‘दुखाँ दी कटोरी : सुखाँ दा छल्ला’- प्रो. रूपा सिंह की अद्भुत कथा-यात्रा

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'दुखाँ दी कटोरी : सुखाँ दा छल्ला'- प्रो. रूपा सिंह की अद्भुत कहानी है।
'दुखाँ दी कटोरी : सुखाँ दा छल्ला'- प्रो. रूपा सिंह की अद्भुत कहानी है।

दुखाँ दी कटोरी : सुखाँ दा छल्ला– प्रो. रूपा सिंह की अद्भुत कहानी है। इस कहानी के बहाने प्रो. मंगला रानी ने रूपा के कथा संसार पर चर्चा की है। मंगला रानी पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय, पटना में प्रोफेसर हैं। साहित्यिक शैक्षणिक माहौल में पली-बढ़ीं मंगला ने प्रो. रूपा सिंह की कथा-यात्रा को अद्भुत करार दिया है। आप भी पढ़ेः

  • प्रो.मंगला रानी,
प्रो. मंगला रानी
प्रो. मंगला रानी

सुदूर राजस्थान के अलवर की एक तेजतर्रार प्रोफेसर, साहित्य की ‘कहानी-विधा’ के विशाल आकाश में धूमकेतु सी छा चुकी है। कथा-जगत के पुरोधाओं से लेकर एक सामान्य पाठक तक को चौंका चुकी है ‘हंस’ में प्रो. रूपा सिंह की सद्यः प्रकाशित कहानी ‘दुखाँ दी कटोरी : सुखाँ दा छल्ला’। आज सामान्यतया किसी कहानी का छपना इतनी बड़ी घटना नहीं, किंतु हीरे को चमकने से कौन रोक सका है! मुझे भी अवसर मिला इस कथा से होकर गुजरने का.. उन पात्रों को छूने का, जिनकी महक कथा में सर्वत्र व्याप्त है, उन संवादों में मन ही मन शामिल होने का, जो कथा को अपने मज़बूत कंधों पर थाम सरसरा कर भाग रहे हैं।

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ईमानदारी की बात है कि इस कहानी का शास्त्रीय मूल्यांकन करूँ या कि नैतिक, ऐतिहासिक, प्रायोगिक अथवा स्वच्छंद यथार्थवादी…किसी एक श्रेणी के घेरे में यह कहानी परखी नहीं जा सकती। भावना के धरातल पर हृदय की चीत्कार सी यह कहानी पीड़ा का अग्निलीक तो है ही, प्रेम के फाहे से ठंडक पाती मनुष्यता-मानवीयता का अद्भुत उदाहरण भी है। साथ में कथा-तत्वों की साहित्यिक-संपदा से समृद्ध।

पीड़ा का घनत्व हृदय मथ डालता है जब कथा का प्रारंभिक वातावरण अत्यंत खुशनुमा होता है। एक ऐसी टीस जगाती है कहानी कि हतप्रभ रह जाए इंसान। रूपा सिंह कहाँ से इतनी ऊर्जा लाती हैं कि कथा का रेशा-रेशा एक मीठी तरंग पर नाचता सा लगता है। पात्र से ऐसे जुड़ती और जोड़ती हैं कि बेबे की गंध तक उतर आती है शब्दों में। कभी अमृता प्रीतम, कभी कृष्णा सोबती, कभी चंद्रधर शर्मा गुलेरी की याद दिलाती आपकी भाषा हृदय की अतल गहराई में जो कथा-बीज बोती है, शायद पाठक जीवन के अंतिम क्षण तक उसे बिलगा न सके।

प्रेम की ऐसी उदात्तता वही रच सकता है, जिसने वैसा प्रेम किया है। मुझे प्रसाद की ‘आकाशदीप’ और ‘गुंडा’ कहानी भी याद आई, शायद सभी सहमत न भी हों, किंतु पूरी कथा में एक ऐसी लहर है, जो स्पर्श करती है वहाँ-वहाँ, जो दिल की गहराई में गहरे पैठी है। ‘आकाश दीप’ का अंतिम दृश्य जाग्रत होता है- “मुझे भी इसी में जलना होगा, जैसे आकाश दीप’ …. ‘ चंपा आजीवन उस दीपस्तंभ में आलोक जगाती रही।” ‘ प्रेम का अद्वितीय उदाहरण प्रसाद का वह ‘गुंडा’ भी है- “शरीर का अंग-अंग कटकर वहीं गिर रहा था, वह काशी का गुंडा था।” स्वाभाविक रूप से ‘लहना सिंह ‘भी याद आए और ठीक वैसे ही बेबे की कूबड़ उभर आती है पाठक के अंदर। उंगलियाँ तड़प उठती हैं पाँव के उस छल्ले को छूने को, उस नाम को रगड़ कर गर्म करने को, जो उंगली की पोरों में धँस कर जीवित रहा अपने पूरे अस्तित्व के साथ।

कहानी यूँ ही नहीं बढ़ती है रूपा सिंह की..एक एक डेग को अपनी साँसें सौंपती चलती हैं जैसे.. मौत को जीवन देती सौंदर्य में विलसती कथा। ज़िंदगी की पेंचदगी और नारी हृदय की अथाह गहराई, अथाह धैर्य इतनी सरलता से समक्ष ले आती है, जैसे कहना क्या था, बस जी लेना था उस समय को, बँटवारा ये कैसा था, जो लाल लाल जीभ लपलपाता मनुष्यता को लील लेना चाहता था।

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भीड़ से अलग एक परिपक्व कथाकार को समझने का अवसर मिला। सुना था, उन्होंने इसके पहले दो और कहानियाँ लिखी थीं। पढ़ने की अधीरता बढ़ी तो समक्ष आयी  पहली कथा ‘सन्नाटे की गंध’ और दूसरी ‘आय विल कॉल यू’ । ‘सन्नाटे की गंध’ की चर्चा करूँ तो पाती हूँ कि कुछ गंध सोंधी होती है, नशीली किंतु अपहचानी सी। आश्चर्यचकित हूँ कि मनोविज्ञान का कौन सा पाठ पढ़ा है इन्होंने! स्वयं डूबते-डूबते उबर जाना, पाठकों को डूबता छोड़ कर..रूपा सिंह की विशेषता है। मन-मस्तिष्क-दिल-शरीर सबके अलग अस्तित्व की पहचान, फिर इनके एकीकरण की बौद्धिकता, घुट्टी में पीकर निकली है ज्यों।

कथाकार प्रो. रूपा सिंह की कहानियाँ सामान्य से असामान्य की यात्रा सदृश है। एक अलग ही फलक है..अत्यंत मौलिक..किसी ने शायद  कल्पना तक न की होगी, वहाँ प्लॉट मिलता है इन्हें। इस कथा का शीर्षक तो आकृष्ट करता ही है, पात्र भी अति निकट के, साँसों में घुले जैसे और संवाद ऐसे जैसे सहजता से टपकती बारिश की बूँदें।

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अपनी ही वयःसंधि से बार-बार गुजरना है मानो बच्चों की ज़िंदगी से गुजरना। परिस्थितियों को सकारात्मक दिशा देते हुए बच्चों के बीच सेतु बन जाना अतिशय परिपक्वता दर्शाने वाली बात है। कभी नज़रें चुराना, कहीं मिलाना, पुनः संपूर्णता में खोलकर बिगड़ती चीज़ें संभाल लेना लेखिका का मूल्यवान निष्कर्ष है। सन्नाटे में पसरी गंध को सूँघ कर अर्थ देना पाठकों को विस्मित करता है।

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प्रो. रूपा सिंह की दूसरी कहानी ‘आय विल कॉल यू’ आज के समाज की उस अंधेरी गली में लेकर जाती है, जिधर से होकर आज युवाओं का एक वर्ग गुजर रहा है। पढ़ाई के उद्देश्य से बड़े शहर में आई दो सहेलियों के गहन मनोविज्ञान एवं अपने-अपने मूल्यों के साथ होने की कहानी कहती है ‘आय विल कॉल यू’। कभी-कभी समय का भटकाव इन्हें बहकाता तो है, किंतु पुनः समतल में छोड़ जाता है। दो मुख्य पुरुष पात्र गंभीर एवं ठहरे हुए हैं, अतः कहानी निराशावादी नहीं कही जा सकती, किंतु युवाओं का एक बड़ा वर्ग एक कंप्यूटरी सड़ांध अपने कमरे में लिये बैठा है, जहाँ भावनाओं की मौत होती है, सच्चाई का गला घोंटा जाता है। कैसे ये युवा हैं, जो दूरियों को नज़दीकियों में बदलने का यांत्रिक साधन जुटाते हैं। यह यंत्र सिर्फ बाहरी ही नहीं है, आंतरिक भी है। भावनाओं का दोहन कर आनंदित होना और अपनी सफलता पर रोमांचित होना, अपनी इन हरकतों पर सहानुभूति की अपेक्षा भी करना आश्चर्यचकित करता है। ऐसा लगता है कि लेखिका कहना चाहती हैं- स्त्री चाहे आज की हो, कल की अथवा आने वाले कल की, वह अपनी संवेदनाओं से अछूती नहीं रह सकती।

यह कहानी नवयुग के कोमल-कठोर मनचलों की साँसें तेज कर सकती है, किंतु इन स्थितियों पर प्रबुद्ध पाठकों के अंदर जुगुप्सा के भाव ही भरेंगे, जो लेखिका का उद्देश्य प्रतीत होता है। यह कैसा समय है,कैसा बाजारवाद और कहाँ सरकती जा रही है हमारी संस्कृति!

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तीन कहानियाँ..जीवन की तीन अवस्थाएँ हों जैसे। बचपन, जवानी, बुढ़ापा…आकर्षण, सेक्स और प्रेम  हों जैसे। इनके बीच से निकलती हुई लेखिका प्रो. रूपा सिंह विश्वविद्यालय प्रोफेसर हैं। जो कथाकार महानता के चरम पर हैं, उन्हें अलग रखूँ तो ऐसा प्रतीत होता है कि शिक्षण क्षेत्र से उभरे कथाकार, जो साहित्य के सरोकारों से जुड़े रहते हैं, वैसे लोग अपने अध्ययन, चिंतन, निष्कर्षों का जाग्रत इस्तेमाल कर जाते हैं। हम जानते हैं कि किसी महत्वपूर्ण, प्रभावपूर्ण घटना, चरित्र या परिस्थिति को कहने की आकर्षक शैली ‘कहानी’ है, किंतु शीर्षक से लेकर उद्देश्य तक की विविध सरणियों से गुजरती हुई लेखिका  प्रो. रूपा सिंह ने कहीं भी जाहिर नहीं होने दिया कि वह शास्त्रीय तत्वों के प्रति आग्रही हैं.. चीजें थोपी हुई कहीं नहीं दीखतीं। स्पष्ट है कि अध्यवसाय ही एक लेखक को इतना चैतन्य रख सकता है।

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‘दुखाँ दी कटोरी : सुखाँ दा छल्ला’ को ही लें तो हम देखते हैं कि पंजाबी शीर्षक का इस्तेमाल कर कथा में चामत्कारी आकर्षण भरा गया है। विभाजन के हिंसात्मक परिदृश्य में प्रेम की मनोरम स्निग्धता बिखेरना आसान तो नहीं था। देशकाल समन्वित घटना कहानी को उच्चासन प्रदान करती है, जिसमें मनोरंजन का महत् उद्देश्य कहीं भी बाधित नहीं होता। कह सकती हूँ कि कथाकार प्रो. रूपा सिंह तथा उनकी कहानियाँ, विशेषकर ‘दुखाँ दी कटोरी : सुखाँ दा छल्ला’ अपने सारस्वत उद्देश्य में शाश्वती प्रतिष्ठा अवश्य प्राप्त करेगी। अपनी ही खींची रेखा से बड़ी रेखा खींचने का भीष्म काम प्रो. रूपा सिंह की भी चुनौती हो सकती है।

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