कुमार जगदलवी की चुनिंदा पांच कविताएं

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  • इंसानियत ही मजहब

हम-तुम, जब भी मिलें

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अपने, आपे में मिलें

तुम, तुम में ही रहो

मैं, खुद ही में रहूँ।

तुम अपने अक़ीदे में रहो

मैं, अपने यकीं में रहूँ

ना तुम , मुखोटे में रहो

ना मैं , दिखावे में बधूं।

जो तू ,अपना रहमतुल्लाह कहे

तो मैं , अपना राम-राम कहूँ

तू ,सत् श्री आकाल कहे

तो मैं, बा-आदाब कहूँ।

लफ्जों का ही है,

बस, यहाँ हेरा-फेरी

ना कोई कमतर ,

ना ही अकबर है कोई।

सिलसिला यूँ ही चले

एक ही अंबर के तले

एक दूजे का बना

अपना-अपना सम्मान रहे।

जिसे मैं ,चाँद कहूँ

तू , अपना महताब कहे

कहा जिसे, आफ़ताब तूने

मैं अपना अमिताभ कहूँ।

बाग़-ऐ-अम्नो मिल्ल्लत-ऐ-जहाँ

मौसमे सदाबहार चले

गुलमोहर बन के फूटे तू

मैं बन के हरसिंगार खिलूँ।

आए जो ईद-औ-दीवाली

एकदूजे का बनते मेहमान रहें

ईश पर , मेरा विश्वास अटल

रब पर , तेरा ईमान रहे

चलना इस रवायत का

बड़ा मुश्किल काम नहीं

निभाना बस इतना हैकि

तू भी इंसान रहे

मैं भी इंसान रहूँ।

  • मुद्दों के हाशिये पर

एक है जो मुद्दा बना रहा है

एक है जो मुद्दा उठा रहा है

एक है जो मुद्दा भटका रहा

एक और है जो मुद्दा भुना रहा है

इनके आलावा कुछ हैं ,जो मुद्दे जुटा रहे हैं

कुछ और हैं जो , मुद्दे से मुद्दा भिड़ा रहे हैं

परंतु उनका क्या ?

जो ना मुद्दा बन पा रहे हैं

ना ही मुद्दे में शामिल किए जा रहे हैं

बस उनकी नियति में है

मुद्दे और मुद्दों के बीच फंस जाना

हलाकान और हलाकान होते जाना

मुद्दों से इतर इनकी जिजीविषा

हाशिये पर है

और हाशिये पर कुछ लिखना

व्याकरण में मनाही है।

  • तुम्हारी ऐसी-तैसी

अब बंद करो मतदान तुम्हारी ऐसी-तैसी,

चुनाव का न लो नाम तुम्हारी ऐसी-तैसी।

जनमानस को बेच रहे हो सत्ताकामी भड़वे,

लोकतंत्र में वोटतंत्र का बाजार सजी हो जैसे।

राज्यसभा भी बची नहीं लहराए नोटतंत्र की झंडी,

चुनाव-चुनाव विधायक पर बोली प्रांत-प्रांत घोड़मंडी।

तुम आए थे तंत्र बदलने दे-दे बदलाव का नारा,

चार कदम अभी चले नहीं गणतंत्र हुआ बेचारा।

संविधान का लेकर नाम तुम देते रोज दुहाई,

छद्म-छल से चीर हरण कर करते तुम अधमाई।

देख रहा जन चर-चर करती लोकतंत्र की चरपाई

मूक-बधिर कर घर-आँगन को चला रहे तानाशाही।

दंभ किसी का रहा नहीं हिरणकस्यप हो या रावण ,

किस खेत की मूली हो तुम जब बचा नहीं अहिरावण।

बज जायेगी पुंगी एक दिन सबको मिला है जैसी-तैसी,

मान गए सब ठीक-ठाक है, न मान तुम्हारी ऐसी-तैसी।

 

  • हिजड़ा

हिजड़ा हूँ मैं

हाँ , मैं हिजड़ा हूँ

जन्म से हिजड़ा

मेरा कोई गोत्र नहीं

आपके समाज में गढ़ी गई

ऊंच-नीच, अगड़ा-पिछड़ा

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य – शुद्र

हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई

गोरी-काली, हब्शी, यहूदी-पारसी

जैसी कोई स्वनामधन्य पहचान नहीं

सिर्फ हिजड़ा हूँ।

ना स्त्री, ना पुरुष

आपके ही विधाता ने

मेरा गढ़ा है यह स्वरुप।

मैंने भी आप की तरह ही

पुरुष वीर्य और स्त्री के अंडो

के मिलन से आकार लिया

किसी कोख में सहेजी गई

फिर जन्म दी गई मैं

एक माँ के आँचल में

एक पिता के आँगन में।

मेरी तरह ही जन्म दिए गए थे

मेरे ही उस कुल में

शेष अन्य मेरे भाई- बहन

जो आज भी आपके समाज का एक हिस्सा हैं

और मैं तिरष्कृत , उपेक्षित , अनाम सा

बिन गोत्र, बे – कुल, अंतहीन किस्सा हूँ

बस मैं एक हिजड़ा हूँ ।

आपने शेष को अपना नाम दिया

कुल, खानदान दिया, घरद्वार

जर, ज्ञान- रोज़गार दिया

और मुझे खुद अपने जड़ से

नोंचकर एक हिजड़े का उपनाम ।

ताज महल तरासने लायक दो हाथ

हिमालय को फतह कर सकने लायक दो पैर

गेलेक्सी को खंगाल देने वाली आँखे

मंगल तक को भेदने वाली इच्छाएं

अंतरजाल के तन्तुओं से भी बारीक़ दिमाग़

क्या नहीं था

आपके ही विधाता द्वारा

दी गई मेरे इस शरीर में

क्या कमी थी मुझमें

सिर्फ एक अनंग की ही ना ।

उस अनंग की बिना पर आपने

मुझे किन्नर, हिजड़ा, ट्रांस- जेंडर

छक्का, नामर्द और ना जाने क्या-क्या

नाम पे नाम और उपनाम दिया।

बावजूद इसके , हाय री मैं

अपने शेष भाई-बहनों के

जन्म पर आपकी ही देहरी पर

अपने छीन लिए गए ताज, हिमालय

गेलेक्सी, मंगल और अंतरजाल तक को

भेद सकने लायक जज्बों को बिखेरता

हनन होते देखने को विवश होता हुआ

अपने उन्हीं दोनों पैरों को मयूर बना

हाथों की हथेली से थाप देने लगी।

  • बदलाव तू कहां है ?

उसने कहा

बदलाव चाहिए

बदलाव के लिए

उनने भी कहा था

बदलाव ही है उपचार

बदलाव के लिए

जैसे जरुरी है

सांप का ज़हर

सांप काटे के

ईलाज के लिए

वैसे ही यह बदलाव

जरुरी है

बदलाव के लिए

फिर

इसने कहा

ना ना बहुत नाकाफ़ी

नाकाम और नाकारा है

वह बदलाव

इस बदलाव के लिए

हम बदलाव करेंगे

पुराने बदलावों में

एक और नया

नए बदलाव के लिए

उनने जो किए थे बदलाव

वो समुचित नहीं थें

ना ही थे कारगर बदलाव

उस बदलाव के लिए

इसीलिए जरुरी आन पड़ा है

फिर से नया बदलाव

बदलाव के लिए

अब!

ये कह रहे हैं,

बदलाव के समर्थकों

हो जाओ तैयार!

चाहिए बस

आपका समर्थन

अभिनव – नव – नूतन

चाकचौबंद , आमूलचूल

बदलाव आज

आज के बदलते परिवेश में

बदलाव के लिए

बदलाव! बदलाव ! बदलाव !

बताओ कितने चाहिए

और कितने करने है बदलाव ?

इस बदलाव, बदलाव, बदलाव

के लिए?

अब तो बदलाव शब्द ने ही

बदल दिए है अपने अर्थ

और शाब्दिक मायने

जैसे सन पचास में संविधान

अवतरण के बाद गणतंत्र

के तक्षण

स्वराज ने

छीजने और छिटकने लगे हैं

इसके वास्तविक अर्थ से

रिसते ध्वनि

जो प्रस्फुटित कर रहे हैं

स्वार्थ, स्वार्थ

और निरे स्वार्थ के

अवगुंजन से विस्फोटित

विस्फरित स्वर।

अब मैं

पूछता हूँ तुमसे

बतलाओ बदलाव

तू कहां हैं

कहां है तू

बदलाव ?

परिचय

कवि – कुमार जगदलवी ( साहित्यिक नाम)

मूल नाम : सुनील जायसवाल

 

शिक्षा: स्नातक, कलकत्ता यूनिवर्सिटी

निवास : रायपुर (छत्तीसगढ़)

कर्मक्षेत्र : पत्रकारिता , पश्चिम बंगाल, असम, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ से प्रकाशित प्रमुख समाचार पत्रों में मुख्य संवाददाता, विशेष संवाददाता, नगर संवाददाता के तौर पर 1996 से 2012 तक सेवा।

साहित्य: देश के विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं में गीत, गज़ल, कविता, व्यंग्य व हास्य लेख व समसामयिक विषयों पर लेखन।

प्रकाशन: एडू जंक्शन , शैक्षणिक टैब्लॉयड मासिक , लक्ष्य सुगम्य छत्तीसगढ़, (प्रतियोगी परीक्षा मासिक)

संपर्क : मोबाइल- 7999515385, वाट्सएप – 9644254504

 

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