरी प्रचार’ के लिए अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति दान कर दी और साधु बनकर, नागरी का प्रचारक बनकर घूमने लगे। वे हाथ में एक झंडा उठाए रहते, जिसमें लिखा होता ‘जय नागरी’। कोई उन्हें मिलता और नमस्कार करता तो वे ‘जय नागरी’ ही बोलते। इन्होंनें हिन्दी भाषा का कोश तैयार किया था, जिसका नाम ‘गौरी नागरी कोश’ रक्खा।

कोई भी समझदार व्यक्ति यह सहज ही समझ सकता है कि कोश किसी भाषा का होता है, लिपि का नहीं। 1893 ई॰ में जब बनारस में ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ की स्थापना की गई, तब इस नाम में ‘नागरी’ लिपि से ज्यादा हिन्दी भाषा का द्योतक है। 1896 ई॰ में प्रकाशित हिन्दी विश्वकोश के छठे खण्ड के पृष्ठ 284 पर लिखा है – “नागरी प्रचारिणी सभा हिन्दी भाषा और साहित्य तथा देवनागरी लिपि की उन्नति तथा प्रचार और प्रसार करने वाली देश की अग्रणी संस्था है। इसकी स्थापना 16 जुलाई, 1893 ई॰ को हुई थी, इसके प्रमुख संस्थापक थे स्व॰ श्याम सुन्दर दास जी, स्व॰ रामनारायण जी मिश्र और श्री ठा॰ शिवकुमार सिंह जी।

यह वह समय था जब अंगरेजी, उर्दू और फारसी का बोलबाला था तथा हिन्दी का प्रयोग करने वाले बड़े हेय दृष्टि से देखे जाते थे। अतः सभा को अपनी उद्देश्यपूर्ति के लिए आरम्भ से ही प्रतिकूलताओं के बीच अपना मार्ग निकालना पड़ा।“ ना॰ प्र॰ सभा हिन्दी लेखकों का सबसे बड़ा मंच था। देखते ही देखते उसके सैकड़ों सदस्य हो गए और ‘नागरी’ के प्रचार-प्रसार में अपने को लगा दिया। 1894 ई॰ में राधाकृष्ण दास ने ‘नागरीदास का जीवन-चरित्र’ नामक एक लेख लिखा और उसे सभा के सदस्यों के बीच पढ़कर सुनाया। 1896 ई॰ में मिर्जापुर के प्रसिद्ध लेखक गदाधर सिंह ने एक बड़ा पुस्तकालय स्थापित किया था। केदारनाथ पाठक ने उनसे आग्रह किया कि इसे वे सभा को दान कर दें। उन्हीं पुस्तकों से सभा का पुस्तकालय आरम्भ हुआ और नाम रखा गया – ‘आर्यभाषा पुस्तकालय’। इसी वर्ष सभा के द्वारा ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का प्रकाशन शुरू हुआ। इस पत्रिका के जून, 1898 ई॰ में महावीर प्रसाद द्विवेदी की लम्बी कविता ‘नागरी ! तेरी यह दशा !!’ प्रकाशित हुई –

श्रीयुक्त नागरि ! निहारी दशा तिहारी, 

होवै विषाद मन माहि अतीव भारी। 

हा ! हन्त लोग कत मातु तुम्हैं बिसारी, 

सेवैं अजान उरदू उर माहिं धारी। 

तात्पर्य यह कि ऐ नागरी ! श्री सम्पन्न होते हुए भी तुम्हारी दशा देखकर मन में अत्यधिक विषाद होता है। यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि मातृ स्वरूप होते हुए भी तुम्हें विस्मृत कर लोग अनजानी उर्दू को हृदय में बसाकर सेवा कर रहे हैं। इसी कविता में आगे उन्होंने लिखा –

तेरी समान रुचिरा, सरला, रसाला, 

शोभायुता, सुमधुरा, सगुणा, विशाला। 

भाषा न अन्य यहि काल अहो दिखाई, 

बोलें निशंक हम यों स्वभुजा उठाई। 

तात्पर्य यह कि मैं बिना किसी शंका के अपनी भुजाएँ उठाकर यह कहता हूँ कि हे नागरी, तुम्हारी जैसी रुचिर, सरल, सरस, शोभायुक्त, मधुर गुणों से भरी हुई महान भाषा इस समय कहीं भी दिखलाई नहीं पड़ती।

14 मई 1899 के ‘भारत जीवन’ नामक साप्ताहिक पत्रिका में महावीर प्रसाद द्विवेदी की इसी विषय पर ‘नागरी का विनय पत्र’ शीर्षक कविता प्रकाशित हुई, जिसके अंत में उन्होंने मदनमोहन मालवीय से प्रार्थना की है कि वे मैकडोनल के यहाँ ‘नागरी’ को राजकाज की एवं अदालतों की भाषा में व्यवहार करवाने के लिए इस विनय पत्र को साथ ले जाएँ।

जयपुर वासी मिस्टर जैन वैद्य ने महावीर प्रसाद द्विवेदी की चार कविताओं – नागरी ! तेरी यह दशा, प्रार्थना, नागरी का विनय-पत्र एवं कतज्ञता-प्रकाश – को मिलाकर ‘नागरी’ नामक संकलन संपादित-प्रकाशित किया था। इस पुस्तक को बाद में ना॰ प्र॰ सभा ने कई हजार प्रतियाँ छपाकर वितरित की। 1898 ई॰ में हिन्दी के कई पक्षधर एवं प्रभावशाली व्यक्तियों के साथ पं॰ मदन मोहन मालवीय ने लाट साहब मैकडाॅनल से मिलकर ‘नागरी’ को राजकाज की भाषा के रूप में में स्वीकृत करने का प्रतिवेदन दिया और इस प्रकार ‘नागरी’ का प्रवेश राजकीय भाषा के रूप में 1900 ई॰ में हुआ, साथ ही प्राथमिक विद्यालयों में हिन्दी की पढ़ाई का समुचित प्रबन्ध हुआ।

जोरदार शब्दों में मदनमोहन मालवीय की अंग्रेजी भाषा में लिखी पुस्तक ‘अदालती लिपि और प्राइमरी शिक्षा’, जिसमें नागरी को अदालतों और पाठशालाओं से दूर रखने के दुष्परिणामों की विस्तृत चर्चा थी, का सर मैकडोनेल साहब पर काफी प्रभाव पड़ा था। मदनमोहन मालवीय का हिन्दू और हिन्दी के लिए वही स्थान था, जो मुसलमान और उर्दू के लिए सैयद अहमद का था। सैयद अहमद को अंग्रेजों ने ‘सर’ की उपाधि दी थी और मालवीय जी को हिन्दू जनता ने महामना की। उस समय के प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य के उर्दू शायर अकबर इलाहाबादी ने सैयद अहमद के देहावसान के बाद कहा था-

हमारी बातें ही बातें हैं, – सैयद काम करता था 

न भूलो फर्क जो है, कहने वाले करने वालें में। 

सर सैयद अहमद ने अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय की स्थापना की थी और उर्दू को सरकारी दर्जा दिलवाया था। महामना मदन मोहन मालवीय ने नागरी लिपि और भाषा को सरकारी दर्जा दिलवाया और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। उनका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि अकबर इलाहाबादी ने उन पर भी एक शेर कहा है-

बढ़ा ली शेख ने दाढ़ी अगर्चे सन की-सी 

मगर वो बात कहाँ मालवी मदन की-सी। 

यहाँ कुछ विषयांतर हो गया। ‘हिन्दी भाषा’ जो भारतेन्दु के लिए ‘निज भाषा थीं, डाॅ॰ ग्रिअर्सन ने जिसे ‘माॅडर्न वर्नाकुलर’ अर्थात आधुनिक देशज भाषा कहा, फिर उसके लिए ‘आर्य भाषा’ और ‘नागरी’ का प्रयोग हुआ, लाला सीताराम ने कालिदास की कृतियों के अनुवाद-क्रम में सिर्फ ‘भाषा’ कहा, वह अब खड़ी बोली नहीं रह गई थी।

‘हिन्दी’ जो फारसी भाषा का शब्द था और सिन्धु नदी के इस ओर रंहने वालों को हिन्दू या हिन्दी कहा जाता था और जिसका अर्थ ‘फारसी भाषा’ में चोर, डाकू, लुटेरा, गुलाम, काला और काफिर था, उसे स्वीकार करना धर्मप्राण हिन्दुओं के लिए मुश्किल था। सबसे पहले ‘हिन्दी’ शब्द को महावीर प्रसाद द्विवेदी ने संस्कृत में खोज निकाला एवं संस्कृत व्याकरण से इसे सिद्ध किया। फरवरी-मार्च, 1903 ई॰ की ‘सरस्वती’ में उन्होंने ‘हिन्दी भाषा और उसका साहित्य’ नामक लम्बा निबन्ध लिखा। वे लिखते हैं – “संस्कृत के व्याकरण के अनुसार ‘हिन्दी’ शब्द की उत्पति को सिद्ध करने के पहले ‘हिन्दू’ शब्द को सिद्ध करना पड़ेगा क्योंकि हिन्दुओं ही की भाषा का नाम ‘हिन्दी’ है। संस्कृत में एक धातु ‘हिसि’ है। उसका अर्थ ‘हिंसा करना’ है। इस ‘हिसि’ धातु से कर्तार्थक प्रत्यय करने से ‘हिनन’ और ‘हिंसक’ आदि शब्द सिद्ध होते हैं। इन शब्दों में ‘खण्डन’ और ‘परिताप’ अर्थ के बोधक ‘दो’ और ‘दृङ्’ धातुओं के योग से क्रमशः ‘हिन्दु’ और ‘हिन्दू’ शब्द सिद्ध होते हैं। अतएव ‘हिन्दू’ शब्द का धात्वर्थ ‘हिंसा करने वालों को खण्डन करने अथवा सन्ताप पहुँचाने वाला’ हुआ। यह उपपत्ति इस देश के सब मतवालों के अनुकूल जान पड़ती है। वेदान्त आदि षड्दर्शन तथा वैदिक, बौद्ध और जैन सिद्धान्तों के अनुयायी, सभी व्यर्थ हिंसा न करना अपने मत का एक प्रधान अंग मानते हैं। अतएव हिंसा करने वालों से प्रतिकूलता करना उनके लिए स्वाभाविक ही है। ‘हिन्दू’ शब्द का प्रयोग संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। एक स्थल में तो उसका अर्थ भी लिखा है। देखिए – ‘हीनञ्य दूषयत्ये व हिन्दुरित्युच्यते प्रिय।’ (मेरुतंत्र, 23वाँ प्रकाश) अर्थात् हीन लोगों में जो दोषारोपण करे उसे हिन्दू कहते हैं। यह अर्थ भी हमारे पूर्वोक्त अर्थ से प्रायः मिलता है। भेद इतना ही है कि यहाँ पर हिंसक अर्थ न लेकर ‘हीन’ अर्थ लिया गया है। फारसी भाषा में ‘हिन्दू’ शब्द जो ‘काले’ के अर्थ में व्यवहृत होता है वह मुसलमानों की कृपा का फल है।“

महावीर प्रसाद द्विवेदी कई भारतीय भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने देखा कि बंगला भाषा के विद्वान धर्मानन्द महारथी ने ‘हिन्दू’ शब्द को पारसियों के आदि ग्र्रंथ ‘जेन्दावस्ता’ में ढूँढ़ निकाला है। वेदों में जो ‘सप्तसिंधव’ है वे ‘जेन्दावस्ता’ में ‘हफ्तहिन्दव’। यह एक जगह एक पर्वत के लिए भी प्रयुक्त हुआ है, बाद में जिसे हिन्दूकुश पर्वत कहा गया। दूसरे रूप में यह शब्द ‘हनूद’ है। ईसा के पाँच सौ वर्ष पूर्व हिब्रू भाषा में रचित ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ में, जो यहूदियों का आदिम ग्रंथ है, यह शब्द ‘हन्द्’ के रूप में आया है। पश्तू भाषा में यह ‘हन्दू’ के रूप में बदल गया। पश्तू में इसका अर्थ है – शक्ति, गौरव, विभव, प्रभाव इत्यादि।

प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक जोकोलियेत ने अपने ग्रंथ में लिखा है -“असाधारण बल और असाधारण विद्यावत्ता के कारण पूर्वकाल में भारतवर्ष पृथ्वी की सारी जातियों का आदरपात्र था।“ तात्पर्य यह कि हिन्दू शब्द का अर्थ है विक्रमशाली, प्रभावशाली आदि। महावीर प्रसाद द्विवेदी अंत में निष्कर्ष स्वरूप लिखते हैं – “इस प्रकार ‘जेन्दावस्ता’ का ‘हिदव’ शब्द पश्तू में ‘हन्द’ तक पहुँचा। धर्मप्रवर्तक गुरुनानक के सैनिक शिष्यों ने गुरुमुखी भाषा में उसे ‘हिन्दु’ कर दिया। नानक के पहले यह शब्द हिन्दव, सिन्धव, हन्द और हन्द तक रहा। हिन्दुवंशावतंस सिक्खों ने अन्त में उसे ‘हिन्दू’ के रूप में परिवर्तित कर दिया। …… जिस हिन्दू जाति की साधुता, वीरता, विद्या, विभव और स्वाधीनता आदि देखकर पारसी, यहूदी, ग्रीक और रोमन लोग मोहित हो गए और मुसलमान लेखकों ने जिस देश को स्वर्ग-भूमि कहकर उल्लेख किया, क्या उसी देश के रहने वाले काफिर, काले, गुलाम, कदाचार और पारस्वाहारी कहे जा सकते हैं ? यह बात क्या कभी विश्वास योग्य मानी जा सकती है ?“

इस तरह जब ‘हिन्दू’ शब्द का सकारात्मक अर्थ निरूपण हो गया तब ‘हिन्दी’ शब्द को भाषा के रूप में व्यवहार करने के लिए किसी अन्य शब्द ‘नागरी’ आदि की जरूरत ही नहीं रह गई। भाषा के लिए ‘हिन्दी’ और लिपि के लिए ‘देवनागरी’ शब्द का बेहिचक प्रचलन होने लगा। देखते-ही-देखते हिन्दी एक देशव्यापक भाषा के रूप में अपनी जगह बनाती चली गई। लेकिन इसके निर्माण और विकास के पीछे जो हिन्दीसेवियों का संघर्ष और त्याग था, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। हिन्दी भाषियों के सिरमौर्य महामना मालवीय ने, जो अंग्रेजी में लिखते थे, हिन्दी में लिखना शुरू किया और 1907 ई॰ में ‘अभ्युदय’ नामक एक वैचारिक साप्ताहिक पत्र भी निकाला। जैसे-जैसे हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास होता चला गया, उर्दू सिमटती चली गई। अकबर इलाहाबादी ने लिखा –

फारसी उठ गई, उर्दू की वो इज्जत न रही 

है जबाँ मुँह में मगर उसकी वो कुब्बत न रहीं

(लेखक से संपर्क- यशवंतनगर, हजारीबाग- 825301 झारखण्ड, मो.- 6204 130 608 ई मेल- bharatyayawar@gmail.com)

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