हिंदी पत्रकारिता के पितामह गणेश शंकर विद्यार्थी ने दी थी सीख

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गणेश शंकर विद्यार्थी ने कबीरी ढंग से लिखा था,
गणेश शंकर विद्यार्थी ने कबीरी ढंग से लिखा था, "अजां देने, शंख बजाने, नाक दबाने और नमाज पढ़ने का नाम धर्म नहीं है।
  • प्रवीण बागी
प्रीण बागी, वरिष्ठ पत्रकार
प्रीण बागी, वरिष्ठ पत्रकार

हिंदी पत्रकारिता के पितामह गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने अखबार प्रताप के पहले अंक में पत्रकारिता की अवधारणा प्रस्तुत की थी। वह अवधारणा आज भी मौजू है। इसे हिंदी पत्रकारिता का घोषणा पत्र भी कहा जाता है।

उन्होंने लिखा था- “समस्त मानव जाति का कल्याण करना हमारा परमोद्देश्य है। हम अपने देश और समाज की सेवा का भार अपने ऊपर लेते हैं। हम अपने भाइयों और बहनों को उनके कर्तव्य और अधिकार समझाने का यथाशक्ति प्रयत्न करेंगे। राजा और प्रजा में, एक जाति और दूसरी जाति में , एक संस्था और दूसरी संस्था में बैर और विरोध, अशांति और असंतोष न होने देना हम अपना परम कर्तव्य समझेंगे।”

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प्रताप का पहला अंक 9 नवंबर 1913 को प्रकाशित हुआ था। आज गणेश शंकर विद्यार्थी का शहादत दिवस है।  कानपुर में भड़के साम्प्रदायिक दंगे को शांत करने के लिए वे गली-गली घूम रहे थे। इसी क्रम में 25 मार्च 1931 को दंगाइयों की भीड़ ने उनकी हत्या कर दी थी।

उनकी हत्या के बाद गांधी जी ने प्रताप के संयुक्त संपादक को तार भेजा था। तार में लिखा था-‘कलेजा फट रहा है तो भी गणेश शंकर की इतनी शानदार मृत्यु के लिए शोक संदेश नहीं दूंगा। उनका परिवार शोक-संदेश का नहीं बधाई का पात्र है। इसकी मिशाल अनुकरणीय सिद्ध हो।’ पत्रकारिता के इस संक्रमण काल में गणेश शंकर विद्यार्थी जी को याद करने की जरूरत है।

1931 में कानपुर में दंगे हो रहे थे।  ऐसे मौके पर गणेश शंकर विद्यार्थी से रहा न गया और वे निकल पड़े दंगे रोकने। कई जगह पर तो उन्हें सफलता मिल गयी, लेकिन कुछ देर में ही वे दंगाइयों की भीड़ में फंस गए। दूसरे दिन उनका शव बरामद किया गया। तब जाकर यह स्पष्ट हो गया कि गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या दंगाइयों ने की थी।

कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेश शंकर विद्यार्थी भी ऐसे ही पत्रकार थे। उन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेज़ी शासन की नींव हिला दी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो  महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन के समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आज़ादी के लिए लड़ने में सक्रिय सहयोग प्रदान करते थे।

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