रमेश चंद्र की कहानीः बेज़ुबान                        

0
621

जनता एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय से घण्टे भर विलंब से चल रही थी। गोरखपुर गुजरा तो अपनी माटी की महक आने लगी। गंगा ने अंगुलियों पर हिसाब लगाया। सातवां टीशन आते-आते फ़रिछ होगा। बहत्तर रुपये बच गए थे। अब इतना में कोई का बहिनौरा जाय! मईया कह रही थी कि बहन देखने को छछनती है।

एक त लुधियाना रास न आया, दूसरे जमा-पूंजी रेल बाबू के हवाले चढ़ गई। धत, इत्ता भी कोई  फाईन मारता है! सब जतरा का फेर है। बाबू कहते थे- गंगा, ढोलक पर रियाज़ न छोड़ना। बाकी मइया को लगता, पंजाब-हरियाना में सोना-चानी झरता है। लो, अब झांपी भर  रखना। पांयतो करके चलने पर ई हाल! का जरूरी था नेमी काका का ऐन  मौके पर छींकना? सम्बलबाई से झुकी कमर लिए दौड़े चले आते हैं- बबुआ दही-गुड़ खाके जइहो। बची-खुची कसर ससुरी बिलाई ने रास्ता काट पूरा कर दिया। वरना, कारखाना काहे बन्द होता? आ दर्जा दू पास को कोई थोड़े मुंसिगिरी में रख लेगा? जा हो.. रेलबाबू, भला ना किये। बहतर से धनपत साव का पचहत्तर कैसे लौटेगा? रामबरन हजाम, बदरी तुरहा, भरदुल गोंड़, नकछेद चौधरी त देखते कपार पर चढ़ जाएंगे। बम सिंह से के अझुराए! हिसाब गड़बड़ाने लगा।

- Advertisement -

सतनारायण भगवान का परसादी थोड़े है कि तनिका-तनिका बांट दिया जाय! सोचते-सोचते कब टीशन उतरा, कब बेनीपुर की राह धरी, खेयाले ना रहा। अभी तीन कोस चलना था। तेलिया-नाला पार करते-करते  सुरुज महराज मुंहे चढ़ गए। गेहूं की दवरी-मिसनी हो चुकी थी। सगरी खेत उघार पड़े थे। ठंडी पुरवाई लहोर मारती थी। सामने बभनौली कोठी पड़ी। इहाँ शुक-सोमार को नामी बाजार लगता था। चाय-पानी के लिए मुफ़ीद जगह लगी।

बेनीपुर में घुसते ही मौला मियां से दुआ  सलाम हुआ। बहिन की शादी में इहे अगुवाई किए थे। सामने परदेसी पाहुन का घर था। गंगा को देखते दौड़ पड़े। यमुना भाई की आवाज़ सुन भागी आई और पैर पकड़ रोने लगी। गंगा खुद भी सुबुकने लगा। पाहुन मुस्कियाने लगे। चचिया ससुर बाबूराम की बेटी दौड़कर पितरिया थारी में पानी ले आई। उसने गंगा के दोनों पैरों को बड़े मन से मल-मल कर धोया, अंगुलियां पटकाई, फिर अपने आँचल से गीले पैर पोंछ दिए। यमुना पंखा झलती रही। गंगा ने इशारे से पूछा, ई के है? बहन फुसफुसाई- बाला बबुनी..चेचेरी ननद। वह मुंह में आँचर दाबे  धरती ताक रही थी। भगवान कुछ चेहरे फुरसत में बनाते हैं। गंगा देखा तो देखता ही रह गया। बाला, बला की खूबसूरत थी।

आज शंकर मिसिरजी बेटा ब्याह के लौटे हैं। मय बेनीपुर तीन दिन से बर-व्यस्था में लगा रहा। खूब भोज चला। बाकी, बिगुआ से कुछ जन नाराज़ थे। ससुरा पुड़ियो गिन के चलाता था। बुनिया त अइसे फेंकता कि चार दाना पत्तल पर त दू दाना बहरी गिरता। लगता, बाप की गंठरी कट रही हो। आठ बजे  शास्त्री जी का गीत-गवनई था। लयकारी में बड़ा नाम था। बाकी बिना तीन नमरी लिए डोलते न थे। आने-जाने के लिए सवारी अलग से।  सुर-साज व आवाज़ के धनी थे, सो बड़ी पूछ थी। दस कोस में कोई जोड़ न था, गाते तो मज़मा लग जाता। शास्त्री जी साज-सजिन्दा सहित सँझलौका होते-होते आ बिराजे। खातिरदारी खूब हुई । लोगों का आना  शुरू हो गया। तीने-चार गांव आते-आते भारी भीड़ जमा हो गई। हुआ कि जल्दी प्रोग्राम शुरू कर दिया जाय।  मिसिरजी तीनों भाइयों के साथ बैठे। बम्बई वाले फूफाजी के लिए गुदगर बिछावन हुआ। बगल में राँची वाले मामा जी पसर गए।

शास्त्री जी  साजिन्दा सहित मंच पर बैठे। झाल- झलवैया ठोक-ठाक करने लगे। तभी एक भारी पेंच खड़ा हो गया। अभी तक तबलची न पहुंचा था ।  इधर लोग शोर मचाने लगे। बेकाबू होती भीड़ देख शास्त्री जी खड़े हुए और हाथ जोड़ बोले-भाइयो, मेरा तबलची जिस ट्रेन से आ रहा है उ तनिका लेट है। आपलोगों में से अगर कोई तबला बजाना जानता हो तो आ जाय। थोड़ो बहुत संगत कर देगा तो मैं सम्भाल लूंगा। है कोई ? लोग अगल-बगल निहारने लगे,कोई न बोला। शास्त्री जी फिर दोहराए-भाई, अगर ढोलको बजाने वाला हो तो आ जाय, कम से कम लहरा तो मिला देगा। गंगा, परदेसी के साथ बैठा था। यमुना औरतों के गिरोह में थी। बाला घर अगोरने रह गई। जब कोई न उठा तो परदेसी ने गंगा को कहा-जा ना । गंगा सकपकाया लेकिन वे न माने और मंच पर चढ़ा  दिया।

शास्त्री जी देखे तो बड़ी खुश हुए। बोले-बबुआ, तीन ताल सोले मातरा बजा न लोगे ? गंगा ‘हां’ में सर हिलाया।  शास्त्री जी मने मन सोंचे- जबतक तबलची न आ जाय, कुछ न कुछ होता रहे। वरना, बेनीपुर वाले ढेलो फेंकना जानते  हैं। सो जल्दी हरमुनिया खोले, गंगा  कड़ी खीँच ढोलक ठीक करने लगा। भीड़ बैठने लगी। ढोलक चढ़ाने का अंदाजे देख शास्त्री जी को लगा कि बचवा सम्भाल लेगा। मय झलवहिया को हिदायत दी-देख भाई, नया लड़का है, मिला के बजाना । फिर..उनकी अंगुलियां हरमुनिया की पटरियों पर सरकने लगी। गंगा ने ताल पकड़ ढोलक ठोक दिया। शास्त्री जी को लगा,बन्दा काम का है सो जल्दिये लहरा खतम कर संगीत की गहराई में उतरने लगे। गंगा पीछा करने लगा। सुर और ताल का संगम होने लगा। दादरा की उठान में जब तिरकिट लगाया तो शास्त्री जी चौंके !  रूपक ताल में चक्करधार तिहाई बजाया तो लोग वाह-वाह कर उठे। कहरवा में तो कहरे बरपा दिया। फिर दुगुन,चौगुन और लगी..! झलवहिया पसीना पोंछने लगे। एक ताल पर ठेका मार बन्द किया तो भीड़ तालियां बजाने लगी। ढेर दिन बाद शास्त्री जी को कोई सामने से सीधी टक्कर दे रहा था। चाय-पानी के लिए विराम हुआ। शास्त्री जी पूछ बैठे-बाबू के बाड़ $ ? जी, हम परदेशी के साला..। मस्त मिसिरजी नीचे बैठे परदेसी की बांह पकड़ बगल में बैठा लिए। रात भर गीत-गवनई चलता रहा। भिखारी ठाकुर, रसूल मियां, मास्टर खलील, विद्यापति सभी गाए गए। पांच,दस करके ढेरों ईनाम आये। शास्त्री जी आज इतना मयगर हुए कि मय ईनाम गंगा को दे दिए। बेनीपुर में बहन-बहनोई का धाक जम गया। मिसिरजी की मां ने बड़ी श्रद्धा से  विदाई की। मिस-मिस के चलने वाले मामा जी को भी जेब ढीली करनी पड़ी।

शाम को परदेसी रोहू ले आये। बाला ने  बनाया। सार-बहनोई खाने बैठे। वाह,क्या मछली बनी थी ! यमुना छुटकी को सुलाने लगी सो खिलाने-पिलाने का काम बाला ने संभाला । गंगा बीच-बीच में पाहुन से नज़र बचा उसे ताक लेता था । खाकर परदेसी बथाने चल गए। बन्दा खाता रहा। बाला को अकेली देख मुस्कराया लेकिन वह बूत बनी  रही। दाल गलती न देख हार-पाछ के हाथ धोने उठा। वह लोटे से पानी गिराने लगी। अभी  एक्का बाकी था, सो फेंक दिया-तहके मालूम है बाला, ढोलकाही में रात हमके कितना पैसा मिला ? बाला चुप । अबकि झल्ला के बोला-रामजी जीभ-जबान दिए हैं कि ना ?   कोई उत्तर नहीं । हारा जुआरी हाथ पोंछने लगा। इसी बीच बाला पीछे से आई और भर लोटा पानी गंगा पर उढेल दी। वह छनक के कूदा और पकड़ने दौड़ा, बाला भाग गई। गंगा के मन में बताशे फूटने लगे । तभी यमुना बाहर आई- रे गंगा, बाला बबुनी पर पानी काहे डाला ? गंगा चौंका- मैंने कब डाला, मैं क्यों डालूंगा ..? अचानक अंदर से बाला  आई। उसके कपड़े भींगे थे। गंगा सोंच में पड़ गया ..!  बहन बोली-होली खेलना था तो माह भर पहले आते ! फिर हंसते हुए अंदर चली गई। बाप रे, चोरी आ सीनाजोरी? बाला बीस पड़ गई।

गंगा की नींद खुली तो सूरज पहर भर चढ़ चुका था। देखा, सामने कुंए से पानी लिए बाला आ रही थी। कपड़े गिले थे। बहन-बहनोई काम पर चले गए थे। छुटकी खेल रही थी। उजाले में उसने बाला को भर मन निहारा- भींगी फुफुती फदर-फदर  करती वह अंदर चली गई।

मिसिरजी के घर से गंगा की कई बार बुलाहट हुई । उसका हुनर व भोलापन  सबको भा गया। आज बम्बई वाले फूफाजी जा रहे थे। उन्होंने गंगा को काम दिलाने का वादा किया। जाती हुई फुआ ने गोड छुआई में इक्यावन  रुपए दिए और कहा- देख, अबकी पकिया टिकट लेकर ही रेल चढ़ना। वरना रेलबाबू..! सभी हँसने लगे। गंगा ने अनुमान लगाया- रामबरन,बदरी, भरदुल,नकछेद अउर बम सिंह की लेन-देन वापस करने के बाद भी बहतर बच रहे थे। आज ढोलक पर पहली बार प्यार आया ।

दोपहर से बेर झुकी तो गंगा घर के लिए तैयार होने लगा। ये पांच दिन कैसे गुज़रे,पता न चला। निकलते समय बाला नज़र न आई। पांच दिनों में वह चाह कर भी बाला से बात न कर सका था। इसका बड़ा मलाल था। जाना था, सो निकल पड़ा। गांव का सीमाना  पार करते-करते अचानक  बाला दिख गई । पोखर से पियरी माटी लिए लौट रही थी। गंगा जोर से चिल्लाया-बाला.. बाला..! लेकिन वह रुकी नहीं । गंगा फिर पुकारा।  वह चलती रही। साथ चल रही लड़कियाँ हंसने लगी। गंगा दौड़ कर पास गया। हंसते हुए  एक लड़की बोली-नाहक परेशान होते हो,पांच दिन  बेनीपुर में रहे,फिर भी न जान सके कि बाला बोल व सुन नहीं सकती ? बज्रपात हुआ गंगा पर। चौंका-क्यों ? क्योंकि वह गूंगी- बहरी है। और, लड़कियाँ पगडंडी पकड़े बढ़ गईं। गंगा को विश्वास न हुआ, भागा और लौट कर बहन के पास आया। हाँफते-हाँफते पूछा-दीदी,दीदी, क्या बाला गूंगी-बहरी है ? बहन हंसी- वह तो जन्मे से ऐसी  है। तुम अब तक न जाने ! यमुना ने भाई को  निहारा, लगा अभी उसकी रुलाई छूट पड़ेगी। फिर गंगा वहां एक पल भी  न रुका। सामने बाला  माथे से टोकरी उतार रही थी। गंगा को देख मुस्कराई और अंदर भाग गई।

कोई सात दिन बीते होंगें घर पर। मां ने गौर किया, गंगा कुछ खोया-खोया रहता है। सो, पूछ बैठी-क्या बात है बेटा, कुछ परेशान-सा दिखते हो? लेकिन गंगा टाल गया। ऐसा कोई पल न गुज़रा जब वह बाला के ख्यालों से ख़ाली रहा हो।

ठहरे हुए झील में उठी तरंगें जब  किनारों पर पहुंची तो यमुना के कान खड़े हुए। गंगा की घर वापसी से बाला का उदास चेहरा गवाही दे रहा था कि चोट एकतरफा नहीं थी । तो क्या, भाई बाला को अपना बना लेगा ? क्या मां इस बेजुबान बहु को स्वीकार करेगी ? ऐसे ढेरों सवाल ज़ेहन में उठे  जिनका फ़िल्वख्त कोई जवाब न था। उसने इन्तज़ार करना मुनासिब समझा। पति और पितिया तक इन बातों को नहीं जाने दिया ।

कोई दो माह बाद बम्बई से फूफा जी का तार मिला। हप्ते दिन में गंगा को जाना था। तीसरे दिन डेढ़ सौ रुपये मनीआर्डर से आए। परदेसी  ख़बर ले ससुराल पहुंचे। मईया बड़ी खुश  हुई। नेमी काका दौड़े आए और हिदायत दी – बबुआ पच्छिम का जतरा सोमारे-शनिचर को होता है। आज बियफे है, परसों चले जाना। लेकिन गंगा न रुका। उसी दिन बहनोई के साथ हो लिया। बेनीपुर पहुंचते-पहुंचते अँजोरिया उग आई। एक दम से दोनों दुआरे आ खड़े हुए। बाला सो गई थी। यमुना बेटी को सुला रही थी। गंगा ने सोई बाला को देखा,वह दूधिया चांदनी में ऐसी लगी मानो किसी संगतराश ने संगमरमर से  मोजस्समें को  निकाल तराशा  हो और कुछ काम कल पर छोड़ दिया हो.! इसके पहले कि बहन उसे देखती, उसने  नज़रें घुमा ली।

आठे बजे मिसिरजी मोटर लेकर आए। दसबजिया ट्रेन धरनी थी। काका कातर नज़रों गंगा को देख रहे थे। गंगा ने बहन-बहनोई के पैर छुए। बाबू थोड़ा दही खा लो, कहती यमुना, गंगा को आंगन ले आई। बोली- मैं जान चुकी हूं  गंगा, तुम बाला से..! तबतक हार्न बजा। बात अधूरी रह गई। गंगा ने बाला को देखा, उस बेजुबान परिंदे में जान न थी।

मुम्बई। फूफा के यहां रहते गंगा को तीन महीने गुज़र गए। अभी कहीं जोगाड़ न लगा। दिन भर  गाड़ियां आती-जाती, रात में बाला के सपने आते। एक दिन हिम्मत कर फूफा  से पूछा- कोई काम-धाम न मिला ! क्या करूँ ? फूफाजी मुस्कराए-दरअसल जिनसे बात हुई थी ओ बाहर निकल गए हैं। गंगा को आश्चर्य हुआ- बम्बई तो सबसे बाहर है, अब इहाँ से कोई कहाँ  बाहर जाता होगा !

यह भी पढ़ेंः साहित्य में सावन का आनंद देखिए नरेश मेहता की नजर से

फिर एक दिन फूफाजी दौड़े आये, गंगा जल्दी तैयार हो जाओ, आज काम पर चलना है। तैयार हो दोनों अंधेरी पहुँचे। ऊंची इमारतों के बीच महाराजा रिकार्डिंग स्टूडियो था। सर-सजावट तो ऐसे जैसे इंद्र भगवान का दरबार लगा हो। गंगा देखा तो देखता ही रह गया। हांलाकि फूफा ने ताक़ीद कर रखी थी,कहीं डीठ गड़ा के ताकना नहीं। फूफा जी ताक़ीद किए-गंगा, आज अगर टेस्ट में पास कर लिया तो समझो, जिनगी सवंर गई। दोनों स्टूडियो में घुसे। फूफाजी रसुख वाले लोग थे। जिसने भी देखा,सलाम किया। सामने भारी जीट-जाट में एगो जेंटलमैन बैठे थे। ये बर्मन साहेब थे। उन्होंने गंगा पर सरसरी नज़र दौड़ाई। बिना किसी लाग-लपाट के सवाल दागा-क्या-क्या बजा लेते हो? गंगा हाथ जोड़ बोला-जी, ढोलक,थोड़ा-बहुत तबला । वैसे मेरे बाबू जी पखावज बजाते थे,वह भी बजा लूंगा। बर्मन साहेब का दूसरा सवाल था-इसके पहले कहाँ-कहाँ  बजाए ? जी, होली,हरकीर्तन, अष्टयाम में मैं ही बजाता था। बर्मन जी के साथ फूफा भी मुस्कुराए। फिर उन्होंने कुछ रेकॉर्ड उतारे, उसे ग्रामोफोन पर चढ़ाया और गंगा को गीत  सुन ठेका का नाम बताने को कहा। रेकॉर्ड जैसे ही बजा, गंगा उछला-साहेब,ई दादरा,ई एक ताल का ठेका, ई रूपक ताल में चक्करधार तिहाई और..ई कहरवा..। रेकॉर्ड बन्द हुआ। बर्मन साहेब ताली बजाने लगे..वाह बेटा ! फिर फूफाजी की ओर मुख़ातिब हुए-भाय साहब, इस अनमोल हीरे को कहाँ छुपा रखे थे ? बर्मन साहेब ने गंगा की पीठ ठोकी और बोले- परसों आ जाओ, गीत रेकॉर्ड करते हैं। दोनों उठे।अरे हां, तूने अपना नाम नहीं बताया। ‘गंगा’..फूफा जी ही बोले और दोनों निकल गए। देखा गंगा,यहां पहले काम देखा जाता है। अगर काम पशन्द तो नाम भी पूछा लिया जाता है। यही बम्बई है प्यारे! पहले रुलाती है..फिर..। फूफाजी अपनी रौ में बोलते गए।

कहना न होगा,गंगा ने बर्मन साहेब का दिल जीत लिया। सनीमा के कई गीत रिकार्ड हुए जिसमें उसने ठेका बजाया। पहली कमाई मिली, आठ सौ रुपये। इतने बड़े-बड़े नोटों को एक साथ इसके पहले उसने हाथ में लेकर न देखा था। सो ईमान की तरह बचाकर लाया और फुआ के हाथ में रख दिया। फुआ बड़ी खुश हुईं।

और.. गंगा की गाड़ी चल पड़ी । साल लगते-लगते अच्छी जान-पहचान हो गई। कई जगह से बुलावा आने लगा। तब काजल एक उभरती  गायिका थी। इंडस्ट्री में उसके पैर जमने लगे  थे। हर पांचवी फ़िल्म में उसके गीत होते थे। अपना फ्लैट,अपनी गाड़ी, उसे सबकुछ थे। उस दिन किसी फिल्म की सिल्वर जुबली थी । लाइव कन्सर्ट प्रोग्राम था। फिल्मी दुनिया की बड़ी-बड़ी हस्तियां आ रही थी। आज मंच से काजल को परफर्म करना था। म्यूजिकल पार्टी में गंगा भी था। जब सितारों की जमघट हो गई तो कार्यक्रम शुरू हुआ। काजल ने गाने शुरू किए । ओह, क्या कशिश थी आवाज़ में ! लोग वाह,वाह कर उठे। गई रात तक गाना-बजाना चलता रहा। गंगा ने जान लगा दी। काजल गंगा से बड़ी प्रभावित हुई। फिर तो मिलने-जुलने का सिलसिला चल निकला।

कार्यक्रम के दौरान बजाते-बजाते गंगा जब उसकी तरफ़ देखता तो वह हंस देती। कभी वह मुस्कुराती तो गंगा हंस देता। मुस्कान,हंसी और हंसी कब प्यार में बदल गए, गंगा जान न सका। वह तो अपनी रौ में बहे जा रहा था। उस दिन काजल उसे छोड़ने आई। दोनों साथ कार से निकले। फूफा-फुआ साथ चाय पी रहे थे। साथ देख फुआ मुस्कुराई और फूफा से बोलीं-लो अब सम्भालो अपने गंगा को ! बात यहाँ तक पहुंच गई और हमें  ख़बर तक नहीं ! फूफा ठहाका लगाए। शायद उन्हें पहले से मालूम था। मायानगरी को बड़ी गहराई से जानते थे।काजल ने दोनों के पैर छुए और अपने बारे में विस्तार से बताया। इस बीच गंगा किसी काम से बाहर चला गया। काजल ने यह भी बता दिया कि वह गंगा को चाहती है और जैसे ही उसके मम्मी-पापा लन्दन से लौटेंगे वह शादी कर लेगी। फुआ कुछ कहें उसके पहले ही फूफा ने रिश्ते पर अपनी रज़ामन्दी ज़ाहिर कर दी। लेकिन, थोडा इन्तज़ार करने को कहा।

उधर यमुना के घर आज कुछ हित-कुटुंब आए हैं। परदेसी ने रात-दिन एक करके मेहमानों को बुलाया है। काका की एक ही ईच्छा है, कहीं किसी तरह बाला का ब्याह हो जाय तो चैन से मरें। बाला बुलाई गई। मेहमानों ने उससे ममहर के नाम पूछे। वह कुछ न बोली। दुबारा पूछा गया, वह खामोश रही। मेहमान भड़क गए-क्या आपकी बेटी गूंगी है जो बोलती नहीं ? परदेसी कुछ कहे उसके पहले बाबूराम हाथ जोड़ दिए-लेकिन सारा काम कर लेती है,सिलाई-कटाई सब कुछ। मेहमान पैर पटकते चले गए। बाला मुस्कुराई और टोकरी उठा काम पर चली गई।

गंगा,गंगा न रहा। बड़ा आदमी बन गया। ज़िन्दगी ने रफ़्तार पकड़े और पांच साल गुजर गए। गंगा कभी गांव न गया। यदा-कदा कुछ पैसे मईया वास्ते जरूर भेजा। काजल और गंगा की जोड़ी इंडस्ट्री में एक हिट जोड़ी के रूप में जानी जाने लगी।

आज शाम गंगा जब घर आया तो फुआ ने एक चिट्ठी थमाई । यमुना ने भेजा था : बाबू गंगा, खुश रहो। सुना है बड़े आदमी बन गए हो। और आगे जाओ तो और खुशी होगी। नेमी काका न रहे। मां दमे की रोगी हो गई। दिन-रात खांसती है। सुरेमनपुर के वैद्यजी की दवा चल रही है। अभी अपने पास बुला ली हूँ। तुम्हे देखने को लेकर मेरा प्रान खाई रहती है। इसीलिए मिसिरजी की मलकाइन से यह चिठी पेठा रही हूं। इसको चिठी नहीं तार समझना और जल्द आ जाना। और,हाँ, खुशी की बात एक और कि बाला का ब्याह परानपुर के पिताम्बरजी से होना करार पाई है। पाहुन पांच-छः बेटा, पतोह के मालिक हैं। कहते हैं बाला के आ जाने से बुढ़ापे का सहारा मिल जाएगा। तुम आओगे न..!

तुम्हारी बहन, यमुना, बेनीपुर।

उस रात गंगा सो न सका। ओ बुलन्दी किस काम की अपने पराए हो जांय? दम घुटती मां याद आने लगी। आज गंगा को एहसास हुआ,इतना कुछ पाकर भी वह ख़ाली है। कुछ नहीं है उसके पास..!

अहले सुबह उठा, फुआ-फूफा के पैर छुए और टिशन निकल गया। तीसरे दिन बेनीपुर पहुंचा। यमुना की नज़र पड़ी, उसे अपनी आंखों पर विश्वास न हुआ। लेकिन यह सच था,सामने भाई खड़ा था। दौड़ी और लिपट गई। मईया बेटा को देख जुड़ा गई। परदेशी और काका खुश हुए। चलो अच्छा हुआ,गंगा आ गया। अब ब्याह में हांथ बटाएगा। इतने में बाला पानी से भरी वही पितरिया थाली ले आई और उसके पैरों के पास बैठ गई। गंगा बहुत मुश्किल से बाला को पहचान पाया। बाला को देखकर ऐसा लगा, मानो ओ संगतराश उस मोजसमें को तराशने कभी लौटा ही नहीं ! और ओ मोजसमा उसका इन्तज़ार करते-करते खुद-बखुद टूट गई ! बाला ने  गंगा का पैर धोने के लिए पकड़ा ही था कि उसने अपने पैर खींच लिए। बाला देखती रह गई। यमुना से यह देखा  न गया। दौड़ के आई और भाई का हाथ पकड़ बाला के कमरे में ले गई।

माटी का घर। माटी की दीवारें। यमुना बोली- इन दीवारों को देख गंगा ! गंगा चौंका।पूरी दीवारें लकीरों से भरी पड़ी थीं। उसे कुछ समझ में न आया सो बहन से पूछा। ये सब क्या है ? यमुना ने कहा-ये लकीरें कुछ और नहीं, एक बेजुबान के जुबान हैं। गंगा बोला-मैं समझा नहीं। यमुना बताने लगी- बाला ने तुम्हारी याद में इन लकीरों को खींचा है। एक लकीर बीते हुए एक दिन को बताती है। जितनी लकीरें हैं,तुम उतने दिन बम्बई रहे। जिस दिन तूने बेनीपुर छोड़ा उसके दूसरे दिन से बाला ने लकीरें खींचनी शुरू कर दी।इस बेजुबान ने हर दिन एक लकीर खींचा। पहले मुझे भी समझ में न आया। लेकिन जब गौर करना शुरू किया तो कुछ-कुछ समझ में आने लगा। गंगा टूटने लगा। कातर हो पूछा-दीदी ये काली या उजली लकीरें क्या हैं ?यमुना बोली-भाई, ये अन्हरिया- अँजोरिया  हैं। पन्द्रह काली रेखाएं जब खींच जाती थीं तो बाला बेहिसाब खुश होती थी। मतलब आधा माह निकल गया। अब अँजोरिया आएगी। और उस अँजोरिया के साथ तुम भी आ जाओगे। लेकिन वह अँजोरिया आकर वापस चली जाती थी,फिर सामने अन्हरिया का ही आलम होता था। अब तो समझ गए न गंगा ? दीवार पर आड़ी-तिरछी खीचीं ये लकीरें कुछ और नहीं, सिर्फ बाला के इन्तज़ार हैं।  बताओ गंगा, बाला क्या बेजुबान है ? चक्कर आ गया गंगा को। बड़ी मुश्किल से खुद को संभाला। बोला-नहीं दीदी,बाला बेजुबान नहीं है। आज बाला ने मुहब्बत के मायने बता दिए, प्यार की बड़ी परिभाषा लिख गई। फिर बच्चों की तरह  बिलख-बिलख कर रोने लगा। छः साल से मायानगरी की पत्थरीली दीवारों में क़ैद  आसुओं को जब जगह मिली तो वे सारी सीमाओं को तोड़ बह चले। बहन भाई के हालात देख खुद भी टूट गई। एकबार फिर गंगा-यमुना की धाराएं एक हो गईं। बड़ी मुश्किल से दोनों चुप हो पाए। फिर झटके से गंगा खड़ा हुआ और बाहर निकला। सामने बाला खड़ी थी। गंगा बाला का सामना न कर सका। बहन को पुकारा। बहन भागी आयी। बोला-दीदी पाहुन से कह दो परानपुर से बारात न आएगी। फिर तेजी से निकला।बहन ने पूछा, कहाँ चले ?  पोस्ट- ऑफिस जा रहा हूँ। फूफा-फुआ व काजल को तार भेजने। मेरी शादी में उन्हें भी तो आना होगा ! फिर पीछे मुड़कर न ताका..! लेकिन,यमुना पीछे मुड़ी, देखा बाला जाते हुए गंगा को ही निहार रही थी। दौड़ी और  बाला को गले लगा लिया। बोली, मेरी प्यारी भाभी-आज से हम एक दूसरे के ननद और भावज दोनों हुए । पहली बार बाला सिसक-सिसक कर रोने लगी। यमुना ईशारे में बोली-अब क्या रोती है पगली ! फिर बाला हंसने लगी। मईया भी आई, परदेसी भी आए और काका भी आ गए। सबों ने देखा -बाला रो भी रही थी और हंस भी रही थी..!

- Advertisement -