करुणा निध के निधन पर बिहार में दो दिनों का राजकीय शोक

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पटना/चेन्नई। द्रमुख प्रमुख एम करुणा निधि के मंगलवार को निधन के बाद केंद्र ने एक दिन के राजकीय शोक की घोषमा की है, वहीं बिहार सरकार ने 8-9 अगस्त को राजकीय शोक की घोषणा की है। उनके अंतिम संस्कार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल होंगे।

करुणानिधि का सफरः वो फिल्मों की कहानी लिखता था। कहानी में हीरो का कैरेक्टर लिखता था। फिर कहानी असली हो गई। वो खुद हीरो बन गया। फिर मुख्यमंत्री बन गया। एक-दो नहीं, पूरे पांच बार। वही करुणानिधि है।

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“लोग कहते हैं कि सत्रह लाख साल पहले एक आदमी हुआ था. उसका नाम राम था। उसके बनाए पुल (रामसेतु) को हाथ ना लगायें। कौन था ये राम? किस इंजीनियरिंग कॉलेज से ग्रेजुएट हुआ था? कहां है इसका सबूत?”

एम करुणानिधि, सितंबर 2007

ऐसा बयान जो केंद्र में शासन कर रही बीजेपी के तन-बदन में आग लगा दे। जिस देश में राम के नाम पर सरकारें बनाई और गिराई जाती रही हैं, यह बयान दक्षिण भारत के सबसे दिग्गज नेताओं में से एक एम करुणानिधि और डीएमके की राजनीति को, और खुद तमिलनाडु राज्य की राजनीति को समझने के लिए बहुत काम का है। जिस एंटी-ब्राह्मणवादी राजनीति का प्रतीक इक्यानवे वर्षीय करूणानिधि बीती आधी सदी से बने हुए थे, उसकी बुनियाद यही आक्रामक तेवर है, जो उन्हें अपने राजनैतिक गुरु सी एन अन्नादुराई और वैचारिक आदर्श ‘पेरियार’ से विरासत में मिला था। भगवान के अस्तित्व से इनकार करने वाला नेता, जिसे खुद उसके अनुयायियों ने ‘भगवान’ बनाकर पूजना शुरू कर दिया।

करुणानिधि की पैदाइश 1924 की है। थिरुक्कुवालाई गांव। अब उस घर को, जहां करुणानिधि पैदा हुए थे, म्यूज़ियम में बदल दिया गया है। म्यूज़ियम में उनकी पोप से लेकर इंदिरा गांधी तक के साथ तस्वीरें लगी हैं। याद रखें, तमिलनाडु में ‘तस्वीर की राजनीति’ बहुत चलती है।

करुणानिधि का परिवार आर्थिक रूप से कमज़ोर था, लेकिन वे उत्साही बालक थे। पढ़ने और आगे बढ़ने को तैयार। जिस समुदाय से वे आते हैं, वो पारंपरिक रूप से संगीत वाद्ययंत्र ‘नादस्वरम’ बजाने का काम किया करता था। बचपन का किस्सा है, करुणानिधि गांव के मंदिर में संगीत सीखने जाते थे। वादन तो जाने कितना सीख पाए, पता नहीं। लेकिन यहीं गुरु ने बालक को जातिगत भेदभाव का पहला पाठ पढ़ाया। तथाकथित निचली जाति के बालक करुणानिधि को मंदिर में कमर के ऊपर कोई कपड़ा पहनकर प्रवेश नहीं मिलता था। उन्हें धुनें भी कुछ ही सिखाई जाती थीं. बालक ने देखा, जातिगत भेद संगीत में भी पसरा हुआ था। संगीत से मन उचट गया, लेकिन राजनीतिक प्रतिरोध का दरवाजा खुल गया।

तरुणावस्था में ही वे विचारक ई वी रामास्वामी ‘पेरियार’ के विचारों से बहुत प्रभावित हुए और उनके खड़े किये ‘आत्मसम्मान’ के आन्दोलन से जुड़ गए। यह आन्दोलन गैर-ब्राह्मणवादी भावों से ओतप्रोत था। द्राविड़ जन को ‘आर्यन’ ब्राह्मणवाद के खिलाफ उठ खड़े होने को आंदोलित कर रहा था।

पढ़ाई, लेखन और लड़ाईः करुणानिधि 14 साल की उम्र में ही राजनीतिक प्रतिरोध की दुनिया में प्रवेश कर गए थे। शुरुआत हुई ‘हिंदी-हटाओ आंदोलन’ से। जब 1937 में हिन्दी भाषा को स्कूलों में अनिवार्य भाषा की तरह लाया गया, पेरियार की विचारधारा से प्रभावित तरुण युवा विरोध में सड़कों पर उतर आए। करुणानिधि भी इन्ही में से एक थे। उन्होंने कलम को अपना हथियार बनाया. लिखना शुरू कर दिया था और नाटक, पर्चे, अखबार, भाषण उनके हथियार बन गए।

वे कोयम्बटूर में रहकर व्यावसायिक नाटकों के लिए स्क्रिप्ट्स लिखने का काम कर रहे थे, जब पेरियार और अन्नादुराई की उन पर नज़र पड़ी. उनकी ओजस्वी भाषण कला और लेखन शैली को देखकर उन्हें पार्टी की पत्रिका ‘कुदियारासु’ का संपादक बना दिया गया। यह 1947 में पेरियार और उनके सिपहसालार अन्नादुराई के बीच उभरे मतभेदों और 1949 में नई पार्टी ‘द्रविड़ मुनेत्र कझगम’ की स्थापना के पहले की बात है। देश की आजादी के साथ ही पेरियार और अन्नादुराई के रास्ते अलग हो गए। अन्नादुराई ने मुख्यधारा राजनीति का हाथ थामा।

और मैदान में आई डीएमकेः बंटवारे के बाद करुणानिधि अन्नादुराई के साथ गए। नई पार्टी में उनके नए सिपहसालार बने। पार्टी के पहले खजांच। नई पार्टी के लिए पैसा जुटाने की ज़िम्मेदारी अकेले उठाई, लेकिन इस बीच वे सिनेमा की ओर निकल गए थे। विचारधारा की खेती सत्तर एमएम के परदे पर हो रही थी। 1952 में उनकी लिखी ‘परासाक्षी’ आई। मेलोड्रामा से भरपूर ब्लाकबस्टर। गरीब तमिल नायक, जिसे आततायी उत्तर-भारतीय साहूकारों, ब्राह्मण नेताओं और असंवेदनशील सरकार का अत्याचार सहना पड़ता है। फिल्म आखिर में द्राविड़ अस्मिता की आवाज बुलंद करती है, जिस विचार पर उनकी पार्टी की नींव रखी गई थी। सत्तावन में पार्टी पहला विधानसभा चुनाव लड़ी, और करुणानिधि चुने गए 13 विधायकों में शामिल थे।

बस दस साल लगे राजनीति को पलटने में. 1967 में यही तेरह विधायकों वाली पार्टी ने पूर्ण बहुमत हासिल किया और अन्नादुराई राज्य के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने। दक्षिण भारत में उबल रहा भाषाई विवाद और ‘एंटी-हिंदी’ सेंटिमेंट अपना खेल कर गया था। सड़सठ में कांग्रेस का तमिलनाडु में ऐसा सूरज अस्त हुआ कि आज तक वो अन्य द्रविड़ पार्टियों की ‘सहयोगी’ ही बनी हुई है।

हीरो वर्सेस लेखकः सत्ता संभालने के दो ही साल बाद 69 में अन्नादुराई की केंसर में मौत हो गई। इसका मतलब था करुणानिधि का सीधे सत्ता में आना। वे नए मुख्यमंत्री बने, और 71 में दोबारा अपने दम पर जीतकर आए। यहां सिनेमाई हीरो एम जी रामचंद्रन उनके नए साथी बने, लेकिन यह साथ ज्यादा नहीं चला। एमजीआर ने अपनी नई पार्टी बना ली, नाम अन्नाडीएमके (AIADMK)। फिर 1977 में दोनों पहली बार आमने-सामने उतरे। यह सिनेमाई मुकाबला था। एक ओर लेखक, दूसरी ओर हीरो। हीरो अपनी लोकप्रियता की ताल ठोकता। लेखक को ये गौरव की उसकी कलम ने ही हीरो को बनाया है, लेकिन जनता तो परदे पर हीरो को ही देखती है। 1977 में एमजीआर ने करुणानिधि और उनकी पार्टी को चुनावों में ऐसा हराया कि फिर वो एमजीआर के जीते जी दोबारा सतह पर नहीं आ पाए। डूब ही गए। पता चला कि सिनेमा के दर्शक ही चुनाव के वोटर थे। कलम वाले लेखक की परदे वाले हीरो के आगे हमेशा हार हुई।

राजनीति की महाभारतमें कौरवबनेः दस साल ऐसा ही चला। फिर 1987 में एमजीआर की मृत्यु के बाद AIADMK में सत्ता की लड़ाई छिड़ गई। एक ओर थीं एमजीआर की पत्नी जानकी और दूसरी ओर पार्टी की युवा नेता जे जयललिता। इसी ने मौका दिया करुणानिधि को खोई हुई राजनैतिक ताकत वापस हासिल करने का। उधर जयललिता उनकी विरोधी पार्टी पर अपनी पकड़ मज़बूत बना रही थीं, इधर करुणानिधि दावा कर रहे थे कि ‘द्रविड़ नाडु’ में उन्हें एक ब्राह्मण नेत्री कैसे चुनौती दे सकती हैं। जयललिता को कमज़ोर प्रतिद्वंद्वी समझना ही शायद करुणानिधि की सबसे बड़ी राजनैतिक भूल साबित हुई। वे भूल गए कि राजनैतिक अस्मिताएं कभी एकायामी नहीं होतीं, कि तमिलनाडु के लोग द्रविड़ अस्मिता के साथ स्त्री अस्मिता और एक वंचित गरीब वाली अस्मिता भी रखते हैं। जयललिता ने इन्हीं दोनों को अपनी ताकत बनाया।

फिर DMK को सबसे बड़ा धक्का लगा 1989 में, जब भरी विधानसभा में जयललिता की साड़ी खींची गई। राजनीति के अखाड़े को किसी मिथकीय मल्टीमीडिया सिनेमा की तरह जीने वाली तमिलनाडु के जनता ने इसमें ‘महाभारत’ के द्रौपदी चीरहरण प्रसंग का अक्स देखा और पुरुषों से भरी राजनीति में अचानक जयललिता प्रतिरोध की मूरत बन गईं। 1991 में हुए चुनावों में AIADMK ने 224 सीटें जीतीं और DMK को सिंगल डिजिट्स पर समेट दिया।

नब्बे का वो दिन है और आज का दिन है, तमिलनाडु की राजनीति करुणानिधि और जयललिता के बीच सत्ता के अदल-बदल की राजनीति बन गई थी। हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन होता था और भरपूर होता था। हालांकि इस बार सत्ता वापसी में DMK कामयाब नहीं हो सकी।

दोनों की राजनीति में समानताएं भी हैं। दोनों पार्टियों के राजनेताओं पर करप्शन के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। दोनों ही पार्टियां ‘मुफ्त तोहफों’ की राजनीति को चुनाव जीतने के लिए अपना प्रमुख हथियार बनाती रही हैं और इस बीच दक्षिण से ही बैठकर केंद्र की राजनीति की दिशा-दशा तय करती रही हैं। वर्तमान सरकार को छोड़ दें तो बीते दो दशक में केंद्र में कोई सरकार इन दोनों में से किसी एक पार्टी के समर्थन के बिना नहीं बनी है।

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