साहब हमारा क्या कसूर, हम आपकी तरह दो पैर वाले जानवर नहीं चार पैर वाले जानवर हैं…

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साहब हमारा क्या कसूर, हम आपकी तरह दो पैर वाले जानवर नहीं चार पैर वाले जानवर हैं...

आखिर इनका क्या कसूर कि, इस ‘लॉक’ ने इन्हें कर दिया ‘डाउन’

सवाल ये है कि आखिर ये बेजुबान गुहार लगाएं भी तो किससे ?

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रांची : कोरोना महामारी और लॉकडाउन ने मनुष्यों पर ही नहीं बल्कि बेजुबान जानवरों पर भी असर डाल दिया है। जैसे ही सुनसान सड़कों पर इक्की-दुग्गी गाड़ियां या फिर कुछ लोग दिखाई पड़ते हैं, वैसे ही ये कोरोना और लॉकडाउन से अनजान और बेखबर निर्दोष जानवर बिना मास्क लगाए उनके पीछे टूट पड़ते। कल तक जिन सड़कों पर सरपट गाड़ियां दौड़ती थी, आलीशान होटल, पार्टी हॉल्स और ढाबे खुले दिखाई पड़ते थे आज सभी बंद हैं। वीरान पड़ी सड़कों पर कोई चिल्ल-पों करने वाला नहीं। पर उन खमोशी को चीरती सड़कों या चौराहों पर किसी की आवाज आती सुनाई पड़ती है, जिन्हें इस लॉकडाउन में आज कोई पूछने वाला कोई नहीं, चाहे वो आम आदमी हों या फिर सरकार। सवाल ये है कि आखिर ये बेजुबान गुहार लगाएं भी तो किससे?

वो आवाज जिन्हें हम अक्सर अंधेरी रातों को सुनते हैं, जो किसी अनहोनी से हम सबको आगाह कराती हैं, वो बेजान और खामोश सी हो गई हैं। आज उन बेजुबानों को भी समझ नहीं आ रहा कि देश को अचानक हो क्या गया है? कहीं इसमे हमारा कसूर तो नहीं ? आचानक कभी-कभार इन जानवरों की कराहने और रोने की आवाज सुनाई भी पड़ती है तो लोग उससे डरने लगते हैं। लेकिन इस दर्द भरी कराह को समझने के लिए कोई तैयार नहीं। कई तो इन्हें पागल समझकर इससे भय खाते और पीछा छुड़ाकर भाग खड़े होते दिखाई देते हैं, लेकिन उन्हीं में कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने इनके दर्द को करीब से महसूस किया और उनके साथ खड़े दिखे।

जी हां, हम बात कर रहे हैं उन स्ट्रीट डॉग्स की, जिनकी भूख व संवेदना भरी आवाज को न सुनने वाला और न हीं कोई उनकी भयावह स्थिति को समझने वाला। चलिए आगे बढ़ते हैं…

शाम होता जा रहा है और अंधेरा करीब है, और … अचानक एक गाड़ी वहां रुकती है जहां काफी संख्या में स्ट्रीट डॉग्स हैं। गाड़ी देखकर उनकी आखों में भय के साथ एक उम्मीद भी दिखाई देती है। पहले तो ये भी डर जाते हैं कि इतने दिनों के बाद ये गाड़ी उनके पास रुकी क्यों ? कहीं ये वही गाड़ी तो फिर नहीं आ गई, जो उन्हें दूर विरान जंगल में छोड़ आती है और जहां से आना उनके लिए संभव नहीं होता। जिनमें बिछड़ जाते हैं इनके अपने।

साहब हमारा क्या कसूर, हम आपकी तरह दो पैर वाले जानवर नहीं चार पैर वाले जानवर हैं...

मास्क लगाए गाड़ी से कुछ लोग उतरते हैं जिनके हाथों में कुछ पैकेट है। अब उन डॉग्स की शंका यकीन में बदल गया था कि जरुर भगवान ने उनके लिए कुछ भेजा है। वो सभी डॉग्स अपनी पूंछ हिलाकर विशवास भरे चाल के साथ अपनी हामी भरते हुए उस पैकेट वाले के पास आहिस्ता-आहिस्ता पहुंचते हैं।

बस क्या था देखते ही देखते करीब 10-15 डॉग्स उस पैकेट वाले को घेर लेते हैं। ना, आप समझे नहीं, काटने के लिए नहीं बल्कि इसलिए कि आज उनका क्षुधा तृप्त होगा, आज रात उन्हें टेस्टी और यमी भोजन नसीब होगा। उन्हें एक उम्मीद है कि कल वो फिर से नई उर्जा के साथ आपस में दौड़ का खेल खेल सकेंगे।

अब पैकेट खुलता है, तो वो टकटकी लगाए ऐसे खड़े हो जाते हैं जैसे उन्हें किसी ने सोशल डिस्टेंसिंग मेंटेन करते हुए लाइन में खड़े होने के लिए कहा हो। कुछ तो अटखेलियां भी करते नजर आते हैं। तभी उस पैकेट वाले की मुस्कान के साथ एक आवाज आती है, मिलेगा, सबको मिलेगा। अब डॉग्स के सामने एक साफ सुथरे अखबार के पन्नों पर पका भोजन होता है। पढ़ना जानते तो शायद उस अखबार में मोटे अक्षरों में छपे लॉकडाउन की जानकारी हो जाती। खैर छोड़िये, इन बातों का क्या फायदा! उस भोजन को वो बड़े ही चाव से स्वाद लेकर खाते हैं, ये देखकर ऐसा लग रहा था कि आज हैप्पी के (कुत्ते का नाम है) बर्थ-डे की पार्टी हो। सबसे मजे की बात ये है कि यहां कोई न नस्ल भेद है, न मजहब है और न ही कोई जाति, सभी एक साथ बड़े ही चाव से खाने का भरपूर आनन्द ले रहे हैं।

कहने को तो ये स्ट्रीट डॉग्स हैं लेकिन खिलाने वाले के साथ ये इतने घुल मिल गए हैं कि उनके अब नए नाम अच्छे लगने लगे हैं, बस एक बार पुकार कर तो देखिये ये आपके सामने पूंछ हिलाते इठलाते आपके समक्ष खड़े हो जाएंगे। आखिर इनका इंसानों के साथ गहरा नाता जो रहा है। ये इतने चतुर होते हैं कि ये आपके मनोदशा को साफ पढ़ सकते हैं। आखिर इन्हें हम कैसे भूल सकते हैं। ये हमारे मुसीबत के साथी और रक्षक हैं। ये इमानदारी से अपनी ड्यूटी निभाने वाले होते हैं। विकट परिस्थियों में पुलिस भी इनकी मदद लेती है। वैसे में सरकार की नजर इन पर क्यों नहीं ये भी एक बड़ा सवाल है। आखिर जान तो इनमे भी होती है।

आपसे भी गुजारिश है कि सावधानी बरतते हुए यथासंभव आप भी इन बेजुबानों की मदद के लिए जरुर आगे आएं।

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