जयंती पर विशेषः हिंदी सिनेमा में बिहार के संगीत की बयार चित्रगुप्त

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  • नवीन शर्मा

हिंदी सिनेमा में बिहार का सबसे पहले प्रतिनिधित्व करने वाले कलाकारों में  दो नाम खास हैं। एक हैं गीतकार शैलेंद्र, जिन्होंने राजकपूर की टीम का हिस्सा होकर खूब नाम कमाया। वहीं दूसरे व्यक्ति संगीतकार चित्रगुप्त उनसे कम किस्मतवाले थे। संगीत की अच्छी समझ और प्रतिभावान होने के बावजूद चित्रगुप्त को वह ख्याति नहीं मिली, जिसके वे हकदार थे। 1959 में बनी “काली टोपी लाल रुमाल” फ़िल्म का एक गीत आज भी तरोताज़ा है।  रफ़ी और लता  का गाया “लागी छूटे ना अब तो सनम” उनके मधुर संगीत का शानदार नमूना है। इस गीत के बोल लिखे हैं मजरूह सुल्तानपुरी ने।

16 नवंबर 1917 को बिहार के गोपलगंज में चित्रगुप्त श्रीवास्तव का जन्म हुआ था। वे पढ़ाई में भी अच्छे थे। डबल एमए करनेवाले चित्रगुप्त ने पटना में प्रोफेसर के रूप में अध्यापन भी किया था, लेकिन उनकी नियति तो संगीत में कमाल दिखाने की थी। चित्रगुप्त बंबई गए और करीब दस साल तक फिल्मों में संगीतकार के रूप में पहचान बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। सिंदाबाद द सेलर  हिट होने पर उनको पहचान मिलनी शुरू हुई।

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चित्रगुप्त को अपने जीवन में उतनी कामयाबी और शोहरत नहीं मिल सकी, जितनी योग्यता उनमें थी। इसकी एक वजह तो ये भी रही कि उसी दौर में नौशाद, सचिन दा, सी. रामचंद्र जैसे महारथी थे। इनके बीच रहते हुए चित्रगुप्त के हाथ अक्सर बी-ग्रेड फ़िल्में ही आती थीं। ये फ़िल्में रिलीज़ तो होती थी लेकिन ना तो सफल होती थी और ना ही कुछ समय बाद किसी को याद रहती थीं।

मुफ्त हुए बदनाम किसी से हाय दिल को लगा के

चित्रगुप्त ने बहुत से ऐसे नग्में हमें दिए हैं, जो उनकी योग्यता और उनके संगीत की मधुरता का प्रमाण हैं। फिल्म बारात का यादगार गीत “मुफ़्त हुए बदनाम” उनके संगीत का नायाब नमूना है। इसी तरह से ;दिल का दिया जला के गया ये कौन मेरी तन्हाई में” (फ़िल्म: आकाशदीप), “चल उड़ जा रे पंछी” (फ़िल्म: भाभी); “ “दो दिल धड़क रहे हैं और आवाज़ एक है” (फ़िल्म: इंसाफ़); “दग़ा दग़ा वई वई वई” (फ़िल्म: काली टोपी लाल रुमाल); “मुझे दर्दे-दिल का पता ना थी” (फ़िल्म आकाशदीप) इत्यादि गीत चित्रगुप्त की योग्यता के उदाहरण हैं।इसके अलावा ‘दिल को लाख संभाला जी’ (लता, फ़िल्म-गेस्ट हाऊस), ‘हो नाज़ुक-नाज़ुक बदन मोरा’ (लता-रफ़ी, फ़िल्म- औलाद), ‘हाय रे तेरे चंचल नैनवा’ (लता, फ़िल्म-ऊंचे लोग), ‘पायल वाली देखना’ (किशोर, फ़िल्म-एक राज़), ‘एक रात में दो-दो चाँद खिले’ (लता-मुकेश, फ़िल्म-बरखा), ‘देखो मौसम क्या बहार है’ (लता-मुकेश, फ़िल्म-ओपेरा हाउस) भी हैं।

इन फिल्मों में दिया संगीत

चित्रगुप्त ने तूफ़ान क्वीन’, ‘इलेवन ओ क्लॉक’, ‘भक्त पुंडलिक’, ‘नीलमणि’, ‘साक्षी गोपाल’, ‘कल हमारा है’, ‘नाचे नागिन बाजे बीन’, ‘पुलिस डिटेक्टिव’, ‘चाँद मेरे आ जा’, ‘अपलम चपलम’, ‘सुहाग सिन्दूर’, ‘ज़बक’, ‘रामू दादा’, ‘रोड’, ‘बैंड मास्टर’ और ‘सैमसन’ जैसी दर्ज़नों फ़िल्मों में संगीत दिया हैं।

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चित्रगुप्त एक अच्छे संगीतकार होने के साथ-साथ एक बहुत-ही अच्छे इंसान भी थे। मिलनसार, हंसमुख, शर्मीले और हमेशा दूसरों की सहायता करने के लिए तत्पर। उनका निधन 1991 में हुआ। चित्रगुप्त के दो पुत्रों ने जोड़ी बनाकर फ़िल्मों में संगीत देना आरंभ किया और अच्छी खासी सफलता भी अर्जित की। उनकी जोड़ी को हम आनंद-मिलिंद के नाम से जानते हैं। जिस वर्ष चित्रगुप्त ने अपनी अंतिम फ़िल्म दी उसी वर्ष आनंद-मिलिंद के संगीत में बंधी “कयामत से कयामत तक” फ़िल्म ने धूम मचा दी थी। यह वर्ष 1988 था।

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