राजनीति का नाम सुनते ही अब घिन्न क्यों आती है

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25 जून भारतीय राजनीति में एक उल्लेखनीय तारीख है। इसी रोज 1975 में, तत्कालीन इंदिरा सरकार ने इमरजेंसी लगाई थी। दरअसल वह आपातकाल नहीं, आतंककाल था।
25 जून भारतीय राजनीति में एक उल्लेखनीय तारीख है। इसी रोज 1975 में, तत्कालीन इंदिरा सरकार ने इमरजेंसी लगाई थी। दरअसल वह आपातकाल नहीं, आतंककाल था।

राजनीति का नाम सुनते ही अब घिन्न आती है। लेकिन नयी पीढ़ी भले अनजान हो, सच यह है कि राजनीति में पहले ऐसे लोग भी हुए हैं, जिन्होंने एक आदर्श कायम किया है। मिल्लत, सहनशीलता, सौम्यता और सद्भाव के कई उदाहरण मिल जाएंगे। स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने धुर विरोध के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 1971 में पाकिस्तान औ बांग्लादेश के बंटवारे पर उन्हें दुर्गा कहा था। अटल जी ने राजीव और नेहरू के निधन पर अपनत्व का इजहार किया था। ऐसा ही एक दास्तान सुना रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल। उन्होंने इसे अपने फेसबुक वाल पर पोस्ट किया हैः

कल मैने अपने नाती को भगवती प्रसाद दीक्षित ‘घोड़ेवाला’ और मदनलाल ‘धरतीपकड़’ के किस्से सुनाए। मैने उसे बताया कि ‘घोड़ेवाला’ कानपुर और रायबरेली से लोकसभा चुनाव जरूर लड़ते थे। कानपुर से इसलिए क्योंकि वहाँ उनका टिन-शेड था। और रायबरेली इसलिए क्योंकि वहाँ से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी चुनाव लड़ती थीं।

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उनके ख़िलाफ़ दीक्षित जी अपने घोड़े पर सवार होकर वहाँ पहुँच जाते। अपनी धुतूरी (आवाज को लाउड करने वाला यंत्र) बजाते। एक बार दीक्षित जी वहाँ इंदिरा गांधी से चुनाव लड़ने के लिए नहीं गए, क्योंकि उनके पास सिक्योरिटी के ढाई सौ रुपये नहीं थे। संयोग से इंदिरा जी का कार्यक्रम कानपुर में लगा था। वे अपना उन्नाव दौरा ख़त्म कर गंगा पुल से कानपुर दाखिल हुईं।

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तब गंगा पर एक ही पुल था और इतना संकरा कि अगर उधर से गाड़ी आ रही है तो इधर का ट्रैफ़िक इधर ही रोक दिया जाता। इंदिरा गांधी जैसे ही पुल पार कर कानपुर आईं, दीक्षित जी ने अपना भोंपू बजाया। इंदिरा जी ने पूछा- कैसे हो दीक्षित जी? बोले- ठीक हूँ दीदी! इंदिरा जी ने अगला सवाल किया- अबकी रायबरेली से पर्चा नहीं भरा? दीक्षित जी ने कहा कि सिक्योरिटी की रकम का जुगाड़ नहीं हो पाया। इंदिरा गांधी ने अपने पीए राजेंद्र कुमार धवन से कहा कि मेरे पर्स से ढाई सौ रुपये निकाल कर दीक्षित जी को दो।

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