गोवर्धन पाठक का कमंडल………………………………

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गांव की संस्मरण कथा की शृंखला शुरू की है वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार अरविंद चतुर्वेद ने। गांव की संस्मरण कथा की एक कड़ी आप पढ़ चुके हैं।
गांव की संस्मरण कथा की शृंखला शुरू की है वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार अरविंद चतुर्वेद ने। गांव की संस्मरण कथा की एक कड़ी आप पढ़ चुके हैं।
  • अरविंद चतुर्वेद

अगर बाबूघाट पर चोरी न हुई होती और उनका सबकुछ चला न गया होता तो गोवर्धन पाठक से शायद मुलाकात भी न होती। कम से कम कोलकाता में न ही होती। अहीरी टोला के बीके पाल एवेन्यू में जनसत्ता अखबार का दफ्तर था, शाम को पांच बजे जब मैं कामकाज निपटाने में लगा था, नीचे टाइम ऑफिस-कम-रिसेप्शन से फोन आया- एक बाबाजी आपसे मिलने आए हैं, कह रहे हैं आपके बड़े भाई हैं। सोचा, मेरा कोई बड़ा भाई तो है नहीं, वह भी बाबाजी! फिर भी, आ रहा हूं बोलकर अपने सहयोगी को काम सौंपते हुए मैं सीढ़ियां उतर गया। रिसेप्शन पर पहुंचा तो देखा कि गेट के बाहर एक तरफ जटाजूट बढ़ाए, लंबी सफेद दाढ़ी में मुस्कराते, गले में रुद्राक्ष की दोहरी माला और हाथ में पीतल का चमचमाता कमंडल लिए, नंगे पांव, भीगी धोती में खड़े हैं पठकागांव के गोवर्धन पाठक। पहचानने को तो पहली नजर में ही पहचान गया लेकिन उनका यह अप्रत्याशित बाना देखकर अचकचाहट के साथ मेरे मुंह से निकला- अरे आप, इस तरह? फिर इस झेंप के साथ कि कहीं दफ्तर का कोई सहकर्मी उनकी इस दयनीयता के साथ मुझे देख न ले, उन्हें साथ लेकर तेजी से कुछ दूर गया और जल्दी से एक टैक्सी में उन्हें अपने साथ बैठाकर लेकटाउन घर के लिए निकल पड़ा। सचमुच वे करीबी रिश्ते में मेरे बड़े भाई ही थे और घर-परिवार के इतने आत्मीय कि गांव आते तो हफ्ता-दस दिन नहीं, महीना-दो महीना रह जाते थे। अपनापे के साथ खेत-खलिहान से लेकर घर के छोटे-बड़े काम में हाथ बंटाते थे। शायद बचपन में उन्होंने मुझे खेलाया भी हो। मेरी तरह वे भी मेरे पिताजी को दादा बोलते थे और मैं उन्हें गोवर्धन भइया। इसलिए जब दफ्तर के गेट पर उनसे सामना हुआ तो उनकी आंखों में यह अपेक्षा झलकी थी कि मैं तपाक से पांव छूकर उन्हें प्रणाम करूंगा।

मैंने अब टैक्सी में उनका पांव छूकर प्रणाम किया। पूछा, आपकी यह क्या हालत हुई? कहने लगे, गंगासागर जा रहा था। यहां बाबूघाट पर झोला-झंटा और कपड़ा-कंबल रखकर हुगली में नहाने उतरा, तीन डुबकी लगाकर जैसे ही घाट पर आया तो देखा सब गायब। क्या पता था कि चोर-उचक्के भी गंगासागर जाते हैं! उनके इस भोलेपन पर थोड़ी कोफ्त हुई, भला कौन नहीं जानता कि तीर्थ स्थलों और नहान घाटों पर चोर-उचक्के मंडराते रहते हैं! पूछा, लेकिन यह कमंडल कैसे बच गया?

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– इसे लेकर नहाने उतरा था कि धो-मांज लेंगे!

-मेरे ऑफिस तक आए कैसे? पता कैसे मिला?

-पहले तो समझ में ही नहीं आया कि क्या करूं। पांच मिनट तक सोचता रहा। संजोग से एक आदमी के हाथ में जनसत्ता अखबार देखा तो तुरंत तुम्हारा ध्यान आया। उसी ने देखकर पता बताया तो पूछते-पाछते हुगली के किनारे-किनारे अहीरीटोला घाट आया, फिर आ गया।

-लगता है, आप पक्के साधू हो गए हैं!

-ये तो बीस-पच्चीस साल हो गए!

-घर नहीं जाते?

-मन करता है तो साल-छह महीना में चार-पांच दिन चले भी जाते हैं!

लेकटाउन पहुंच कर सीधे घर के दरवाजे तक टैक्सी लेकर गया, वहां भी मैं नहीं चाहता था कि अड़ोस-पड़ोस का कोई आदमी मेरे निरीह मेहमान को देख ले। घर यानी किराए के दो कमरे। उन्हें पहनने को लुंगी और अपनी एक कमीज दी। निकलकर बाजार से पकौड़ियां, समोसे और रसगुल्ले ले आया। सारा का सारा जल्दी-जल्दी खाकर उन्होंने तीन गिलास पानी पीया, तब थोड़ा स्थिर हुए। वाकई उन्हें बड़ी भूख लगी थी। दो चाय बनाकर लाया और एक उनके सामने रखकर पीने लगा तो मुस्कुराते हुए उन्होंने अपनी लंबी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरा, फिर सुड़क-सुड़क कर चाय पीने लगे। चाय पीने के बाद उनके चेहरे पर थकान और विश्रांति की मिलीजुली छाया उभरी जिसे देखकर मैंने कहा- अब आप थोड़ा आराम कीजिए, मैं बाजार से आता हंू।

गोवर्धन भाई की लुटी-पिटी सधुक्कड़ी के बारे में सोचता मैं कपड़े की एक दूकान पर गया और उनकी मर्यादा के अनुरूप लगभग लुंगी जितने बड़े गेरुआ रंग के दो अंगोछे खरीदे, खादी भंडार से एक बंडी भी। मेरे पास पहले से दो कुर्ते थे जिनमें से एक जो धुला हुआ प्रेस करके रखा था, उन्हें देने का निश्चय कर एक घंटे में मैं कमरे पर लौट आया। मेरी आहट पाकर वे उठकर बैठ गए। उसी वक्त नए कपड़ों के साथ मैंने उन्हें धुला कुर्ता, एक कंबल और सामने से खुला बटनदार हाफ स्वेटर सौंप दिया। कहा, आप मेरी चप्पल पहन लीजिएगा। गोवर्धन भाई प्रसन्न हुए, उनके चेहरे पर एक कृतज्ञ मुस्कान फैल गई। बोले, तुम न मिलते तो क्या पता, शायद मुझे भीख मांगनी पड़ती! खैर, रात को गोवर्धन भाई ने ही कहकर खाना बनाया- रोटियां और आलू-बैगन का चोखा।

अगले दिन मेरा साप्ताहिक अवकाश था। वैसे भी सुबह देर से सोकर उठने की आदत है। नींद खुली तो क्या देखता हूं कि बाहर वाले कमरे में गोवर्धन भाई एक गेरुआ गमछा पहने, दूसरा कंधे पर डाले पद्मासन की मुद्रा में बैठे हैं। पीठ मेरी ओर थी और उनके सामने मेरे यहां काम करनेवाली नमिता मंडल हाथ जोड़े भक्तिभाव से बैठी है। गोवर्धन भाई अस्फुट स्वर में मंत्र-सा कुछ बुदबुदा रहे थे। आंखें मलते हुए मैं वहां पहुंचा तो नमिता उनके पांव छूकर झटपट उठी और किचेन में चाय बनाने चली गई। तभी मेरी नजर बरामदे में अलगनी पर गई, वहां गोवर्धन भाई का लाल लंगोट सूखता हुआ किसी आश्रम के ध्वज की तरह हिल-डुल रहा था। झपटकर वह लंगोट मैं कमरे में ले आया। इधर-उधर देखा कि किसी ने बरामदे में सूखता लंगोट देखा तो नहीं! वह उच्च मध्यवर्गीय बंगालियों का मुहल्ला था जो आधुनिक व संभ्रांत दिखने के लिए कुछ अतिरिक्त ही प्रदर्शनप्रिय और पर्याप्त नकचढ़े थे। मेरे कमरों के सामने से आने-जाने वालों को छोड़ भी दें तो कम से कम तीन पड़ोसी परिवारों की नजर उस लाल लंगोट पर पड़ सकती थी और यह मुझे फूहड़ और भुच्चड़ ठहराने के लिए काफी था।

गोवर्धन भाई दोपहर में खाना खाने के बाद दो बजे के आसपास गंगासागर जाने के लिए बाबूघाट वाले पड़ाव पर पहुंचने को तैयार हो गए। उन्हें राह खर्च के लिए सौ रुपए देकर बस पर बैठा आया। इस तरह विस्मृति के चादर से निकल कर कोई बीस बरस बाद गोवर्धन भाई अपने साधू अवतार में मेरे जेहन में तरोताजा हो चुके थे। अब कभी गांव-घर या अपने इलाके से किसी का फोन आता तो मैं गोवर्धन की खोज-खबर जरूर लेता। पता चला कि पिता की मृत्यु के बाद ही अविवाहित गोवर्धन साधू बन गए थे। वे घूमते-घामते हरिद्वार गए। वहां किसी मठ में रहते हुए महंथ की बड़े समर्पित भाव से उन्होंने सेवा की। रात-दिन महंथ की छाया बनकर रहने लगे। यहां तक कि एक बार जब महंथ को अपदस्थ करने का षड्यंत्र रचा गया और भारी विवाद के बीच विरोधी पक्ष ने मठ पर कब्जा करने की कोशिश की तो कद-काठी के मजबूत नौजवान साधू गोवर्धन ने समर्थकों की अगुवाई करते हुए जबरदस्त लाठी चलाई। फिर गुत्थमगुत्थी में एक विरोधी साधू का कमंडल छीनकर उसी से उसका सिर फोड़ दिया। जैसे ही खून बहा, विरोधी पस्त होकर भाग खड़े हुए। गोवर्धन के इस पराक्रमी शारीरिक अध्यात्म से अत्यंत प्रभावित गदगद बूढ़े महंथ ने 108 रुद्राक्षों वाली बड़ी माला गोवर्धन के गले में डाल दिया।

अब महंथ जी जब पूजा-पाठ पर बैठते तो गोवर्धन को भी अपने बगल में एक छोटी चौकी पर बैठाने लगे। वे उनके अंगरक्षक तो साबित हुए ही, महंथ को उनमें अपना सुयोग्य उत्तराधिकारी भी दिखने लगा। लेकिन बाद में, जिक्र आने पर जिसे हरि इच्छा कहकर गोवर्धन एक निराशा भरे उच्छ्वास के साथ अक्सर टाल देते, वह घटना एक महीने बाद हुई। जिस दिन महंथ ने आश्रम में गोवर्धन को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने के लिए आयोजनपूर्वक गेरुआ बाना में त्रिपुंड आदि लगाकर मंच पर बैठाया, तभी ऐन मौके पर सामने बैठे बाहर से आए एक जत्थे में शामिल दो लोगों के मुंह से अनायास निकल पड़ा- अरे, ई तो हमारे यहां पठकागांव के गोवर्धन पाठक हैं। एक आदमी बोला, का हो गोवर्धन! घर-दुआर छोड़ के इहां टंट-घंट फैलाए हैं और उहां खेती-बारी चौपट हो रही है। इतना सुनते ही सारा गुड़ गोबर हो गया। गोवर्धन से खुन्नस खाए कुछ ईर्ष्यालु साधू खड़े हो गए। उन्होंने आयोजन रुकवा दिया। बूढ़े महंथ पिछली बार की साजिश के बाद वैसे ही कुछ ज्यादा शंकालु हो गए थे। गोवर्धन के प्रति सदाशय होने के बावजूद उनसे उन्होंने कहा- बच्चा, तुमने तो कहा था कि तुम अनाथ हो! तुम्हारे आगे-पीछे कोई नहीं है! तुम मुझसे झूठ क्यों बोले थे? हक्के-बक्के गोवर्धन के मुंह से बोल नहीं फूटे। मायूस महंथ ने कहा- हरि इच्छा! और, कार्यक्रम रद्द करने की घोषणा कर दी।

आखिर गोवर्धन ने तय किया कि अब शक-शुब्हा के बीच यहां रहना ठीक नहीं है, उन्होंने तीसरे ही दिन हरिद्वार छोड़ दिया।

हरिद्वार से निकलकर गोवर्धन गांव नहीं लौटे, बल्कि अयोध्या चले गए। वहां राम जन्मभूमि आंदोलन की सुगबुगाहट तेज थी, सो उसी धरम-धक्के में उन्होंने रामचरित मानस की चौपाई प्रबिस नगर कीजै सब काजा, हृदय राखि कोसलपुर राजा का स्मरण करते हुए छोटी छावनी मठ में प्रवेश किया। छोटी छावनी में दीक्षा के उपरांत उनका नया नामकरण हुआ रामउदार दास। जमाती साधु बनकर दो महीने तक सरयू स्नान और अयोध्या की गलियों की खाक छानने के बाद गोवर्धन उर्फ रामउदार दास की घर-वापसी बड़े नाटकीय ढंग से हुई। सोनभद्र में विश्व हिंदू परिषद ने शाहगंज से तेलाड़ी-सेमरिया स्कूल तक  धर्म जागरण यात्रा की तैयारी की। प्रचारित किया गया कि अयोध्या से दो बड़े महात्मा आए हुए हैं। फूलों से सजे-धजे, आगे बैनर बांधे एक मिनी ट्रक पर फूल मालाओं से लदे, गेरुआ पहनावे में, दोनों कनपटी तक चंदन की चार लकीरें खींचे, दो तिलकधारी साधुओं में एक गोवर्धन भाई थे जो दूर से और एक झटके में पहचाने नहीं जा सकते थे। शाहगंज से जब यह यात्रा निकली तो पीछे-पीछे कोई चालीस-पचास लोग माथे पर फेंटा बांधे, मोटरसाइकिलों पर भगवा झंडियां फहराते निकले। जैसा कि हर तमाशे में देखनेवालों का मजमा लग ही जाता है, इस जुलूस को देखने के लिए परासी, रावर्ट्सगंज, चतरा, रामगढ़ के पड़ाव पर सड़क के दोनों किनारे सौ-पचास लोग जुट ही जाते थे। साधु रामउदार दास अपने ओरिजिनल रूप में पहचाने गए पकरहट चट्टी पर। जुलूस रुका और हलवाई की कड़ाही से जब एक थाल में ताजा गरम जलेबियां दोनों साधुओं को समर्पित की गईं तो रामउदार दास के मुंह से बरबस निकला- हम इस धोबी के साथ एक थाली में नहीं खा सकते। उनके ये बोल माइक से सबको सुनाई पड़ा। तभी मेरे गांव का एक आदमी उन्हें पहचानते हुए जोर से बोला- अरे, इ तो गोवर्धन भइया हैं, पठकागांव वाले। यात्रा के आयोजकों ने जल्दी से गोवर्धन पाठक के सामने दूसरे थाल में जलेबियां परोसकर मामले को किसी तरह सलटाया क्योंकि दूसरा साधू धोबी कहे जाने से नाराज होकर अब ट्रक से उतरने जा रहा था। वहां जुलूस देर तक नहीं रुका और तेजी से आगे बढ़ गया। खैर, इस धर्म जागरण के बाद शाम के पांच बजे तक सेमरिया स्कूल पर यात्रा विसर्जित हो गई। दोनों साधू वहीं से अलग-अलग हो गए।

इसके बाद फिर कभी गोवर्धन न अयोध्या गए, न हरिद्वार। गांव में उनके संयुक्त परिवार और खेती-बारी की बागडोर चचेरे छोटे भाई और उनके लड़कों ने बखूबी संभाल रखी थी। परिवार में सबसे बड़ा होने के नाते उनका सम्मान भी सब करते थे, लेकिन लंबे अरसे तक घरछोड़ रहने के कारण परिवार में उनका मन लगता नहीं था। हफ्ताभर घर रह जाएं तो बड़ी बात होती थी वरना दो-चार दिन बाद ही झोला लटकाए, हाथ में कमंडल लिए वे निकल लेते थे। किसी रिश्तेदारी में जाते तो यह अपेक्षा रखते कि लोग उन्हें संत मानकर श्रद्धाभाव के साथ खुद को शिष्यवत प्रस्तुत करें। उनकी यह अपेक्षा प्रायः पूरी न होती। लिहाजा वे किसी न किसी बात पर तुनककर अचानक कमंडल उठाते और चल देते। वे चाहते कि लोग उन्हें महात्मा जी कहें, लेकिन लोग उन्हें गोवर्धन कहने पर जैसे आमादा थे। दो-चार बार तो वे मेरे घर से भी तुनककर अचानक जा चुके थे। उनका हाल घर का जोगी जोगड़ा आन गांव का सिद्ध सरीखा होता गया। वे अपनी संतई का प्रभाव डालने के लिए तरह-तरह की काल्पनिक सिद्धियों का बखान करने लगे। नतीजा यह हुआ कि उनका जिक्र आने पर लोग कहते गोवर्धन एक नंबर के झूठे और गप्पी हैं।

जब कोलकाता से हमेशा के लिए मैं गांव लौट आया तो इत्तेफाक ही कहेंगे कि गोवर्धन भाई से कभी मेरी मुलाकात नहीं हो पाई। एक बार फोन पर अपने भाई से गोवर्धन पाठक का जिक्र किया तो उसने बताया कि वे तो मर चुके हैं। साल 2018 में जाड़े की एक रात जब गोवर्धन अपने घर पर थे, खाना खाकर सोये तो सोये ही रह गए। घरवालों को सुबह पता चला कि उनका निधन हो चुका है। मेरा मझला भाई उनकी तेरही के महाभोज में पठकागांव गया था। उसी से पूछा कि उनके कमंडल का क्या हुआ? भाई ने बताया, उसे महापात्रों ने भी लेने से मना कर दिया तो गांव का नाई उठा ले गया।

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