डॉ. अंबेडकर के पाक्षिक ‘समता’ में सावरकर के विचारों का समर्थन

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डॉ. अंबेडकर के संपादन में निकले पाक्षिक ‘समता’ में सावरकर के उस पक्ष को तरजीह दी गयी है, जिसमें उन्होंने रोटी-बेटी के संबंध का समर्थन किया है।
डॉ. अंबेडकर के संपादन में निकले पाक्षिक ‘समता’ में सावरकर के उस पक्ष को तरजीह दी गयी है, जिसमें उन्होंने रोटी-बेटी के संबंध का समर्थन किया है।
डा. अंबेडकर की पत्रकारिता पर अध्ययन करते कृपाशंकर चौबे
डा. अंबेडकर की पत्रकारिता पर अध्ययन करते कृपाशंकर चौबे

डॉ. अंबेडकर के संपादन में निकले पाक्षिक ‘समता’ में सावरकर के उस पक्ष को तरजीह दी गयी है, जिसमें उन्होंने रोटी-बेटी के संबंध का समर्थन किया है। 24 अगस्त 1928 के अंक की संपादकीय में ‘हमारा आदमी’ शीर्षक टिप्पणी में सावरकर के उस पक्ष को उभारा गया है, जिसमें उन्होंने कहा है कि वे जातिभेद के समर्थक नहीं हैं, बल्कि वे रोटी-बेटी के संबंध का समर्थन करते हैं। डॉ. अंबेडकर की पत्रकारिता पर पढ़े कृपाशंकर चौबे का शोधपरक यह आलेखः

डॉ. अंबेडकर ने ‘बहिष्कृत भारत’ के बाद समाज में समता लाने के उद्देश्य से समाज समता संघ के मुखपत्र के रूप में पाक्षिक पत्र ‘समता’ निकाला। 29 जून 1928 को पाक्षिक अखबार ‘समता’ का प्रकाशन शुरू हुआ। उसके प्रवेशांक के मुख पृष्ठ पर ‘समतेचा उदय’ शीर्षक से उत्तमराव कदम की कविता छपी थी। दूसरे व तीसरे पृष्ठ पर पत्रिका के उद्देश्य पर प्रकाश डाला गया था।

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उसमें ब्राह्मण व ब्राह्मणेतर समाज में सौहार्द कायम करना प्रमुख उद्देश्य बताया गया था। चौथे पृष्ठ पर ‘वेदाचा अर्थ आणि समतेचा मार्ग’ शीर्षक से संपादकीय टिप्पणी छपी थी। पांचवें से आठवें पृष्ठ पर समाचार व चित्र प्रकाशित किए गए थे। ‘समता’ के 13 जुलाई 1928 के अंक के प्रथम पृष्ठ पर ‘प्रचलित प्रश्न’ शीर्षक टिप्पणी में कहा गया था कि पंजाब व महाराष्ट्र जातिपाति तोड़क मंडल का यह कहना सही है कि जातिभेद तोड़े बगैर हिंदू समाज की प्रगति संभव नहीं है।

उसी अंक की संपादकीय में डॉ. अंबेडकर ने लिखा था, “पंजाब तो जातिपाति तोड़क और महाराष्ट्र जातिपाति तारक है।” ‘समता’ के 27 जुलाई के अंक में ‘समता एवं वर्ग कलह’ और ‘ब्राह्मण, ब्राह्मणेतर व समता’ शीर्षक लेख दिए गए हैं। ‘समता’ के 10 अगस्त 1928 के अंक में प्रथम पृष्ठ में कहा गया है कि तिलक के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि जातिभेद को खत्म कर ही दी जा सकती है। उसी अंक में ‘समता व ब्राह्मणेतर आंदोलन’ और ‘तिलक को अब मूर्ख नहीं मानना चाहिए’ शीर्षक लेख भी प्रकाशित हैं।

‘समता’ के 24 अगस्त 1928 के अंक की संपादकीय में ‘हमारा आदमी’ शीर्षक टिप्पणी में सावरकर के उस पक्ष को उभारा गया है, जिसमें उन्होंने कहा है कि वे जातिभेद के समर्थक नहीं हैं, बल्कि वे रोटी-बेटी के संबंध का समर्थन करते हैं। ‘समता’ के 21 सितंबर 1928 के अंक में ‘सार्वजनिक गणेशोत्सव व सामाजिक अस्पृश्यता’ शीर्षक खबर में अपील की गई है कि है कि उत्सव में सभी की एक जैसी सहभागिता होनी चाहिए। सभी एक तरह से पूजा करें।

उसी अंक में हिंदू सहभोज पर संपादकीय टिप्पणी दी गई है। ‘समता’ के 5 अक्टूबर 1928 के अंक के प्रथम पृष्ठ की मुख्य खबर का शीर्षक है- ‘अस्पृश्यतेचा उगम जातिभेदातूनच’ यानी जातिभेद से ही अस्पृश्यता का उगम हुआ है। यह खबर बाबा साहेब के भाषण पर केंद्रित है। उसी अंक में ‘हिंदू समाज की जानलेवा बीमारी’ शीर्षक समाचार में बताया गया है कि ‘नवयुग’ के संपादक सत्यदेव विद्यालंकार ने कहा है कि जातिभेद हिंदू समाज की जानलेवा बीमारी है और उनकी पत्रिका उसके खिलाफ निरंतर संघर्ष करेगी।

‘समता’ के 19 अक्टूबर 1928 के अंक में ‘ब्राह्मणेतर लोगों के लिए महत्वपूर्ण संकेत’ शीर्षक खबर दी गई है, जिसमें डा. सोलंकी नामक अछूत व्यक्ति के हाथों भगवा ध्वज फहरवाकर नवरात्रि उत्सव प्रारंभ किए जाने की प्रशंसा की गई है और कहा गया है कि उसी तरह जातिभेद खत्म होगा। उसी अंक में आत्मघात की बजाय आत्मशुद्धि करने की सलाह संपादकीय टिप्पणी में दी गई है। ‘समता’ के 30 नवंबर 1928 के अंक में समता के मार्ग सुझाए गए हैं। उसी अंक में लाला लाजपत राय की याद में श्रद्धांजलि शीर्षक संपादकीय टिप्पणी दी गई है। ‘समता’ के 15 मार्च 1929 के अंक में प्रथम पृष्ठ पर समता के मार्ग के लिए स्नेह भोज की विस्तृत खबर दी गई है। (जारी)

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