मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में आसान नहीं दिखती भाजपा की राह

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  • भोपाल से बब्बन सिंह

अगर आप मध्य प्रदेश में निवास करते हैं और सूचनाओं के लिए केवल मुख्य धारा की मीडिया पर निर्भर हैं तो कई बार लगेगा कि तमाम झंझावातों के बावजूद इस बार का विधानसभा चुनाव भी भाजपा ही जीत रही है। इसके पीछे दिए जाने वाले तर्कों में भी बहुत दम नजर आता है। मसलन, बहुकोणीय चुनावों में सत्ता में रही पार्टियों के जीतने का इतिहास रहा है। सत्ता विरोधी लहर होने के बावजूद पिछले चुनाव भी गुटों में बंटी होने के कारण मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस हार गई थी। इसी तरह तमाम विरोधी दावों को धता बता कर भाजपा ने 2008 के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस को हराया। आदि-आदि। लेकिन इस बात की सच्चाई जानने के लिए हमें कुछ अन्य तथ्यों पर भी सोच-विचार करना चाहिए।

कॉर्पोरेट दुनिया के पदचिन्हों पर तेजी से अग्रसर भाजपा के पास आज मोदी और अमित शाह जैसे भारत के सफल ब्रांड नेतृत्व है, जो भाजपा व संघ के विशाल संगठन नेटवर्क व हालिया कई चुनावों में जीत हासिल कर गर्व से फूले नहीं समा रहा है। ऐसे में भाजपा समर्थकों के इस सोच में कोई दोष नहीं झलकता कि मध्य प्रदेश जैसे संघ की प्रायोगिक भूमि पर तमाम कमियों के बावजूद वे हारती बाजी भी पलट सकते हैं। वैसे भी हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और संघ की जबरदस्त सामाजिक उपस्थिति में भाजपा की इस सोच पर किसी को एतराज नहीं होना चाहिए। इतिहास गवाह है कि इस तरह की सोच या सपना लोकतंत्र के इतिहास में तमाम दलों को होता रहा है। 2014 के संसदीय चुनावों को याद करें तो क्या कांग्रेस भी इसी तरह की सपने में नहीं जी रही थी? मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार पर लगते भ्रष्टाचार व कुशासन के आरोप तब के कांग्रेस सरकार पर लग रहे आरोपों से किस पैमाने पर अलग है? कदाचित कांग्रेस पूरे देश पर शासन कर रही थी, जबकि शिवराज का शासन केवल एक प्रदेश तक सीमित है।

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कांग्रेस के 60 साल के भ्रष्टाचार व कुशासन के बदले भाजपा के भ्रष्टाचार व कुशासन की अवधि अभी 15 साल से ऊपर नहीं है, लेकिन ऐसे सवालों के परिप्रेक्ष्य में एक बात ध्यान में आती है कि क्या तेजी से विकसित होते भारतीय लोकतंत्र में पूरी दुनिया की तरह समय का अंतराल अब छोटा नहीं हो रहा है? अगर आज मध्यवर्गीय युवा को एक अदद नौकरी मिलती है तो उसे अगले ही दिन घर या कार लेना होता है। इसलिए उसका काम 5-10 फीसद वेतन बढ़ोतरी से नहीं चलता। उसे 20 से 40 फीसद की वेतन वृद्धि चाहिए। क्या 20वीं सदी के पचास या साठ के दशक से आज की तुलना हो सकती है? तब दिल्ली या भोपाल से निकली संदेश या खबरों को देश के कोने-कोने तक पहुंचने में सप्ताह-पखवारे भी नहीं लगते  थे। क्या आज प्रदेश में ही भाजपा 2 करोड़ से ज्यादा लोगों को घंटे भर में (व्हाट्सअप के जरिए) अपना संदेश नहीं दे रही? ऐसे में यह भी सवाल उठता है कि लोकतंत्र की किसी इकाई में कैसे कोई पार्टी अपने तमाम सीमाओं को छुपा 20-30 साल शासन करने का सपना देख सकती है,  लेकिन मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस की स्थिति देखते हुए सत्ताधारी दल के समर्थकों की इस सोच पर भी ऐतराज नहीं होना चाहिए।

भारत को कॉर्पोरेट इंडिया बनाने वाली कांग्रेस में न इसके गुण हैं, न चुनाव जीतने का माद्दा। इसके पास न मोदी जैसा ब्रांड नेतृत्व है और न संघ जैसा सामाजिक-सांस्कृतिक अनुषंगी संगठन। इसके पास शिवराज जैसा लोकप्रिय नेता भी नहीं है, न ही अमित शाह जैसा पार्टी अध्यक्ष। इसके पास न आज देश भर में शासन करने की भाजपा जैसी हैसियत है, न चुनाव जीतने के लिए वैसी धन-बल की शक्ति। आदि-आदि।

हालांकि यहां यह भी सवाल उठता है कि क्या केवल इन्हीं पैमानों पर किसी लोकतंत्र में सत्ता जीती जाती है? इतिहास बताता है कि ऐसे भरपूर संसाधनों के बावजूद सियासी दल चुनाव हारते रहे हैं। क्या 1977 और 2014 का चुनाव स्वयं कांग्रेस नहीं हारी?

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अब कुछ और तथ्यों पर बात कर लें। देश व प्रदेश में ब्रांड मोदी व शिवराज की गिरती प्रतिष्ठा और सरकार की आर्थिक और कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर लगातार असफलता से मध्य प्रदेश में भाजपा की स्थिति खराब है। दूसरी ओर, अध्यक्ष पद पर बैठने के बाद से राहुल गांधी की अति सक्रियता खासतौर पर प्रदेश में देखते हुए, लगता है कि भाजपा के लिए मध्य प्रदेश का यह चुनाव पिछले चुनावों से ज्यादा खराब है। खबरों के मुताबिक़ आसन्न हार के डर से भाजपा व संघ के सर्वे के आधार पर 70 से ज्यादा विधायकों के टिकट काटे जा रहे हैं। पार्टी को उम्मीद है कि नए फेस से सत्ता विरोधी लहर को कम किया जा सकता है। अतीत में भी भाजपा ने इस आधार पर अपनी कई सीटें बचाई हैं, लेकिन महंगाई और रोजगार दो ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर केंद्र की सरकार के बड़े-बड़े दावों के बावजूद बहुत कुछ नहीं हुआ है। मध्य वर्ग के लिए ये दोनों बेहद अहम हैं, जिन पर मध्य प्रदेश में भी खासा असंतुष्टि देखी जा सकती है। 2014 के संसदीय चुनाव में इन दो मुद्दों पर भाजपा को जबरदस्त समर्थन मिला था और वह दो संसदीय सीटों को छोड़ समस्त सीटें जीतने में कामयाब रही थी। लेकिन इस बार प्रदेश के चुनाव में ये दो मुद्दे मतदाताओं के सामने अहम हैं। भाजपा के पास इसके लिए कोई समुचित उत्तर नहीं है। इसलिए वह मतदाताओं को अन्य मुद्दों पर उलझाना चाहती है। अगर कांग्रेस इन दोनों मुद्दों को सही परिप्रेक्ष्य में आम जनता के बीच लाने में सफल रहती है तो उसके हाथ में बाजी आने से कोई रोक नहीं सकता। 2003 में दालितों के लिए दिग्विजय सरकार की अति सक्रियता ने चुनाव की दिशा बदली थी। भाजपा ने पिछड़े वर्ग से आने वाली उमा भारती को सामने रख और बिजली-सड़क मुद्दे को उठा कर कांग्रेस से सत्ता छीन ली थी। इसलिए 15 साल के भाजपा शासन में लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की पृष्ठभूमि में कांग्रेस महंगाई और रोजगार के मुद्दे को आगे कर चुनाव लड़ती है तो कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि भाजपा के लिए सत्ता की राह आसान नहीं होगी।

फिलहाल मध्य प्रदेश में कांग्रेस अपने कुछेक नेताओं के स्थानीय जनाधार और दूसरी पार्टियों से दल-बदलू नेताओं के भरोसे ही चुनाव लड़ रही है, लेकिन यदि यह एक कमजोरी है तो दूसरी ओर भाजपा के 15 साल के शासन की कारगुजारियों के कारण मजबूती भी है। चुनावों में जब भी कोई लहर नहीं होती तो उम्मीदवार महत्वपूर्ण हो जाता है। ऐसे में देखने की बात केवल यह है कि कांग्रेस चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में कैसे आमलोगों तक भाजपा सरकार की इन तमाम कमियों को पहुंचा पाती है।

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हालांकि सोशल मीडिया पर कांग्रेस ने बहुत हद तक अपनी कमजोरी दूर कर ली है और भाजपा को जबरदस्त टक्कर दे रही है, लेकिन राज्य में गांव-गांव बूथ मैनेजमेंट के मामले में यह भाजपा से काफी पीछे है। इसी तरह प्रदेश में कांग्रेस नेतृत्व कई गुटों में बंटा हुआ है। इसलिए नेतृत्व के लिए कांग्रेस अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी पर ही निर्भर है। हालांकि यह बात भी सच है कि प्रदेश में भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों के बावजूद शिवराज सिंह आम जनता में पक्ष-विपक्ष के तमाम नेताओं में सर्वाधिक लोकप्रिय बने हुए हैं। पर, भाजपा के अपने कैडर में उनके खिलाफ ज्यादा आक्रोश है और पिछले दो चुनावों की तुलना में कर्मचारी वर्ग में भी आक्रोश बढ़ा हुआ है। इसलिए उनका रास्ता उतना आसान नहीं, जितना भाजपा समर्थक लोग दावा करे रहे हैं। सरकार में होने के कारण शिवराज के पास प्रचार-प्रसार के लिए ज्यादा लाव-लश्कर हैं और उसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निष्ठावान कार्यकर्ताओं का साथ भी है। इसलिए ऊपरी तौर पर भाजपा की दावेदारी ज्यादा मजबूत बताई जा रही है, लेकिन पिछले एक महीने में शिवराज की जन आशीर्वाद यात्रा हो या भोपाल में आयोजित कार्यकर्ता महाकुंभ, दावों के विपरीत बहुत कम संख्या में लोगों की उपस्थिति इस बात को पुष्ट करती है कि अब उनके पास भी वह जादू नहीं है, जो पिछले चुनावों में था।

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