कसम से तीसरी कसम तक के मायने समझने के लिए इसे पढ़ें

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भारत यायावर
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कसम क्या है? एक प्रण,एक संकल्प, एक प्रतिज्ञा, एक वचन, एक आत्मसंयम की उद्घोषणा! कुछ लोग बात-बात पर कसम खाते हैं। कुछ लोग मां की कसम खाते हैं। कुछ लोग धर्मग्रंथों की कसम खाते हैं, कुछ लोग ईश्वर की कसम खाते हैं। लेकिन ये बार-बार अपने वचन और संकल्प को तोड़ते रहते हैं। कसम खाए ही जाते हैं तोड़ने के लिए। कसम एक इरादा है, जिस पर टिके रहना सबसे मुश्किल है। इसमें जोखिम है। विरले ही टिके रह पाते हैं। इरादे बांधता हूं, तोड़ता हूं, छोड़ देता हूं/ कहीं ऐसा न हो जाए, कहीं वैसा न हो जाए!

कसम एक तरह का इरादा है, जो फलीभूत इसलिए नहीं होता है, क्योंकि उसमें आशंका है। परिणाम को लेकर चिंता है। एक झिझक है। बुरा हो जाने का भय है। इसलिए संकल्प को कार्यरूप में परिणत करना मुश्किल है।

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मत परिवर्तित होता रहता है। भाव और विचार भी बदलते रहते हैं। फिर भी मनुष्य एक प्रण पर टिके रहने के लिए कसम खाता है। कसम पर टिके रहने के लिए वह अपनी सबसे प्रिय वस्तु को लगाकर कसम खाता है। एक रोमांटिक कथाकार सिगरेट के ऐसे प्रेमी थे कि उन्होंने एक उपन्यास का शीर्षक ही रखा, “जलती सिगरेट की कसम”। साहिर लुधियानवी ने प्रेमिका के फूल से आरिज अर्थात कपोल की कसम खाकर यह शेर लिखा : तू कहीं भी हो,तेरे फूल से आरिज की कसम, तेरी पलकें मेरी आंखों पर झुकी रहती हैं।

महाभारत में भीष्म और कृष्ण दो चरित्र हैं, दोनों कसम खाते हैं। दोनों में भीष्म अपनी कसम पर कायम रहते हैं और कृष्ण क़ायम नहीं रह पाते। राम का वचन आज भी आदर्श है, पर भीष्म का नहीं। कारण यह है कि भीष्म की प्रतिज्ञा ही अविवेकपूर्ण है। इसी से पतन की शुरुआत होती है। कृष्ण का विवेकशीलता के साथ किया गया प्रणभंग भी आदर्श है। आदर्श अपने आप में एक प्रेरक प्रसंग होता है।

फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी में हिरामन के द्वारा कसम खाना बिल्कुल नए संदर्भ में होता है। उसकी कसम एक मेहनतकश आदमी का अपनी मुश्किलों से निकलने की और दोबारा ऐसी परेशानियों में न फंसने का संकल्प है। यह भोला आदमी अपने सहज ज्ञान से परिपूर्ण है और संकट में पड़ कर निकल आता है। फिर ऐसे संकट में न पड़ने की कसम खाता है। कसम खाना ऐसे कर्म से तौबा करना भी है। और हर कसम में दिल का जुड़ना और टूटना भी है। कसम एक भाव से दूसरे भाव को अलग-थलग करती है। साहिर लुधियानवी ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है : कसम न हो तो भावनाएँ जुदा-जुदा सी लगें, न दिल इस तरह से जुड़े,न दिल इस तरह से टूटे।

फणीश्वरनाथ रेणु मानवीय क्रिया-व्यापार के अंतस्तल में जाकर जीवन की अलग-अलग रूप-छवियों और भाव-स्थितियों को रूपायित करते हैं। वे लोक-जीवन में अपनी भाव-संवेदना को समाहित कर बिल्कुल भिन्न अर्थसत्ता का उद्घाटन करते हैं। तीसरी कसम खाने के बाद हिरामन रेलगाड़ी में जाती हुई हीराबाई की ओर दृष्टि भी नहीं डालता। लेकिन उसके अंतर्मन में समाहित यह कसम जीवन भर उसका पीछा छोड़ने वाली नहीं!

गुलेरी जी की कहानी “उसने कहा था” में भी यह कसम है। उसने कहा था लहना सिंह के लिए एक वचन भर नहीं है, यह उसके अंतर्मन में एक दृढ़ संकल्प और निश्चय को स्थापित करने वाला है, इसीलिए वह रक्षा-भाव से प्रेरित होकर जान जोखिम में डालता है।

हिरामन की कसम किसी प्रिय वस्तु को लगाकर नहीं खाई गई हैं। ये कसमें अपने अंतर्मन में खाई गई हैं। अपने आप से किया गया वायदा है। आत्म-संकल्प है। व्यवहारिक जगत में क्रियाशील रहने के लिए यह जरूरी है। हिरामन और हीराबाई का मिलना एक दुर्लभ संयोग है और यही जीवन की पहचान है। इसे अंतर्मन में समाहित कर आगे भी जीना है। मिले, दिल खिले, और जीने को क्या चाहिए! लेकिन यह कसम ही है, जो जीवन के इन प्रसंगों को जीवनभर उजागर किए रहती है।

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