सरस्वती पूजा बसंत पंचमी पर, जानिए सरस्वती कौन हैं और क्या हैं? 

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वसंत पंचमी  के दिन  सरस्वती पूजा का विधान भारत की प्राचीन परम्परा है। लेकिन पूजा का तात्पर्य जाने बिना भारत के लोग पूजा किए जाते हैं।
वसंत पंचमी  के दिन  सरस्वती पूजा का विधान भारत की प्राचीन परम्परा है। लेकिन पूजा का तात्पर्य जाने बिना भारत के लोग पूजा किए जाते हैं।
  • भारत यायावर 
भारत यायावर
भारत यायावर

सरस्वती पूजा का वसंत पंचमी  के दिन विधान भारत की प्राचीन परम्परा है। लेकिन सरस्वती पूजा का तात्पर्य जाने बिना भारत के लोग पूजा किए जाते हैं। भारत में अज्ञान का अंधकार और भी बढता जा रहा है। यह जाने बगैर कि देवी सरस्वती कौन हैं और क्या हैं,  लोग अपने ही धुन पर नाच रहे हैं। सामान्य रूप से  वाणी, शब्द, स्वर, संगीत, विद्या ही सरस्वती हैं। यह  श्रीसम्पन्न होने के कारण  शुभ हैं। इसीलिए सरस्वती पूजा के दिन ही अक्षरारम्भ से लेकर खेतों में हल चलाने का विधान है। फणीश्वरनाथ रेणु की एक कहानी है  ‘सिरपंचमी का सगुन’। इसका तत्सम रूप होगा  श्रीपंचमी का शकुन। निराला ने एक कविता लिखी हैः देवी सरस्वती। इस कविता में उन्होंने देवी सरस्वती के प्रतीकात्मक अर्थ को उजागर करने की  पहली बार कोशिश की है।

निराला कहते हैं कि मानव का मन ही विश्व सागर है। उसकी आत्मा नील शतदल कमल है। खिले हुए दलों पर अधरों की शोभा है। दो हाथों में वीणा और दो हाथों में पुस्तक तथा कमल धारण किए हुए, जादू की तरह जीवन के शोभन स्वर से सज्जित। नील वसन। शुभ्रतर ज्योति से खिला हुआ तन और एक तार से चराचर जगत से मिला हुआ शाश्वत मन। यह है देवी सरस्वती का रूप।

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निराला देवी सरस्वती के प्रतीकात्मक अर्थ को उजागर करते हुए आगे बढ़ते हैं और ज्ञान के क्षेत्र में इतना कुछ मौलिक स्थापनाओं को रेखांकित करते हैं कि उनकी अतीन्द्रिय मानसिकता को जानकर गहराई का बोध होता है। उनके चिन्तन का कोई बना-बनाया ढांचा नहीं है। कुछ भी उधार का नहीं है।  वे देवी सरस्वती के महत्त्व को स्थापित करने के लिए कहते हैं।  :

सामगीत गाए आर्यों ने तुम्हें मानकर/ किया समाहित चित्त ज्ञान-धन तुम्हें जानकर/ एक तुम्हारी अर्चा सहज ॠचाओं से की, चरणों पर पुष्पों की माला की अंजलि दी/

ऋतुओं के फूल  तुमने ही खिलाए हैं  और भिन्न-भिन्न  गन्धों से तुमने ही  पूरे वातावरण को सुरभित किया है। जगत के मुरझाए हुए मुखड़ों पर खुशी की चमक तुम्हारी ही कृपा है। बीजों से जैसे अंकुर निकलता है और अंकुर में पत्ते आते हैं। फिर पत्तों से शाखा, शाखाओं से द्रुम बनता है। फिर उसमें नव पुष्प और फल लगते हैं। तुम्हारी कृपा से ही धान के पौधे हँसते हुए खेतों में बढ़ते हैं। तरह-तरह की फसलों की प्राप्ति होती है। अरहर, काकुन (एक मोटा अन्न), सावाँ, उड़द और कोदो की खेती लहराती हुई दिखाई देती है। आम जैसे फल, जूही जैसे फूल की मादक गंध नागिन की तरह लहराती है।

किसान खेतों में चने, जौ, मटर, गेहूँ, अलसी, राई, सरसों आदि के बीज मानों तुम्हारे ही हाथों से डालता है। वाह! वाह!  इस तरह तुम्हारी वीणा सजती है और पौधों में  उसकी रागिनी बजती है– सजीव तथा सुखदाई! दुखी किसानों की आँखें अपनी उत्पादित फसलों को देखकर खुशी से छल-छल करने लगती हैं। जब हरी-भरी  खेतों की सरस्वती लहराती है, तब सीधे-सरल किसानों के घरों में खुशियों की बहार आ जाती है। वे खुली चाँदनी रात में डफ और मंजीरे लेकर, गोलाकार बैठकर कबीर, तुलसी के भजन गाने लगते हैं। राम के धनुष-भंग और वनवास की कथा का गायन करते हैं।

इस तरह प्रखर शीत ने वाणों से  बेंधकर जगत की हरीतिमा के हर पत्तों को छेद दिया है। दुबली-पतली हुईं नदियों और ठंड से ठिठुरते साधारण जन, लुटे-पिटे से, वस्त्रहीन, आग ताप कर अपने गृहस्थ जीवन को बिता रहे हैं। जमींदारों की बनी हुई है। महाजन धनी हो गए हैं। जग के मूर्त पिशाच धूर्त लोग गुनी हो गए हैं।

हे देवी सरस्वती!  तुम विश्वरूपिणी हो! तुम्हें मूर्ति में रचकर वसंत के दिन दीनता से घबरा कर पूजा की। गीत और वाद्य की सामाजिकता से भरकर फूलों तथा गंगा की रेत से  तुम्हारी आराधना की। राग-रंग की रामायण दुख की गाथा से  पूरी हुई। इसमें  जैसे भाषा की गहरी अर्थवत्ता को वहन किया था।

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वैदिक काल में सरस्वती नदी के किनारे कृषि और भाषा के जो बीज अंकुरित हुए थे, वह अवधारणा देवी सरस्वती के रूप में  आज भी  चली आ रही है। धीरे-धीरे सभ्यता का विकास होता गया। महाभारतीयता का स्वरूप भी कुछ बदला। भारतीयता के अपनी प्रांतीय सभ्यता का आलेखन हुआ। भारत की राजनीतिक व्यवस्था भी बदलती गई। फिर भी  भारतीयता का वह प्राचीनतम रूप आज भी पूरी दुनिया को सम्मोहित करता है। हे देवी सरस्वती! तुम्हीं चिरन्तन जगत की उन्नायक हो। तुम्हारा ही ज्ञानालोक विकीर्ण हुआ और कबीर तथा दादू से निर्झर के रूप में आगे बढ़ा। तुम विश्वरूपिणी हो। विश्वमोहिनी हो। कवि की सनयन कविता हो।

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निराला की देवी सरस्वती  कविता में  सभ्यता, संस्कृति, विश्व मानवीयता, प्रकृति, कृषि, किसान, धूर्त महाजन, जमींदार, ऋतुओं का सौंदर्य-दर्शन,  भारतीयता की खोज, फूलों की खुशबू  आदि इतनी बहुरंगी छवियाँ हैं कि  इन पर पूरी किताब ही लिखी जा सकती है। निराला की यह सनयन कविता है। ऐसी कविता जो सब कुछ देख-सुन सकती है। आँखों वाली ऐसी कविता ही अनश्वर होती है।

लेखक- भारत यायावर, यशवंतनगर, हजारीबाग (झारखंड), संपर्क- 6204130608

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