माणिक सरकार के जाने के मायने

लोकतंत्र के संसदीय प्रणाली से विश्वास उठने की गुंजाइश बढ़ गई है, जो आने वाला समय में एक नए संघर्ष की ओर इशारा करता दिख रहा है।

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विशद कुमार
पत्रकार
तीन राज्यों में हुए विधानसभा के चुनावों मे त्रिपुरा में जो नतीजा आया हैं, हो सकता है देश के कुछ बुद्धिजीवियों को चौका रहा हो, मगर सच तो है कि यह नतीजा इस बात की ओर इशारा कर रहा है कि केवल ईमानदारी और सादगी जनता को पसंद इसलिए नहीं है कि अभी तक जनता में वह चेतना विकसित नहीं हो पाई है जो जनता को जाति, धर्म, क्षेत्र से उपर उठाकर विकास की असली परिभाषा समझा सके।
बताने की जरूरत नहीं है कि त्रिपुरा में पिछले 25 वर्षों से वामपंथ की सरकार में 20 साल से लगातार मुख्यमंत्री रहे 69 वर्षीय माणिक सरकार की सादगी ईमानदारी का मिसाल यह है कि उनके पास तो अपना मोबाईल है, अपना घर है, उनके पास कार है, इतना ही नहीं बैंक में उनका अपना कोई एकाउंट भी नहीं है। वे अपने दादा के एक छोटे से पुराने मकान में अपनी पत्नी पांचाली भट्टाचार्या के साथ रहते हैं। पंचाली सोशल वेलफेयर बोर्ड की कर्मचारी रही हैं जो 2011 में सेवानिवृत हो चुकी हैं। वे भी सरकार के साथ सादगी के साथ रहती हैं। वे बाजार वगैरह रिक्शे से जाती हैं, जो इस देश में एक मिशाल है।
25 लाखवोटरों में 89.8 प्रतिशत वोट वोट पड़े। चुनाव में मुद्दों के तौर पर एक तरफ माणिक सरकार की ईमानदारी सादगी के बीच उनके द्वारा किए गए विकास की तस्वीर थी तो दूसरी तरफ भाजपा का फासीवादी दहाड़ के साथ मोदी का तिकड़मी वाक् जाल। जाहिर है फासीवादी दहाड़ के साथ मोदी का तिकड़मी वाक् जाल की जीत हुई। त्रिपुरा की जनता भी विभ्रम में फंस गई।
ताते चलें कि 25 लाख वोटरों में 30 प्रतिशत दिवासी वोटर और 70 प्रतिशत बंगाली एवं अन्य हैं। आदिवासियों का एक क्षेत्रीय दल है इंडीजिनस पीपुल्स फ्रंट आॅफ त्रिपुरा जो पिछले वर्षों से अलग त्रिपुरालैंड की मांग कर रहा है। भाजपा ने उसी के साथ चुनावी गठबंधन किया। कुल 60 सीटों में भाजपा 51 और इंडीजिनस पीपुल्स फ्रंट आॅफ त्रिपुरा 9 सीटों पर चुनावी मैदान में रहे।

 

हना ना होगा कि त्रिपुरा में 25 वर्षों से अपनी जड़ें जमाए वामपंथ की हार से पूरे देश में वामपंथी चेतना को काफी झटका लगा है, वहीं यहां भाजपा के जीरो से हीरो बनने पर देश में फासीवाद का सिर चढ़कर नाचने का खतरा बढ़ता नजर रहा है, वहीं दूसरी तरफ माणिक सरकार की ईमानदारी एवं सादगी के इस ईनाम से वामपंथी समझ के बीच भारतीय लोकतंत्र के संसदीय प्रणाली से विश्वास उठने की गुंजाइश बढ़ गई है, जो आने वाला समय में एक नए संघर्ष की ओर इशारा करता दिख रहा है।
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