प्रशांत किशोर के सितारे इन दिनों बुलंद चल रहे हैं

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पश्चिम बंगाल में होने जा रहे विधानसभा चुणाव में ममता बनर्जी के लिए बीजेपी से बड़ी चुनौती पीके उर्फ प्रशांत किशोर हैं।
पश्चिम बंगाल में होने जा रहे विधानसभा चुणाव में ममता बनर्जी के लिए बीजेपी से बड़ी चुनौती पीके उर्फ प्रशांत किशोर हैं।

PATNA : प्रशांत किशोर के सितारे इन दिनों बुलंद चल रहे हैं। जेडीयू ने भले उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिखा दिया, पर उनके सुझाये मुद्दे क्लिक कर गये। दिल्ली में उनकी सलाह रंग लायी। जेडीयू के लिए भी उनकी मेहनत कामयाब हुई थी। अब स्टालिन के लिए वह काम कर रहे हैं।

जनता दल यूनाइटेड में रहते हुए प्रशांत कुमार ने जो काम किया, उसे भले ही नीतीश ने भुला दिया, लेकिन उनके काम को दूसरी जगहों पर तरजीह मिलने लगी है। 2015 में प्रशांत किशोर ने नीतीश के तारणहार की भूमिका निभाई थी। उनकी सलाह से नीतीश के हर काम बनते गये। इससे प्रसन्न होकर नीतीश कुमार ने उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया। लेकिन 2020 के चुनाव के पहले भाजपा के चक्रव्यूह में फंस कर नीतीश कुमार ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया।

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प्रशांत किशोर का दोष महज इतना ही था कि उन्होंने एनआरसी और सीएए का विरोध किया। इस मुद्दे पर नीतीश कुमार से बातचीत की। जैसा प्रशांत किशोर का कहना है कि नीतीश ने आश्वासन भी दिया था कि बिहार में एनआरसी लागू नहीं होगा। एनआरसी एक ऐसा विषय है, जिसे लेकर केंद्र सरकार के अंदर ही अंतर्विरोध है। गृह मंत्री अमित शाह बार-बार इस बात को दोहराते हैं कि हर हाल में देश में एनआरसी लागू होगा। दूसरी ओर गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय संसद में आधिकारिक तौर पर बयान देते हैं कि एनआरसी देशभर में लागू करने का अभी तक कोई निर्णय नहीं हुआ है।

इन विरोधाभासी बयानों के बीच प्रशांत की इस पर आपत्ति और इस आपत्ति के बाद नीतीश कुमार द्वारा उन्हें मक्खी की तरह निकाल कर बाहर कर देना, अब जेडीयू के गले की हड्डी बन गई है। प्रशांत कहते रहे हैं कि दिल्ली चुनाव के बाद वे नीतीश कुमार की बखिया उधेड़ेंगे। अब देखना दिलचस्प होगा कि वे कौन सा बम फोड़ते हैं।

प्रशांत किशोर ने आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली विधानसभा के चुनाव में काम किया। परिणाम के अभी जो संकेत उभर रहे हैं, वह भाजपा-जेडीयू के लिए शुभ नहीं है। प्रशांत किशोर ने चुनावी रणनीतिकार के रूप में अपनी भूमिका रखी है। वे हाल तक ममता बनर्जी के लिए रणनीति बनाने में लगे रहे। हालांकि ममता के लिए उनकी रणनीति कितनी कारगर साबित होती है, यह अगले साल चुनाव परिणाम के बाद ही पता चलेगा। अब उन्होंने दक्षिण का रुख किया है, जहां स्टालिन के लिए काम करेंगे।

आम आदमी पार्टी के अगर कामयाब हो जाती है तो यह मानना पड़ेगा कि चुनावी रणनीति में प्रशांत सफल हैं। उत्तर प्रदेश में उन्होंने कांग्रेस के लिए काम किया। लेकिन असफलता हाथ लगी। अभी तक उनके खाते में यही एक विफलता गयी है। जेडीयू में रहते उन्होंने चुनावी रणनीतिकार के अपने मूल पेशे को अलग रखा। पार्टी को समय-समय पर सही सलाह देते रहे। छात्र संघ चुनाव में उनकी रणनीति कारगर साबित हुई थी। इसके बावजूद नीतीश ने अपने कुछ नेताओं के मोह में उनकी बातें दरकिनार करते रहे।

नीतीश कुमार को भाजपा से दो चीजें चाहिए थी। पहले लोकसभा में वह बिहार की अगुआई करना चाहते थे और भाजपा के बराबर सीटें चाहते थे। प्रशांत ने अपनी रणनीति से इसे साकार कर दिया। दूसरा लाभ नीतीश अपने को मुख्यमंत्री चेहरा के रूप में पेश करना चाहते थे और भाजपा से अधिक सीटें विधानसभा चुनाव में चाहते थे। अमित शाह ने मुख्यमंत्री चेहरा के रूप में उनके नाम का ऐलान तो कर दिया और संभव है कि सीटों का पेंच भी सुलझ जाए, लेकिन उन्होंने प्रशांत किशोर की सलाह को दरकिनार कर अपने अल्पसंख्यक वोटरों की परवाह नहीं की। सीसीए, एनआरसी और दिल्ली चुनाव में भाजपा से गठबंधन के खिलाफ बोलने वाले प्रशांत किशोर और पवन वर्मा को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया।

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सिर्फ इस बात पर नीतीश इतना इतरा गए कि उन्हें भाजपा के कद्दावर नेता गृह मंत्री अमित शाह ने मुख्यमंत्री का चेहरा बना दिया। वे इस बात पर भी भाजपा को मना सकते हैं कि उन्हें भाजपा सर्वाधिक सीटें दे दे, लेकिन उन सीटों को जीत में कन्वर्ट कर पाना नीतीश के लिए आसान नहीं है। इसलिए कि जिस तरह से अल्पसंख्यक मतों का ध्रुवीकरण सीएए, एनआरसी और एनपीआर के नाम पर भाजपा के खिलाफ हुआ है, वह जेडीयू के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।

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