बुरे वक्त में भी लालू की राजनीति कभी शून्य पर नहीं रही

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लालू रिहा होंगे, यह फैसला महाधिवक्ता की राय पर निर्भर
लालू रिहा होंगे, यह फैसला महाधिवक्ता की राय पर निर्भर

लालू की राजनीति बुरे वक़्त में भी शून्य पर कभी नहीं रही। यह तो विरोधी भी मानते हैं कि लालू न सिर्फ़ बिहार की राजनीति, बल्कि भारतीय राजनीति के भी एक ऐसे नेता रहे हैं, जो बार-बार पटखनिया खाने के बाद भी उठ खड़े होते हैं।

2010 के बिहार विधान सभा चुनाव के दरमियान मैं तब मौर्य टीवी में पॉलिटिकल एडिटर था। अपने एक शो ‘चलते-चलते’ में तब के जाने माने चुनाव विश्लेषक योगेन्द्र यादव से ‘वाक एंड द टाक’ कर रहा था। योगेन्द्र ने कहा कि कौन जीतेगा कौन हारेगा, इस चुनाव में ये कोई मतलब नहीं रखता। एक लाइन की बात है कि ये चुनाव किसी दल या गठबंधन का नहीं, ये चुनाव तो नीतीश कुमार का है।

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मैंने पूछा तो क्या आप ये कह रहे हैं कि बिहार की राजनीति में अब लालू प्रसाद जैसे नेता के दिन भी लद गये!…योगेन्द्र यादव ने तब कहा था कि… ये चुनाव तो नीतीश का है, बस। किसी और की बात करना ही फ़िज़ूल है। आप लालू प्रसाद की बात करेंगे तो मैं इतना ही कहूंगा कि लालू तो गाँव-टोले के लोकल अखाड़े के वैसे पहलवान हैं, जो पटका जाता है और फ़िर धूल-धाल झाड़ कर खड़ा हो जाता है।…और सेफ़ोलोजिस्ट योगेन्द्र हंसने लगे थे।

लालू को कभी नीतीश कुमार के साथ घेरने और फिर उनके सामाजिक न्याय के सियासी हमसफर भी रहने वाले समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी अक्सर चर्चा में कह जाते हैं कि…”लालू एक लड़ाका हैं और सरोकार के मामले में बड़े मास लीडर… जो लड़ता है, हिम्मत नहीं हारता और यही लालू प्रसाद की बड़ी राजनीतिक पूंजी है, जो उनके विरोधियों में नहीं दिखाई पड़ती।”

पिछले 2014 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी के उदय और लहर के साथ लालू-नीतीश सबकी मुश्किलें बढ़ीं। तब नीतीश बीजेपी से दामन छुड़ा मोदी विरोध की सवारी कर रहे थे, लेकिन लालू से भी मुक़ाबिल थे। 2014 की उस मोदी लहर और बिहार में नीतीश की सरकार होने के बावजूद लालू 2009 की तरह चार लोकसभा सीट जीतें, जबकि नीतीश 2009 में जीती अपनी 20 सीटों से 2014 में दो सीट पर आ गए। ये बताता है कि लालू प्रसाद की राजनीति बुरे वक़्त में भी शून्य पर नहीं रही।

2015 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू-कांग्रेस-आरजेडी के महागठबंधन ने लालू की राजनीतिक ताक़त को नए सिरे से मजबूत कर दिया। इसमेँ कोई दो राय नहीं कि एक बार फिर से लालू को इनकार कर बिहार में कोई राजनीति नहीं हो सकती। महागठबंधन टूटने और नीतीश के लालू से अलग हो जाने के बावजूद लालू की ताक़त बनी हुई है। यह लगातार हुए उपचुनावों के परिणाम ने भी साबित कर दिया। जेल में होने के बावजूद ये लालू के पुनर्जीवित हुए वोट बैंक का ही करिश्मा कहा जाएगा कि तेजस्वी की सुल्तानी में आरजेडी ने एक-एक कर अररिया की लोकसभा और जहानाबाद, जोकीहाट की विधानसभा सीटों को जीत लिया।

एक बार फिर से लालू का पुराना ‘माय’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण ज़िंदा होता दिखने लगा है, बल्कि नीतीश कुमार जो दलित-महादलित और अत्यंत पिछड़ों का ठोस वोट बैंक बना पाए थे, उसका भी एक हिस्सा लालू के पास आता दिख रहा है।

लालू प्रसाद हमेशा से जनाधार के नेता रहे हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह उनकी भी मास अपील वोटरों को खींचने वाली रही है। जेल में ही सही, लालू कई तरीके अपना कर अपनी ये मास अपील बनाए हुए हैं, जिसका राजनीतिक लाभ आरजेडी को मिलने से इनकार नहीं किया जा सकता। अलबत्ता ये भी सच है कि लालू जेल से बाहर होते हैं तो रोजमर्रे की राष्ट्रीय सियासत तक में सीधे मुठभेड़ करते होते हैं, जिसका लाभ आरजेडी को मिलता रहता है। हालांकि तेजस्वी यादव बड़ी तेजी से उसकी भरपाई करते दिखने लगे हैं।

जेल और ज़मानत की बंदिशों के बीच 2019 की चुनावी सभाओं में भी नरेन्द्र मोदी के मुक़ाबले लालू की सभाओं का न होना बीजेपी को निःसंदेह लाभ पहुंचाएगा। इस लाभ का बीजेपी को भी खूब भान है। पर, जिस तरह राजनीति कच्चा कुंआ होती है, जहां कब कौन किसके साथ पानी भरने पहुँच जायेगा, कहा नहीं जा सकता। उसी तरह लालू उस कच्चे कुंए के पास खड़े जैसे खैरा पीपल हैं। जिसके बारे में लालू प्रसाद ही सदा सर्वदा कहते रहे हैं कि… “खैरा पीपर (पीपल) कभी न डोले!”

  • नवेंदु (वरिष्ठ पत्रकार) के फेसबुक वाल से

 

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