फणीश्वरनाथ रेणु के व्यक्तित्व में विनम्रता स्वाभाविक छंद था

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फणीश्वरनाथ रेणु मानवीयता को स्थापित करने के लिए संघर्ष करने वाले लेखक हैं। वे भारतीयता का एक चेहरा हैं। एक अकेली आवाज हैं।
फणीश्वरनाथ रेणु मानवीयता को स्थापित करने के लिए संघर्ष करने वाले लेखक हैं। वे भारतीयता का एक चेहरा हैं। एक अकेली आवाज हैं।
  • भारत यायावर 
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फणीश्वरनाथ रेणु के व्यक्तित्व में विनम्रता और सहजता स्वाभाविक छंद था। उन्हें आक्रोश और गुस्से में देखना दुर्लभ संयोग था। वे मुश्किलों में और संकटों से घिरे रहते थे। राजेन्द्र यादव को एक पत्र में उन्होंने लिखा था, “अब परेशानियों से परेशान नहीं होता।” उनमें गज़ब की सहनशीलता थी। किसी के प्रति कटुता का भाव नहीँ।

उनके पटना में मित्र थे उदयराज सिंह। वे ‘नई धारा’ पत्रिका के संपादक थे। उनके पिता राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक दौर के कथाकार थे। वे एक बार उदयराज सिंह से मिलने गए थे और उनसे गपशप कर रहे थे। उनके पिता राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह पास ही बैठे थे। उन्होंने दुखी होकर कहा, “अब हमलोगों को कोई पूछता ही नहीं है!” रेणु जी उनके पास गए और उनके चरणों पर मस्तक रख दिया। फिर बोले, “आप हैं, तब हम लोग हैं। आपकी पीढ़ी ने हिन्दी कहानियों की परम्परा शुरू की, तभी उस पर चलकर हम कुछ लिख पा रहे हैं। आप हमारी पीढ़ी के पिता स्वरूप हैं।”

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राजा साहब की आँखों से नीर टपकने लगा। ऐसी बात उनसे अभी तक किसी ने नहीं कही थी। उपेक्षित राजा साहब के निष्प्राण शरीर में प्राण फूंक देने वाले फणीश्वरनाथ रेणु पहले व्यक्ति थे। उदयराज सिंह को सभी शिवाजी कहते थे। इस प्रकरण को जब वे मुझे बता रहे थे, तब वे भी भावप्रवण थे।

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यह रेणु की विनम्रता थी, जो सहज स्वाभाविक थी। कहीं से ओढ़ी हुई नहीं थी। वे अपने पूर्ववर्ती लेखकों का बेहद सम्मान करते थे। उग्र, यशपाल, जैनेन्द्र, अज्ञेय, अश्क, त्रिलोचन पर तो लिखकर उन्होंने सम्मान प्रकट किया ही है। नागार्जुन को तो वे सदैव बड़े भाई का आदर देते थे। साथ ही साथ साधारण मनुष्यों के प्रति लगाव तो उनका जग जाहिर था। इस प्रसंग में शिवाजी का बताया यह प्रसंग मुझे बेहद उद्वेलित करता रहा है।

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‘नई धारा’ में उनके सहयोगी थे विजय मोहन सिंह। वे कथाकार और आलोचक दोनों थे। 1966 ई. में आरा में कथाकारों का एक बड़ा सम्मेलन विजय मोहन सिंह ने करवाया था। उसमें कमलेश्वर भी आए थे। शिवाजी और विजय मोहन सिंह ने कमलेश्वर से आग्रह किया कि ‘नई धारा’ के कहानी-विशेषांक का संपादन वे करें। कमलेश्वर ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहानीकारों की एक सूची बनाई, जिसमें रेणु का भी नाम था। विजय मोहन सिंह ने एक पत्र ‘नई धारा’ की ओर से उन्हें दिया और एक महीने में कहानी देने को कहा। रेणु ने अपनी स्वीकृति भी दे दी।

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सभी कहानीकारों की कहानियाँ आ गईं, पर रेणु की कहानी नहीं मिल पाई। कमलेश्वर ने कहा कि रेणु की कहानी इस विशेषांक में रहना आवश्यक है। विजय मोहन सिंह जब रेणु के घर गए, तब लतिका जी से मालूम हुआ कि रेणु जी तो गाँव चले गए हैं। उन्होंने शिवाजी को जब बताया तो वे भी चिंतित हुए। उन्होंने अपने प्रकाशन अशोक प्रेस के एक कम्पोजिटर को रेणु के गाँव एक पत्र लिखकर भेज दिया।

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वह बेचारा बहुत मुश्किल से रेणु के गाँव औराही-हिंगना पहुँचा तो उसका दम फूल चुका था। रेणु ने कहा, “कहानी तो मैं आधी लिख चुका हूँ। लेकिन पूरा करने में कम-से-कम तीन दिन और लगेंगे। आपको तब तक रूकना पड़ेगा। ” रेणु उसे अपने साथ बैठकर खाना खिलाते। साथ ही सुलाते। उस साधारण आदमी का इतना मान-सम्मान पहली बार हो रहा था। रेणु ने कहानी लिखकर उसे दी और टप्परगाड़ी पर अपने साथ बिठाकर स्टेशन तक छोड़ने गए। पटना लौटकर उसने बताया और जिन्दगी भर लोगों को बताता रहा कि उसने रेणु के जैसा बढिया नहीं देखा। वह कई-कई लेखकों से मिल चुका था और अपना अनुभव बताता कि लेखक बहुत हैं, लेकिन रेणु जी जैसा आदमी मिलना मुश्किल है।

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‘नई धारा’ का कमलेश्वर के संपादन में कहानी-विशेषांक छपा और वह ऐतिहासिक महत्त्व का साबित हुआ। उसमें रेणु की ‘विघटन के क्षण’ नामक कहानी पहली बार छपी और साहित्यिक जगत के सभी प्रमुख साहित्यकारों ने माना कि यह इस अंक की सर्वश्रेष्ठ कहानी है।

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