रामनिरंजन परिमलेन्दुः अनुसंधानपरक आलोचना का अन्यतम योद्धा

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रामनिरंजन परिमलेन्दु
रामनिरंजन परिमलेन्दु
  • डॉ. अमरनाथ
अमरनाथ
अमरनाथ

पुरानी पीढ़ी के गिने चुने महान अनुसंधानकर्ताओं की तरह नि:स्वार्थ भाव सेएकान्त साधना करने वालेअनुसंधानपरक आलोचना के अन्यतम  योद्धा रामनिरंजन परिमलेन्दु (25.8.1934-29.9.2020) का विगत 29 सितंबर को सुबह पटना के एक निजी अस्पताल में निधन हो गया. वे बिहार विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर के हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद गया में रहकर अपने अध्ययन और अनुसंधान के कार्य में संलग्न थे. पीठ में दर्द की शिकायत होने पर उन्हें एक सप्ताह पहले ही इलाज के लिए पटना लाया गया था.

अनुसंधानपरक आलोचना के क्षेत्र में रामनिरंजन परिमलेन्दु का नाम अतुलनीय है. अन्तिम दिनों तक वे निरंतर अनुसंधान के काम में संलग्न थे. उन्होंने अपने अनुसंधान के क्रम में हमेशा मूल सामग्री का ही प्रयोग किया है. अपने एक पत्र में उन्होंने हमें लिखा है कि,“जिस विषय पर अबतक किसी ने नहीं लिखा अथवा जो लिखा गया वह भ्रान्तिपूर्ण था, उसी विषय पर मैं लिखता हूँ. हिन्दी साहित्य के इतिहास की टूटी कड़ियों को जोड़ने का काम मैं करता हूं.”

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‘देवनागरी लिपि आन्दोलन का इतिहास’,‘भारतेन्दुकाल के भूले-बिसरे कवि और उनका काव्य’,‘खड़ी बोली का पद्य’,‘भारतेन्दुकाल का अल्पज्ञात हिन्दी गद्य साहित्य’,‘देवनागरी लिपि और हिन्दी: संघर्षों की ऐतिहासिक यात्रा’ आदि उनके प्रमुख अनुसंधानपरक आलोचना ग्रंथ हैं. उन्होंने विश्वनाथ सिंह लिखित ‘आनंद रघुनंदन’ का संपादन किया हैऔर उसे हिन्दी का पहला नाटक माना है.अयोध्या प्रसाद खत्री, मोहनलाल महतो ‘वियोगी’ तथा बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ पर उन्होंने साहित्य अकादमी के लिए विनिबंध लिखा है.

‘भारतेन्दुकाल के भूले- बिसरे कवि और उनका काव्य’ नामक पुस्तक को नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी ने प्रकाशित किया है. इस पुस्तक की ‘प्रकाशिका’ सुधाकर पाण्डेय ने लिखी है. उन्होंने परिमलेन्दु जी के विद्या -व्यसन और अनुसंधान के प्रति उनके समर्पण और निष्ठा का उल्लेख करते हुए लिखा है,“गाँव-गाँव, मठ-मठ, भूतपूर्व नरेशों और जमींदारों के संग्रहों और पुस्तकालयों में वर्षों तक घूम- घूम कर उन्होंने इस काल के साहित्यकारों का अध्ययन किया है और उनका विशेष रूप से अध्ययन किया है जो हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों की दृष्टि से ओझल या अदृश्य रहे हैं.” ( प्रकाशिका, )

इसी तरह अपनी पुस्तक ‘खड़ी बोली का पद्य’ में परिमलेन्दु जी ने पर्याप्त प्रमाणों से साबित किया है कि “ महेश नारायण ( 1858-1907) की ‘स्वप्न’ शीर्षक लम्बी कविता खड़ी बोली हिन्दी में रचित सर्व प्रथम लम्बी कविता है.  ( भूमिका, पृष्ठ-8) इतना ही नहीं, उन्होंने अन्यत्र लिखा है,‘’खड़ी बोली का पद्य ( पहिला भाग )’ में महेश नारायण  की कविता ‘स्वप्न’  उनकी एक मात्र उपलब्ध कविता है. किन्तु मात्र एक कविता ही इस कवि को अमरत्व प्रदान करने के लिए यथेष्ठ है. हिन्दी कविता में मुक्त छंद का प्रथम प्रयोग ‘स्वप्न’ शीर्षक कविता में हुआ, जिसका प्रथम धारावाहिक प्रकाशन 1881 में पटना से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक पत्र  ‘बिहार बन्धु’ के  विभिन्न अंको में 13 अक्टूबर 1881 से 15 दिसंबर 1881 तक हुआ था.” ( (खड़ी बोली का पद्य, भूमिका, पृष्ठ- 18)

‘देवनागरी लिपि आन्दोलन का इतिहास’ 756 पृष्ठों का एक विशालकाय और इस विषय पर सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रंथ है जिसे साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया है. इस पुस्तक में देवनागरी लिपि आन्दोलन के इतिहास को प्रस्तुत किया गया है. यह भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन काल से अद्यतनकाल तक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में शासकीय और अशासकीय स्तरों पर देवनागरी लिपि के प्रचलन हेतु किए गए अहिंसक आन्दोलन का संपूर्ण दस्तावेज है.

इस “पुस्तक में स्वतंत्रता से पूर्व देशी रजवाड़ों में देवनागरी लिपि के प्रयोग एवं प्रचलन की प्रक्रिया, इस आन्दोलन में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध की प्रमुख हिन्दी पत्र- पत्रिकाओं की सक्रिय भूमिका और बिहार लिपि आन्दोलन के बारे में तो बताया ही गया है साथ ही देवनागरी लिपि के विषय में महात्मा गांधी के विचारों और उनके बाद काका कालेलकर, जवाहरलाल नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद तथा स्वतंत्रता के बाद विनोबा भावे के देवनागरी लिपि एवं विश्व नागरी सिद्धांत को अत्यंत प्रामाणिकता  के साथ प्रस्तुत किया गया है.

इस पुस्तक से पाठक राष्ट्रीय स्तर पर देवनागरी लिपि के प्रचलन, उन्नयन,संवर्धन और मानकीकरण हेतु किए गए भगीरथ प्रयत्नों और इससे राष्ट्रीय स्तर पर देवनागरी लिपि के सार्थक जनोपयोगी स्वरूप को व्यापक रूप से समझ सकेंगे. उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देवनागरी लिपि आन्दोलन, संपूर्ण राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न भारतीय भाषाओं के देवनागरी लिप्यंतरण हेतु हिन्दी और हिन्दीतर विचारकों, चिंतकों, लेखकों, न्यायविदों, बुद्धिजीवियों आदि की वैचारिक आन्दोलन-धर्मिता का लिखित प्रामाणिक विवरण इस ग्रंथ मेंउपलब्ध है. इस पुस्तक में उन्नीसवीं शती के अन्तिम चरण के विस्मृत हिन्दी नाटकों के अवदान का अनुशीलन भी किया गया है. बिहार का लिपि आन्दोलन एक अछूता विषय है, जिसका अध्ययन -अनुशीलन मूल रूप से बिहार के हिन्दी साप्ताहिक पत्र ‘बिहार बंधु’ के दुर्लभ अंकों तथा अन्य प्राथमिक स्रोतों के आधार पर पहली बार किया गया है. बिहार का लिपि आन्दोलन बिहारेतर क्षेत्रों से भिन्न और बिहारेतर लिपिआन्दोलन का प्रेरणा स्रोत था.”( फ्लैप से)

इस ग्रंथ की भूमिका के आरंभ में ही वे लिखते हैं,“ प्रस्तुत ग्रंथ किसी भी भाषा में लिखित देवनागरी लिपि आनंदोलन का सर्वप्रथम, सत्यनिष्ठ, प्रामाणिक और वस्तून्मुखी इतिहास है.” ( प्रस्तावना, पृष्ठ-7)

इसी तरह परिमलेन्दु जी ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल का ‘पहला हिन्दी साहित्य का इतिहास ( हिन्दी साहित्य का विकास)’ अपनी 42 पृष्ठ की भूमिका के साथ संपादित किया है. इस ग्रंथ से‘हिन्दी शब्द सागर’के संपादन और उसकी भूमिका लिखे जाने के दौरान छिपे अनेक रहस्यों, रोचक प्रसंगों तथा बाबू श्यामसुन्दर दास और आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बीच के संबंधों का पता चलता है.

निस्संदेह डॉ. रामनिरंजन परिमलेन्दु युग की प्रवृत्तियों से अलग अपने धुन में मगन रहने वाले सर्वथा भिन्न किस्म के अनुसंधानकर्ता थे. निधन के एक दिन पहले समाचार जानने के लिए मैंने उन्हें फोन किया था तभी मुझे उनकी बीमारी का पता चला. लेखन और अनुसंधान में उनकी अभिरुचि और जिजीविषा का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके निधन की पूर्व संध्या पर जब मैंने उन्हें फोन किया था तो उन्होंने अपना समाचार बताने की जगह मेरा समाचार, मेरे लेखन और मेरी एक प्रकाशनाधीन पुस्तक के बारे में जानना चाहा था.

उनके निधन से अनुसंधानपरक हिन्दी आलोचना की बडी क्षति हुई है. हिन्दी अनुसंधान और आलोचना के क्षेत्र में उनकी महान देन का हम स्मरण करते हैं और उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं.

(लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)

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