आदिवासियों की पीड़ा आदिवासी अफसर ही समझ सकते हैं

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गुमला जिले के डुमरी में आदिवासियों की सभा
गुमला जिले के डुमरी में आदिवासियों की सभा

आदिवासियों की पीड़ा आदिवासी अफसर ही समझ सकते हैं। गैर आदिवासी अफसरों से आदिवासियों की पीड़ा समझने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। सामाजिक कार्यकर्ता स्टेन स्वामी ने अपने फेस बुक वाल पर सोदाहरण इसकी जरूरत बतायी है। उन्होंने लिखा हैः

31 मई को गुमला जिले के डुमरी में लगभग 5000 आदिवासी लोगों ने एक जनसभा की। यह गैर-आदिवासी अपराधियों द्वारा 4 आदिवासियों पर क्रूर हमले का विरोध करने के लिए था। बैठक के दौरान, एक प्रतिनिधिमंडल ब्लॉक कार्यालय गया और सरकार और पुलिस अधिकारियों से मुलाकात की। यह आश्चर्य की बात है, वे सभी गैर-आदिवासी थे और उन्होंने आदिवासी समुदाय के खिलाफ इस सांप्रदायिक अत्याचार के बारे में कोई चिंता नहीं दिखाई।

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हमें लगा कि अगर आदिवासी अधिकारी उनकी जगह पर होते, तो कम से कम वे अपनी जिम्मेदारी निभाते। इस दर्दनाक संदर्भ में, हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आदिवासियों के लिए ‘पंचशील’ के प्रावधानों को याद करना मददगार हो सकता है।

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पंचशील के प्रावधानों में जिक्र है कि  “आदिवासियों को अपनी प्रतिभा के अनुसार विकसित करने की अनुमति दी जानी चाहिए। भूमि और जंगल में आदिवासियों के अधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिए। बाहरी लोगों को शामिल किए बिना आदिवासी  आफिसरों को  प्रशासन और विकास के लिए प्रशिक्षित करके नियुक्त किया जाना चाहिए।

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इतना ही नहीं, आदिवासी सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थानों को परेशान किए बिना आदिवासी विकास किया जाना चाहिए। आदिवासी विकास का सूचकांक उनके जीवन की गुणवत्ता होनी चाहिए न कि खर्च किए गए पैसे। लेकिन दुख की बात है कि नेहरू की चिंताओं को पूरी तरह से भुला दिया गया है। शायद यही वजह रही कि गैर आदिवासी अफसरों ने दुमका में आदिवासियों की शिकायत पर ध्यान नहीं दिया। अगर कोई आदिवासी अफसर होता तो शायद वह उनकी पीड़ा समझ सकता था।

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