केंद्रीय राहत पैकेज का सचः पैकेज गया ‘वन’ में, सोचें अपने मन में

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‘बहुत हुई मंहगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार।।’ नारे पर रीझे भारतीय जनमानस को शायद अब पेट्रोल-डीजल सहित अन्य उपभोक्ता सामग्री में मंहगाई नहीं सताती। इसलिए अभी और मंहगाई के लिए तैयार ही रहें श्रीमान ! यह कह रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार श्याम किशोर चौबे
‘बहुत हुई मंहगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार।।’ नारे पर रीझे भारतीय जनमानस को शायद अब पेट्रोल-डीजल सहित अन्य उपभोक्ता सामग्री में मंहगाई नहीं सताती। इसलिए अभी और मंहगाई के लिए तैयार ही रहें श्रीमान ! यह कह रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार श्याम किशोर चौबे
  • श्याम किशोर चौबे

केंद्रीय राहत पैकेज गया ‘वन’ में, सोचें अपने मन में। दादी-नानी की कहानियों की तर्ज पर मोदी सरकार द्वारा घोषित कोविड राहत पैकेज दिखा। अब देश के 130 करोड़ लोग इसका फलितार्थ अपने-अपने मन में सोचें। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने लगातार पांच दिनों तक अपना समय निकाल कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 12 मई को घोषित राहत पैकेज की परिश्रमपूर्वक व्याख्या की। उनकी प्रेस कांफ्रेंस के अंतिम दिन 17 मई रविवार को पता चला कि अरे, इसका तो सेंसेक्स 20 लाख करोड़ से उछलकर 20.97 लाख करोड़ रुपये पर रविवार को बंद हुआ।

कोविड लाक डाउन के दौरान बहुत सारे उद्योग-व्यापार संघ बजट से सीधे अर्थव्यवस्था में दस लाख करोड़ रुपये बतौर राहत पैकेज डालने की मांग कर रहे थे, सरकार ने बीस लाख करोड़ की घोषणा की, जबकि हिसाब दे दिया 20.97,053 लाख करोड़ का। और क्या चाहिए? अब तो कोई दुकान, प्रतिष्ठान न तो बंद होना चाहिए, न बैंकों के समक्ष धर्मसंकट उत्पन्न होना चाहिए, न ही हम भारत के लोगों को हैरान-परेशान होना चाहिए। चूंकि देश में लोकतंत्र है, इसलिए यह सवाल तो उठाया ही जाना चाहिए कि क्या ऐसा ही होगा? शुभेच्छा व्यक्त की जानी चाहिए कि ऐसा ही हो। लेकिन इस बहुप्रचारित राहत पैकेज के ढांचे की परतें उधेड़ने पर प्रथमदृष्टया ऐसा कतई नहीं लगता।

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केंद्रीय राहत पैकेज के ढांचे और इसके वितरण की प्रमुख एजेंसी आदि पर बातें बाद में। पहले यह समझ लेना होगा कि राहत पैकेज की प्रधानमंत्री द्वारा 12 मई को की गई घोषणा के पहले एक लाख 92 हजार 800 करोड़ रुपये की घोषणाओं, 22 मार्च से दी गई टैक्स रियायत की वजह से हुए 7,800 करोड़ रुपये के रेवेन्यू लास की प्रतिपूर्ति तथा रिजर्व बैंक द्वारा की गई अलग-अलग घोषणाओं के आठ लाख करोड़ रुपये भी इसी में शामिल हैं। सरकार ने 56 दिनों में 20.97 लाख करोड़ रुपये के केंद्रीय राहत पैकेज की घोषणा की, जिनमें से विगत पांच दिनों में 11 लाख करोड़ रुपये का एलान हुआ। इन पांच दिनों में की गई पांच प्रेस कांफ्रेंसों में वित्त मंत्री ने अपने साढ़े सात घंटे लगाए और 51 घोषणाएं कीं। इस मसले पर रविवार को उनकी आखिरी प्रेस कांफ्रेंस में आठ घोषणाएं की गईं।

ये घोषणाएं मनरेगा, स्वास्थ्य, कारोबार, कंपनी एक्ट, ईज आफ डूइंग बिजनेस, पब्लिक सेक्टर एंटरप्राइजेज और राज्य सरकारों को लेकर थीं। इसमें सबसे बड़ी बात यही कही गई कि स्ट्रैटजिक सेक्टर को छोड़कर बाकी पब्लिक सेक्टर अब प्राइवेट सेक्टर के लिए भी खोल दिए जाएंगे और यदि कोरोना लाक डाउन की वजह से किसी कंपनी को नुकसान हुआ है तो एक साल तक उस पर दिवालिया की कार्रवाई नहीं की जाएगी। इसके पूर्व शनिवार को उन्होंने कोयला क्षेत्र पर सरकार के एकाधिकार को खत्म करने की घोषणा करते हुए माइनिंग ब्लाॅक्स की साझा नीलामी करने, कोल माइनिंग इंफ्रा पर 50 हजार करोड़ खर्च करने की मंशा के अलावा केंद्र शासित राज्यों में बिजली कंपनियों का निजीकरण करने, आयुध फैक्ट्री बोर्ड का निगमीकरण करने, अंतरिक्ष क्षेत्र में निजी भागीदारी की सुविधा देने, छह हवाई अड्डों की नीलामी करने, पीपीपी मोड पर रेडिएशन तकनीक सेंटर बनवाने तथा अस्पताल एवं स्कूल जैसे सामाजिक बुनियादी ढांचे में निजी निवेश के लिए वायबिलिटी गैप फंडिंग बदलाव की बात कही थी। गुजरे दो दिनों में उन्होंने 48,100 करोड़ रुपये के राहत पैकेज का एलान किया। मार्के की बात यह कि रविवार को उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अंदाज में चार एल लैंड, लेबर, लिक्विडिटी और ला की बात की।

केंद्रीय राहत पैकेज एक साथ बीस लाख करोड़ से अधिक की 51 घोषणाएं, वह भी बतौर राहत, सुनकर कोई भी सम्मोहित हो सकता है। इस ढोल की पोल यह कि केंद्र सरकार का वार्षिक बजट तकरीबन तीस लाख करोड़ रुपये का हुआ करता है और आरबीआइ साल भर में करीब पांच लाख करोड़ रुपये जारी करता है। मानकर यही चलिए कि इन्हीं 35 लाख करोड़ रुपयों की बदौलत देश का जीडीपी 6-7 प्रतिशत रहता है। अब जबकि जीडीपी शून्य पर है और निगेटिव की ओर उसके प्रयाण का खतरा उत्पन्न हो गया है, तब 20 लाख करोड़ रुपये हमें कहां खड़ा कर पाएंगे, यह सोचने की बात है। लाक डाउन के कारण दो महीने से देश की सारी गतिविधियां बंद हैं।

आयात-निर्यात, टैक्स रियलाइजेशन, आवागमन, बाजार-व्यापार, होटल-रेस्तरां, पर्यटन-देशाटन-तीर्थाटन, धार्मिक-सामाजिक व्यवहार सब बंद है। जीडीपी के शून्य पर पहुंचने का यही सबब है। जब सामान्य परिस्थितियों में 6-7 प्रतिशत जीडीपी पर 35 लाख करोड़ रुपये से देश चलता-फिरता नजर आता है तो शून्य जीडीपी पर 20 लाख करोड़ रुपये से क्या-क्या हो सकता है? मंदी के दिनों में देश को चलाना अपेक्षाकृत आसान होता है, लेकिन अभी तो सीधे-सीधे ब्रेकडाउन की स्थिति है। वर्तमान और भविष्य के प्रति आशंकाओं के माहौल में शून्य से प्रारंभ करने की नौबत है।

यह बात बहुत सारे लोग भूले नहीं होंगे कि कोविड संक्रमण काल के पूर्व साल भर के अंदर सरकार ने मंदी के दौर में इंफ्रा डेवलपमेंट के लिए सौ करोड़ और रीयल इस्टेट सेक्टर के लिए 25 हजार करोड़ के केंद्रीय राहत पैकेज की अलग-अलग घोषणा की थी। इनके भुगतान का दारोमदार बैंकों पर था, जिसका उन्होंने जोखिम नहीं उठाया। इस बार के भारी-भरकम राहत पैकेज का अधिकांश हिस्सा उन्हीं बैंकों के सिर पर डाला गया है। यह कुल मिलाजुलाकर फाइनांसियल राहत पैकेज है, जिसके तहत बैंकों को बड़ा हिस्सा बतौर कर्ज देने को कहा गया है, जबकि पावर सेक्टर सहित कुछ अन्य मदों में सरकार की गांरटी की बात कही गई है। सरकार की गारंटी वाले हिस्से का बैंक यदि रियलाइजेशन कर भी दें तो और वह खरा न उतरे तो सरकारी बजट पर बोझ बढ़ना तय है। ऐसे भी सरकारी गारंटी वाले कर्जों पर औसतन 15 फीसद के लेनदार कर्ज वापसी से हाथ खड़े ही कर देते हैं। बाकी मसलों पर यह बताने की जरूरत नहीं कि कर्ज का व्यवसाय देनदार और लेनदार के आपसी व्यवहार पर निर्भर करता है।

अर्थव्यवस्था भविष्य के अनुमानों पर आश्रित होती है, आर्थिक फैसलों को वर्तमान के संदर्भ में देखना अक्सर भुलावा साबित होता है, जबकि पैकेज में कर्ज, कर्ज और कर्ज की बातें अधिक हैं। तकरीबन 93.8 लाख करोड़ रुपये बतौर कर्ज बाजार में फेंककर और दस लाख करोड़ के एनपीए पर बैठे बैंक पहले से ही हांफ रहे हैं। कर्ज के भरोसे चल रहे छोटे-बड़े उद्योग हैरान-परेशान हैं। इसके बावजूद राहत के नाम सरकार उन एनबीएफसी और रीयल इस्टेट्स को भी कर्ज देने की बात कह रही है, जिनको बैंक कर्ज देने लायक भी नहीं मानते क्योंकि वे पहले ही बहुत कुछ डुबा चुके हैं। ऐसे में कौन सी फर्म एक बार पुनः कर्ज लेना चाहेगी और बैंक उनको किस हौसले से कर्ज देंगे, यह सोचने की बात है। अभी तो सारा कारोबार चुनौतीपूर्ण भविष्य की ओर इशारा कर रहा है। कोरोना क्राइसिस से निपटने में असमर्थ पाकर सरकार ने राहत की अधिकतर जवाबदेही बैंकों की ओर मोड़ रही है, जबकि कर्ज बाजार से त्रस्त बैंक हाल-हाल तक लोन राइट आॅफ के कर्मकांड में जुटे हुए थे ताकि उनका बैलेंस शीट साफ-सुथरा हो सके। यही वह कर्ज बाजार और विशाल एनपीए का जमाना है, जिसके कारण बैंक विलयीकरण का विराट निर्णय लेना पड़ा था।

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बैंकों का समीकरण कुछ इस प्रकार है। कोविड प्रवेश के पूर्व रिजर्व बैंक की सख्ती, घाटा और घोटालों के कारण बैंक कर्ज देने में आनाकानी करने लगे थे। ठीक ऐसे ही माहौल में कोविड महामारी नामक विश्वव्यापी हलचल का प्रवेश भारत में हुआ तो उसी रिजर्व बैंक ने एनबीएफसी, म्युचुअल फंड आदि के लिए चार लाख करोड़ रुपये जारी कर सस्ते कर्ज का फरमान लाया, लाभांश देने से मना किया, फिर भी कर्ज बाजार परवान न चढ़ा तो बैंकों ने रिवर्स रैपो के बतौर भारी रकम आरबीआइ को लौटा दी। कुछ ऐसी ही परिस्थितियों में अचानक राहत पैकेज उभरा। बदहाली के कारण जो सरकार महीना भर पहले  तीन महीने तक उद्योगों से कर्ज वसूली न करने का बैंकों पर दबाव बना रही थी, वही सरकार अब उद्योगों को कर्ज लेने को उकसा रही है। कर्ज, कर्ज और कर्ज का आलम यह कि कोविड संक्रमण के पहले सरकार बैंकों को कर्ज के बोझ से उबारने का उपक्रम कर रही थी, वही सरकार बीच में कर्ज सस्ता कर बैंकों को पुश करने में जुट गई और अब कह रही है नया कर्ज दो। जो उद्योग दो वर्षों से अपने कर्ज की रिस्ट्रस्कचरिंग की गुहार लगा रहे थे, वे ही अब किस हौसले से कर्ज लेंगे, यह देखने वाली बात होगी। जो सामान्य परिस्थिति में कर्ज लेने का हौसला नहीं दिखा रहे थे, वे अत्यंत विषम हालात में कर्ज की ओर रूख करेंगे तो उनकी हालत कैसी होगी? यह एक खुली सच्चाई है कि कर्ज के भंवरजाल के कारण एसबीआई को चार महीने में एफडी की रेट तीन बार घटानी पड़ी और सेविंग्स अकाउंट का रेट गिराते-गिराते तीन फीसद की हद तक ले आना पड़ा। इन हालात से गुजर रहे बैंक एक बार फिर कर्ज बाजार में किस प्रकार उतरते हैं, यह देखना-जानना भी दिलचस्प ही होगा। बैंक जमाकर्ताओं के भरोसे चलते हैं, जबकि हालात ऐसे बन गए हैं कि जमाकर्ताओं की ही गर्दन पर छुरी चल रही है। महंगाई दर छह प्रतिशत के सापेक्ष सेविंग्स अकाउंट पर तीन प्रतिशत रिटर्न जमाकर्ताओं की आशाओं पर कितना भारी तुषारापात है, यह तो समझना ही होगा। जमाकर्ता कहां रोयें और बैंक करें तो क्या करें?

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