नीरज जी को सुनने के लिए सुबह तक जमावड़ा अब भी याद आता है

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  • राजेंद्र तिवारी

नीरज जी को श्रद्धांजलि…..बचपन में मैं और मेरे बड़े भाई नीरज जी को सुनने के लिए दशहरे के मेले में सुबह तक जमे रहते थे क्योंकि नीरज जी सबसे बाद में कविता पढ़ते थे…वे बीसवीं सदी के सत्तर के दशक के दिन थे। हम गांव से शहर आते थे उनको सुनने कंबल-लोई लेकर। रात भर मेला मैदान में जमे रहते थे भले ही कितनी ठंड हो। तब दशहरे के दिनों में ही ठंड पड़नी शुरू हो जाती थी। दिन की हवा सूखी-सूखी और रात में झुरझुरी वाली ठंड। सब बदल गया….अब न रहे वे पढ़ने वाले और न रहे वो सुनने वाले…..और मौसम भी तो नहीं रहा।

जिन दो कविताओं के लिए उनका इंतजार रहता था– पहली कविता की अंतिम लाइन थी – मैंने सोचा कि मेरे देश की हालत क्या है/एक कातिल से तभी मेरी मुलाकात हुई। और दूसरी कविता – कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे।

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1.
अब के सावन में ये शरारत मेरे साथ हुई,
मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई.

आप मत पूछिए क्या हम पे सफ़र में गुजरी?
था लुटेरों का जहाँ गाँव वहीं रात हुई.

ज़िंदगी-भर तो हुई गुफ़्तगू गैरों से मगर,
आज तक हमसे न हमारी मुलाक़ात हुई.

हर गलत मोड़ पे टोका है किसी ने मुझको,
एक आवाज़ जब से तेरी मेरे साथ हुई.

मैंने सोचा कि मेरे देश की हालत क्या है,
एक कातिल से तभी मेरी मुलाक़ात हुई.

2.
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लूट गये सिंगार सभी बाग के बबूल से
और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे

नींद भी खुली ना थी के हाय धूप ढल गयी
पाँव जब तलक़ उठे के ज़िंदगी फिसल गयी
पात-पात झर गये के शाख-शाख जल गयी,
चाह तो निकल सकी ना, पर उमर निकल गयी
गीत अश्क बन गये, स्वप्न हो दफ़न गये,
साथ के सभी दिए धुआँ पहन पहन गये,
और हम झुके-झुके, मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे

क्या शबाब था के फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या कमाल था के देख आईना सहर उठा
इस तरफ ज़मीन और आसमां उधर उठा
थाम कर जिगर उठा के जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहाँ, ऐसी कुछ हवा चली
लूट गयी कली-कली के घुट गयी गली-गली,
और हम लूटे-लूटे, वक़्त से पीटे पीटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे

हाथ थे मिले के ज़ुल्फ़ चाँद की संवार दूँ
होंठ थे खुले के हर बहार को पुकार दूँ
दर्द था दिया गया के हर दुखी को प्यार दूँ
और सांस यूँ के स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ
हो सका ना कुछ मगर, शाम बन गयी सहर,
वो उठी लहर के ढह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे, नीर नैन में भरे,
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे

माँग भर चली के एक जब नयी-नयी किरण
ढोलके धुनक उठी, धूमक उठे चरण-चरण
शोर मच गया के लो चली दुल्हन, चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन
पर तभी ज़हर भरी, गाज़ एक वह गिरी,
पूछ गया सिंदूर, तार-तार हुई चूनरी
और हम अज़ान से, दूर के मकान से,
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे

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