टीवी चैनेल और अखबार से लोग अब परहेज क्यों करने लगे हैं !

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टीवी चैनेल और अखबार से लोग अब परहेज क्यों करने लगे हैं। सच तो यह है कि क्यों कोई टीवी खोले और प्रायोजित खबरें-तस्वीरें देखे। यही मूल वजह है।
टीवी चैनेल और अखबार से लोग अब परहेज क्यों करने लगे हैं। सच तो यह है कि क्यों कोई टीवी खोले और प्रायोजित खबरें-तस्वीरें देखे। यही मूल वजह है।
  • अमित प्रकाश सिंह

टीवी चैनेल और अखबार से लोग अब परहेज क्यों करने लगे हैं। सच तो यह है कि क्यों कोई टीवी खोले और प्रायोजित खबरें-तस्वीरें देखे। यही मूल वजह है। देश की बड़ी आबादी न तो टीवी चैनेल अब देखती है और न अखबार पढती है। यह मीडिया के इन दो साधनों के क्षरण का ही असर है।

कोरोना महामारी जो फैल रही है, इसने ढेरों सच्चाई से देश की जनता को आगाह कर दिया है। इससे न केवल देश की स्वास्थ्य सेवाओं, अफसरों और नेताओं की पोल खोली, बल्कि उसने लोगों को अखबार न पढ़ने और टीवी न देखने की  भी सलाह दी है। अनुमान है कि देश की पढ़ी-लिखी जनसंख्या की पच्चीस फीसद आबादी न टीवी चैनेल देखती है और न अखबारों को खरीदती और पढ़ती है। पत्रिकाओं की हालत तो और बुरी है। उन्हें प्रकाशित करने वाले अब खुद ही मैटर चुनते हैं। प्रकाशित करते हैं और अपनी पीठ थपथपाते हैं।

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क्योंकि उनकी इच्छा  राज्यसभा सांसद की कुर्सी पर जाने की होती है। यही हाल टीवी चैनेल का है। मालिक दुनिया भर के विभिन्न क्षेत्र  के विशेषज्ञ लोगों से खुद बात करता है। विज्ञापन के लिए बेचैन होता है। हमेशा लेखक, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की कवरेज पर आपत्ति जताता है। कहता है- एक पैसा इनसे नहीं  मिलता। इनसे बेहतर है कि उन्हें कवर करें, जिनकी कलम से विज्ञापन  आएं।

एक पैसा खर्च करके सोना कमाने की चाह वाले ये उद्योगपति अब यह जता चुके हैं कि मीडिया की चरमराती  हालत को  आर्थिक तौर पर इन्होंने ही  चौपट किया है और अब ये खुद  सोशल मीडिया में भी घुसपैठ करके इसे भारतीय दंड संहिता की धाराओं में सिमटाने में जुट गए  हैं।

लेकिन जनता मीडिया के इन धूर्त व्यापारियों को अब जानती-समझती है। कोरोना महामारी में छूत की अफवाह के बाद बड़े-बड़े अखबार प्रसार के अपने वास्तविक रूप पर पहुंच गए  हैं। विश्व में सबसे ज्यादा पढ़े जाने का दावा करने वाले तमाम हिंदी और अंग्रेजी के अखबार अब अपनी असली प्रसार संख्या में सिमट गए  हैं। सरकारी विभाग के नौकरशाह भी अच्छी उगाही में जुटे हैं। आफिस फाइल से प्रसार से उनकी आमदनी खासी बढ़ी है। पहले की ही तरह खूब विज्ञापनों   की राह खुली है। लेकिन असली बिक्री अब कितनी है, वह जग जाहिर है। सरकारी विज्ञापन के लिए आज निजी विज्ञापन  एजंसियां अखबार, पत्रिका और टीवी के साथ सोशल मीडिया को भी विज्ञापन देने लगी हैं। इससे प्रिंट और टीवी   चैनलों की धड़कन बेहद तेज हो गई है।

लेकिन जनता ने कई टीवी चैनेल देखने  बंद कर दिए। क्योंकि उनमे  पाताल में चांद, नाग सुंदरी, दुनिया नष्ट हो जाएगी, उत्तरी कोरिया दुनिया को कर देगा नेस्तनाबूद और लालचीन को कैसे बरबाद किया अमरीका ने और रूस के साइबेरिया में सक्रिय आतंकवादी  टाइप गपबाजी के हथियारबंद साइबर खेलों के  संस्करण टीवी चैनेल पर  देने शुरू कर दिए।

कई  ने तो दो दिन पुरानी विदेशी खबरों का प्रसारण शुरू कर दिया। तब जनता ने पाया कि समय बर्बाद करने से कहीं बेहतर है  देखना, सोशल मीडिया। कम से कम ये सभी पेट्रोल डीजल की कीमत में लगी आग, दिल्ली की सीमा पर 100 दिनों से  रोक रखे गए, बिजली-पानी के अभाव में भी डटे किसान, बेरोजगारी और विकास की कहानी ही नहीं, बल्कि कोविड रोग के बारे में गलत  खबरें देने से तो बचते हैं।

मोबाइल पर ही जनता को  पता लगने लगा  कि उनके लायक खबरें क्या हैं और कैसे वे उसे देख पढ सकेंगे। और उनका भरोसा जमने लगा। वे देखते जो खबरें वे चाहते हैं जानना, वे तो अब सिर्फ सोशल मीडिया में हैं। आखिर वे टैक्स भी दें और अपने इलाकों की खबरों के लिए बेचैन क्यों रहें। रेडियो पर मन की बात और टीवी पर प्रचारजीवी खबरें ही क्यों झेलें। अखबारों के बाद टीवी उद्योग की प्रगति का लेखाजोखा जानने-समझने  वालों ने भी तब अपनी राय सोशल मीडिया के पक्ष में दी। इस राय की वजह थी कि कम से कम सोशल मीडिया में अपनों की  खबरें हैं। जनता के सुख-दुख की बातें तो हैं। हमारे अपने जो चले जाते  हैं इस देश-दुनिया से से, उनकी जानकारी इससे ही मिलती है। अखबार और टीवी चैनेल तो न जाने किस  अलौकिक आनंद में लिपटे  खुद को सत्ता समझे और अपनों को बढ़ावा देने में जुटे हैं, वे तो उन्हीं की राजनीति कर भी रहे हैं और खुद को निष्पक्ष बताते हैं। सोशल मीडिया कमसे कम मुद्दों की  बात तो करता है। यह कुछ खास लोगों की  जयकारा तो  नहीं करता रहता। आसपड़ोस की खबरें देता है। सुशासन की असलियत तो बताता हैं।

टीआरपी की चिंता जरूर इन टीवी चैनेल के मालिकों की है। ये वे टीवी चैनेल हैं, जो खुद को जोरशोर से पुरस्कृत बता कर खुद का ही ढिंढोरा पीटते रहते  हैं। जनता इनकी बात से जुड नहीं पाती। लेकिन ये हर प्रीमियम (प्राइम) टाइम में अपने गाल बजाते दिखेंगे। यह  कभी नहीं बताते कि पुरस्कार  जो मिला, उसकी महत्ता क्या है। किसने दिया, क्यों दिया, कितने थे और प्रतियोगी। अब इसे पाने के बाद उनके टीवी में विकास दिखेगा या और पतन। हालांकि यह सब टीआरपी और  विज्ञापन जुटाने की होड़ का उपक्रम है। सरकारी विज्ञापन तो  सत्ता में बैठी पार्टी और उसके अफसर देते हैं। निजी विज्ञापन एजेंसियां दर्शकों के बदलते रुख को देख सोशल मीडिया को  प्रमोट करने में  लगी हैं। अब टीवी चैनेल भी उसमें  सक्रिय हुए। हालांकि  बड़ा खर्च करके भी कामयाब  होते नहीं दिख रहे।

पर भविष्य उसका, जिसके पास पैसा और सत्ता। हाल यह है कि जो टीवी चैनेल तटस्थता के नाम पर इस या उस खेमे की कुछ ही खबरें दिखाते हैं, वे सहसा  जमीन पर तो आ गए हैं। सोचें और समझें तो ठीक है।

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