RJD का जनाधार बिहार में खत्म नहीं हुआ है, रणनीति बदलनी होगी

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तेजस्वी यादव
तेजस्वी यादव
  • मिथिलेश कुमार सिंह

नयी दिल्ली। RJD (राजद) का जनाधार बिहार में खत्म नहीं हुआ है, बल्कि कुछ कारणों से लोकसभा चुनाव में उसे पराजय का सामना करना पड़ा। इसके पीछे कई कारण रहे। इनमें बेढब गठबंधन, अंत-अंत तक सीटों के बंटवारे के लिए झमेला, अंतिम वक्त में उम्मीदवारों की घोषणा, उम्मीदवार के चयन में नासमझी और पैसा-प्रचार में एनडीए के पासंग में भी नहीं खड़ा होना शामिल रहे। प्रचार का आलम तो यह था कि राजद के तारणहार तेजस्वी यादव के निशाने पर सिर्फ नीतीश कुमार रहे। जैसे वे विधानसभा का चुनाव लड़ रहे हों। पार्टी के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह भी इन कारणों से अपनी सहमति जताते हैं। वैसे हार के कारणों की पड़ताल पार्टी कर रही है। अलबत्ता पार्टी नेतृत्व को भी ईमानदारी से अपनी चूक स्वीकारनी चाहिए और आने वाले विधानसभा चुनाव के लिए रणनीति बनाते समय भूल-चूक की पुनरावृत्ति से बचनी चाहिए।

राजद ने हम (सेकुलर) के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालेसपा) प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा और वीआईपी के मुकेश सहनी जैसे बिना जनाधार वाली पार्टियों को औकात से कहीं ज्यादा आंका। रघुवंश प्रसाद सिंह की नजर में ये ऐसे सेनापति हैं, जिनके पास सैनिक ही नहीं हैं। इनकी वजह से राजद ने कांग्रेस की उपेक्षा की। इन नेताओं के जनाधार का आकलन इसी से किया जा सकता है कि ये खुद नहीं जीत पाये। इनके उम्मीदवारों की दुर्गति तो स्वाभाविक है।

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सीटों के बंटवारे के सवाल पर छह महीने से मुलाकातों और बयानबाजी का दौर चलता रहा। अस्पताल में इलाज करा रहे सजायाफ्ता लालू प्रसाद से विपक्ष की हर पार्टी के नेता मिलते रहे, लेकिन उन्होंने पत्ता नहीं खोला। इससे काफी पहले एनडीए ने अपनी सीटों की संख्या फरिया ली। महागठबंधन ने उम्मीदवारों के नाम घोषित करने में भी देरी कर दी। एनडीए ने महागठबंधन से पहले उम्मीदवारों का ऐलान भी कर दिया। यानी प्रचार के लिए उसके उम्मीदवार मैदान में पहले उतर गये।

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उम्मीदवारों के चयन में नासमझी भी कोई छोटा कारण नहीं थी। खासकर पाटलीपुत्रा में भाई वीरेंद्र की उपेक्षा कर सीट परिवार के सदस्य मीसा भारती को राजद ने दे दी तो सारण से चंद्रिका राय को उतार दिया, जो लालू के समधी हैं। जगदानंद सिंह और रघुवंश प्रसाद सिंह के नाम भी पहले घोषित नहीं किये गये, जबकि इनका क्षेत्र सुनिश्चित था।

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प्रचार इतना कमजोर रहा कि कोई स्टार प्रचारक बिहार में महागठबंधन के लिए नहीं आया। वैसे भी राजद में लालू प्रसाद के अलावा कोई स्टार प्रचारक अब तक उभर नहीं पाया है, लेकिन जब महागठबंधन बना कर राजद चुनाव लड़ रहा था तो कांग्रेस से तालमेल बिठाना जरूरी था। राहुल गांधी के साथ मंच शेयर करने में तेजस्वी अंत-अंत तक कतराते रहे। ऊपर से आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को 10 फीसद आरक्षण का विरोध कर तेजस्वी ने पार्टी के सवर्ण नेताओं के प्रभाव वाले वोटरों को भी नाराज कर दिया।

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बहरहाल, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। राजद अपने एम-वाई समीकरण को पुख्ता करने पर सारा जोर लगाये। इनकी संख्या 30 प्रतिशत से अधिक है। दलितों-पिछड़े भी राजद के पारंपरिक वोटर रहे हैं, इसलिए कि लालू ने ही सामाजिक न्याय के तहत उन्हें बूथ तक पहुंचने ताकत दी थी। उसे भी राजद को समझना और समझाना होगा। खासकर राजद को उस मुद्दे को जोरदार ढंग से उठाना चाहिए, जिसमें शराब के धंधे में लिप्ट बड़ी संख्या में दलित पिछड़े परिवारों के मुखिया जेल की सीखचों में बंद हैं।

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नीतीश सरकार के शासन की नाकामियों की फेहरिश्त बना कर उसे जोरदार ढंग से जनता के समक्ष उठाना होगा। शेल्टर होम कांड, सृजन घोटाला, शौचालय घोटाला, दवा घोटाला जैसे दर्जन भर से ज्यादा मुद्दे हैं, जिन पर राजद जनता की आंखें खोल सकता है।

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राजद को यह भी समझना होगा कि राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। नरेंद्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री के लिए जब पहली बार घोषित हुआ तो नीतीश कुमार ने भाजपा से कन्नी काट ली थी। समय-समय पर उनके खिलाफ आग उगली। लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए उन्होंने मोदी से गलबहियां डालने में भी देर नहीं की। जैसे नलिन वर्मा ने अपनी किताब में लिखा है कि राजद से दोबारा हाथ मिलाने के लिए नीतीश ने लालू प्रसाद से कई बार कोशिश की। यानी वे भाजपा के साथ सहज महसूस नहीं कर रहे। तब राजद ने नीतीश का प्रस्ताव न सिर्फ ठुकराया, बल्कि इसका उपहास भी उड़ाया। अब कोई ऐसा अवसर आये तो नीतीश से हाथ मिलाने में राजद को तनिक भी देर नहीं करनी चाहिए।

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