आनंद बाजार पत्रिका ने संपादकीय में राजनाथ पर तंज कसा

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रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह

आनंद बाजार पत्रिका (बांग्ला के दैनिक अखबार) ने संपादकीय में राजनाथ सिंह के शस्त्र पूजन पर तंज कसा है। अखबार ने राफेल पर ऊं लिखने पर सवाल उठाया है। तानाशाही- शीर्षक से लिखे संपादकीय में राफेल के पूजन पर सवाल खड़ा किया है। बांग्ला अखबार के इस संपादकीय का अनुवाद किया है प्रियंका सिंह नेः

जो लोग विज्ञान-तकनीक के क्षेत्र से संबंध रखते हैं, क्या उन्हें धार्मिक या अंधविश्वासी नहीं होना चाहिए? या जो व्यक्ति ज्योतिषी की बताई अंगूठी धारण करता है, कोई शुभ काम करने से पहले मंदिर में पूजा करना नहीं भूलता, या बिल्ली के रास्ता काट देने पर गाड़ी रोक देता है, विज्ञान-तकनीक के क्षेत्र में उसके ज्ञान पर भरोसा नहीं किया जा सकता? यह बात अक्षरशः सत्य होती तो भारत में लगभग आधे बीमार लोग गलत इलाज के चलते जान गँवा बैठते, कई और पुल धंस जाते, चंद्रयान पृथ्वी का घेरा पार ही नहीं कर पाता।

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क्योंकि इस देश में अनेक डॉक्टर, वैज्ञानिक, विज्ञान के अध्यापक, बड़े इजीनियर ऐसे मिलेंगे, जिनकी अंगुलियों में ग्रह-शांति की अंगूठियाँ, बाँहों पर जंतर या ताबीज, कलाई में लाल-पीले धागे और कमीज की पॉकेट में आशीर्वादी फूल दिखाई पड़ जाते हैं। आधुनिकता के दृष्टिकोण से विज्ञान से विज्ञानेतर विश्वासों का विरोध जितना स्पष्ट और अधिक है, उत्तर-आधुनिकता कहती है कि भारत जैसे देश में यह विरोध असल में उतना नहीं है।

एक ही व्यक्ति में आधुनिकतम तकनीक का ज्ञान और धार्मिक विश्वास या पुरातन अंधविश्वास एक साथ पाये जा सकते हैं। लेकिन मूल प्रश्न यह नहीं है। प्रश्न यह है कि विज्ञान और वैज्ञानिक चिंतन-पद्धति के विस्तार के बाद भी मन में अंधविश्वास का अंधकार क्यों बचा रह जाता है? किताबों में लिखी-पढ़ी गई तार्किकता या वैज्ञानिकता को मन जीवनदर्शन में क्यों नहीं ढाल पाता?

कुछ दिन पहले इसरो-प्रमुख के. शिवन के चंद्रयान-प्रक्षेपण से पहले पूजा करने या जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ की नवविर्वाचित अध्यक्षा के हाथ में पहने धार्मिक चिन्ह के देखे जाने पर बहुत आलोचना हुई। इस तरह की आलोचना से दो-चार होने पर पहले भी लोग जैसा करते आये हैं, के. शिवन और ऐशी ने भी वही किया…कोई जवाब नहीं दिया और न ही इधर-उधर की कोई बात बनाई। हम मान सकते हैं कि वे अंतःकरण में आधुनिकता को मानते हैं और यह स्वीकार करते हैं कि उनके ये आचरण आधुनिकता के खिलाफ ठहरते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि जो लोग विज्ञानेतर में विश्वास रखते हैं और जो नहीं रखते, दोनों ही पक्ष इस तरह विज्ञान की- आधुनिकता- की हेजिमनी या प्रभुता को स्वीकार करते थे।

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राजनाथ सिंह यहीं पर अपवाद साबित होते हैं। राफेल युद्धविमान पर उन्होंने ओम लिखा, उसके पहियों के नीचे नींबू रखे, विमान की शस्त्र पूजा की। इसकी आलोचना शुरु होते ही वे कह उठे कि उन्होंने जो किया, सही किया, क्योंकि यही भारतीय संस्कृति है, परम्परा है। साहब जितना बोले, स्वाभाविक रूप से मातहतों का दल उनसे चार कदम आगे बढ़कर कहने लगा कि जो इस पूजा की आलोचना कर रहे हैं, वे भारतीय संस्कृति के विरोधी हैं। यही राजनाथ सिंह का माहात्म्य है…ये लोग एक धर्म विशेष की मान्यता को चीख-चीख कर पूरे देश की संस्कृति साबित कर सकते हैं, मानो भारत अपने धर्मनिरपेक्ष चरित्र की तिलांजलि देकर अब एक धार्मिक राष्ट्र बन गया है। और, इससे भी बड़ा माहात्म्य इस बात में है कि इनके इस हास्यास्पद दावे में देश की एक बड़ी आबादी को कुछ भी गलत या असंगत नहीं दिखता।

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आधुनिकता या विज्ञान के प्रभुत्व के विपरीतगामी इस प्रभुत्व को स्थापित कर पाना कम बड़ी उपलब्धि नहीं है। एक दल विशेष की अवमानना का अर्थ हिंदू धर्म की अवमानना और इसका अर्थ देश की अवमानना…देश से विद्वेष, देशद्रोह है, यह सीधा समीकरण एक दिन में स्थापित नहीं किया गया है। राजनाथ सिंह और उनके दल के लोगों ने पूरे लगन के साथ इस समीकरण को स्थापित करने की राजनीतिक संकल्पना पर काम किया है। जो पेड़ लगाया अब उसका फल प्राप्त कर रहे हैं।

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व्यक्तिगत धार्मिक मान्यताओं को मानने का अधिकार व्यक्ति को है। राष्ट्र को यह अधिकार प्राप्त हो सकता है क्या? इसरो के के. शिवन एक व्यक्ति के तौर पर मंदिर में पूजा करने जाते हैं, भारत के प्रतिनिधि के तौर पर नहीं। राजनाथ सिंह भारत के रक्षामंत्री के तौर पर, यानी राष्ट्र के प्रतिनिधि के तौर पर राफेल विमान लेने गये थे। उस क्षण उनकी एकमात्र पहचान यह थी कि वे ही राष्ट्र हैं। इस राष्ट्र का कोई धर्म नहीं है। राजनाथ सिंह व्यक्तिगत रूप से शस्त्र पूजा को मानते हैं या नहीं, यह बात यहीं अप्रासंगिक हो जाती है।

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भारत नामक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र हिंदू धर्म की किसी भी मान्यता का विश्वासी नहीं हो सकता है। इस कारण राजनाथ सिंह ने जो किया, वह भारत के चरित्र के अनुकूल नहीं ठहरता। लेकिन यहीं तो तानाशाही का माहात्म्य साबित होता है। देश के नागरिकों के मन में अब प्रश्न नहीं उठते। प्रश्नहीन प्रजा मूक होकर अधीनता स्वीकार कर ले, शासक को इससे अधिक क्या चाहिए?

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