जय प्रकाश नारायण की लिखी एक कहानी- टामी पीर

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लोक नायक जयप्रकाश नारायण की 11 अक्तूबर को देश जयंती मना रहा है। इसी को ध्यान में रखते हुए उनकी लिखी एक कहानी हम दे रहे हैं- टामी पीर। इसे वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने अपने फेसबुक वाल पर पोस्ट किया है।

शहर के बाहर एक मशहूर पीर का मकबरा है। जिस दिन पीर साहब समाधिस्थ हुए थे, उस दिन से हर साल वहां मेला लगता। हिंदू-मुसलमान, मर्द-औरत, बच्चे-बूढ़े सभी जाते, मजार पर फूल चढ़ाते, माथा टेकते, पैसे नजर करते और फिर मेले का तमाशा देखते। मेले के दिन के अलावा रोज ही दस -पांच आदमी मजार पर जाते ही।

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मकबरे तक शहर से जो सड़क जाती थी, उस पर शहर और मकबरे के बीच एक और भी छोटी सी कब्र थी। कब्र पर जो पक्का चबूतरा बना था, उसे देखने से मालूम होता, मानो किसी बच्चे की यादगार हो। जो लोग पीर साहब के मजार पर पूजा करने जाते, वे इस छोटी कब्र के पास भी दम भर रुक जाते, दो-चार फूल वहां भी चढ़ाते और दुआएं मांगते। मशहूर था कि वह मजार किसी टामी पीर साहब की है, जो बड़े पीर साहब के शागिर्दों में थे, लेकिन ठीक-ठीक पता किसी को न था। यह भी कभी-कभी सुनने में आता था कि पीर साहब की गद्दी पर जो नए पीर जानशीन थे, वे लोगों को मना भी करते थे कि टामी पीर की मजार की पूजा न करें, लेकिन वजह पूछने पर चुप रह जाते थे। कुछ भी हो, सिवा उनके थोड़े से शागिर्दों और पास आने-जाने वालों के और कोई उनकी बात सुनता न था, बल्कि यह कहना ठीक होगा कि जानता ही न था। नतीजा यह होता कि मकबरे को जाते समय टामी पीर की कब्र पर फूल चढ़ते ही, चिराग जलते ही, दुआएं मांगी ही जातीं।

मैं भी एक रोज सैर के ख्याल से मकबरे की ओर निकल गया। रास्ते में वह छोटी कब्र भी मिली। लौटते समय दो-चार मुसलमानों का साथ हो गया, जो पीर साहब से दुआएं मांग कर लौट रहे थे। बातचीत होने लगी। पीर साहब का गुणगान हुआ। उनकी दुआओं में जो ताकत थी, उसका जिक्र हुआ। एक साहब शायर मिजाज थे, उन्होंने दो-चार शेर कहे। इतने में वह छोटा मजार आ गया। मैंने उसके मुतल्लिक दरयाफ्त किया। पता चला, एक टामी पीर साहब थे, उनका ही मजार है। टामी साहब शायद बड़े पीर साहब के मुरीदों में थे।

मुझे टामी नाम खटका। मैंने उनके संबंध में कई सवाल किए। शायर साहब के अलावा हमारे बाकी सब साथी अनपढ़ गंवार थे। उन्हें ज्यादा पता तो था नहीं। शायर साहब कुछ जानते हो, मालूम नहीं, लेकिन उन्होंने भी कुछ बताया नहीं। फिर भी उनके बोलने के तर्ज से मालूम हुआ कि वह टामी साहब की कोई खास कद्र नहीं करते-उनके मजार पर वह कभी जाते भी नहीं, हालांकि इश्कमिजाजी का मजा लेने के लिए मकबरे को अक्सर जाते।

टामी नाम के सबब से और शायर साहब के हाव-भाव से टामी साहब का पूरा हुलिया जानने को मैं बेचैन हो पड़ा। दो-चार हफ्तों की छानबीन के बाद जो कुछ हाल मालूम हुआ, उससे कभी तो हंसने को जी चाहे, कभी रोने को। हमारा अंध-विश्वास भी हमें कहां ले जाकर फेंक देता है।

टामी पीर की कब्र के पास ही एक पक्का बंगला था, उजाड़ और बेमरम्मत, छप्पर सड़ कर गिरा जा रहा था। चहारदीवारी की ईंटें तितर-बितर हो रही थीं। मकान की यह हालत इसलिए हो चली थी कि एक तो शहर तनज्जुली पर था, वहां का व्यापार धंधा मंद पड़ गया था और धीरे-धीरे शहर का शहर उजड़ा जा रहा था। वह बंगला भूतों का बसेरा है। किराएदार तो कोई आता न था, मकान मालिक भी लावारिस मर गया। उसके वंश के और लोग दूसरे शहर में जा बसे।

अब गौर से देखने पर मालूम हुआ कि वह कब्र पहले उस बंगले के अहाते में ही बनी थी। इस वक्त जो ईंट की एक नीची सी चहारदीवारी उसके चारों तरफ खींची थी, वह उस बंगले की चहारदीवारी की ईंटों से ही चुनी गई थी। लेकिन सरसरी निगाह से देखने पर यही जान पड़ता था कि बंगले से कब्र का कोई संबंध नहीं था।

बंगले और कब्र का इस तरह का तअल्लुक कायम हो गया, तब मैंने यह पता लगाने की कोशिश की कि बंगले का पिछला किराएदार कौन था। मकान मालिक के जो रिश्तेदार दूसरे शहर में चले गए थे, उनसे मिला। वहां सिर्फ इतना ही मालूम हुआ कि सत्तर-अस्सी वर्ष हो गए, एक गोरा साहब किराए पर उस मकान में रहता और अफीम का व्यापार करता था। बही -खाता देखने पर  पता चला कि उसका नाम राबिंसन था। खोज-ढूंढ़ कर यह भी मालूम हुआ कि साहब अपने एक मुंशी से हर महीने की आठवीं तारीख को किराया भिजवा दिया करता था। मुंशी जी के दस्तखत कई चिट पुर्जों पर थे, जिनका शोध करने पर पता चला कि उनका नाम था नौरंगी लाल।

अब यह सवाल हुआ कि ये नौरंगी लाल थे कहां के और इनके घर में अब कोई जिंदा है या नहीं? वहां तो और कुछ पता चला नहीं, इसलिए मैं अपने शहर को वापस आ गया। यहां बहुत पूछताछ करने पर अफीम का बूढ़ा दुकानदार मिला, जिसका बाप राबिंसन के साथ कारोबार करता था।

अफीम की खेती बंद हो जाने के सबब से अफीम का व्यापार बहुत मंदा पड़ गया था, लेकिन यह दुकानदार अफीम बेचने का लाइसेंस लेकर एक छोटी सी दुकान लिए बैठा था। नौरंगी लाल का पता तो उसको न था, लेकिन उसने बताया कि शहर का कोई एक बड़ा बड़ा रईस हीरालाल  है, जिसके बाप दादों ने अफीम के व्यापार में लाखों रुपए बनाए थे।

मैं हीरालाल की गद्दी पर गया। वहां उनके मुनीम से पता चला कि हीरालाल तो नौरंगीलाल का ही पोता है। मुनीम की उम्र कोई सत्तर साल की होगी। मैंने सोचा, नौरंगी लाल के घर का भेद इससे ज्यादा कौन जानता होगा। इधर-उधर की बातें करते-करते राबिंसन के मुतल्लिक बातें होने लगीं- ‘नौरंगी लाल रोबिंसन के मुंशी थे और सच पूछिए तो बाबू जी, तो साहब को बूढ़े लाला ने बड़ा उल्लू बनाया था। ऐसे गहरे हाथ मारे कि साहब को पता भी न चला। रुपयों का ढेर उठा कर घर में धर लिया। साहब तो आखिरी दम तक मुंशी जी की ईमानदारी का गुणगान ही करता रहा।’

मैंने साहब के बंगले की बात छेड़ी। बूढ़ा मुनीम मुस्कराया, ‘बाबू जी भूत-वूत कुछ भी न था वहां। मकान मालिक के पट्टीदारों ने यह सब तमाशा रचा था, ताकि उसकी यह जायदाद खतम हो जाए। वह बेचारा तो मिट ही गया, ससुरे खुद भी भीख मांगने लगे। दूसरों का जो बुरा करता है, वह कभी सुखी नहीं रह सकता बाबू जी।’

मेरी आंखों में ऐसे कई महानुभावों के चित्र नाच उठे, जो दूसरों का खून पीकर मोटे बने हुए थे, लेकिन मुनीम की बातों पर मैं चुप ही रहा, बल्कि सिर हिला कर गंभीरता के साथ अपनी सहमति भी प्रकट की। कुछ देर बाद मैंने टामी पीर का जिक्र किया। मुनीम जी खिलखिलाकर हंस पड़े, बोले- ‘आपको नहीं मालूम उस पीर का भेद? आधा शहर तो जानता है।’

मैंने कहा -मैं तो हफ्तों से इसी छानबीन में लगा हूं, लेकिन अब तक तो आपके सिवा मुझे कोई ऐसा न मिला, जिसे उसका पता हो।’

बूढ़े ने मुझे अचरज भरी आंखें से देखा। एक ठंडी सांस लेकर बोला- ‘हां, अब पुराने लोग हैं ही कहां? और यह शहर भी तो उजड़ गया। तो लीजिए, मैं आपके दिल की गुदगुदी मिटाए देता हूं। टामी पीर राबिंसन साहब का एक प्यारा कुत्ता था। उस वक्त उसे पीरी न मिली थी, सिर्फ एक कुत्ता ही था, लेकिन बहुत अच्छी नस्ल का और सुनते हैं- बड़ा खूबसूरत और बहादुर था। साहब और उसकी मेम उस कुत्ते को जी-जान से प्यार करते। निःसंतान होने के कारण सारा लाड़-प्यार उस कुत्ते पर ही न्योछावर कर देते। दुर्भाग्यवश, वह कुत्ता बीमार हुआ और इस दुनिया से चल बसा। साहब और उसकी मेम के शोक का आप अंदाजा कर सकते हैं। उन्होंने अपने अहाते के एक कोने में उसे दफनाया और उसकी समाधि का एक अच्छा सा चबूतरा बनवा दिया। सुना है- सुबह को बाग से फूल तोड़कर मियां-बीवी उस कब्र पर रोज रखा करते।’

‘अच्छा यह बात है? तो आज हम और हमारे मुसलमान भाई एक कुत्ते की पूजा कर रहे हैं। मैं तो इसका भंडाफोड़ किए बगैर न रहूंगा।’ मेरे ये उद्गार सुन बूढ़ा मुनीम थोड़ी देर चुपचाप बैठा रहा। फिर धीरे से बोला- ‘जाने दीजिए बाबूजी, इससे क्या फायदा होगा? जो लोग टामी पीर की कब्र पर आज दुआएं मांगने और श्रद्धा के फूल चढ़ाने जाते हैं, वे थोड़े ही जानते हैं कि वह एक कुत्ते की मजार है। उन्हें तो किसी नेक पाक पीर का ही ख्याल रहता होगा। उनके सिजदों और प्रार्थनाओं से उनके दिल का मैल कुछ न कुछ धुलता ही होगा।’

सहसा मैं उस बूढ़े की बात का जवाब नहीं दे सका। कुछ देर चुप बैठा रहा। फिर मुनीम जी को बहुत धन्यवाद देकर कुछ सोचता-सोचता अनमना सा घर लौट आया।

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