अनुसंधानपरक आलोचना-दृष्टि का मार्क्सवादी चेहरा : वीर भारत तलवार

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अमरनाथ
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वीरभारत तलवार ( 20.9.1947 ) हिन्दी के गंभीर अध्येता, शोधार्थी और आलोचक हैं.  वे चुपचाप अपना काम करने में विश्वास करते हैं. प्रचार के किसी हथकंडे का इस्तेमाल किए बिना वे सिर्फ अपने अनुसंधान कार्य की गुणवत्ता के बल पर जाने जाते हैं.  मार्क्सवादी दृष्टि संपन्न वीर भारत तलवार की आलोचना शोधपूर्ण एवं वस्तुनिष्ठ है. हिन्दी आलोचना में अपने लिए उन्होंने अलग राह निकाली है. बड़े नामों से आतंकित हुए बिना वे न सिर्फ उनकी स्थापनाओं से असहमति प्रकट करने का साहस रखते हैं बल्कि अपनी असहमति और अपनी स्थापनाओं को पूरे तथ्यों और तर्कों के साथ प्रमाणित करने की कोशिश भी करते हैं. उनकी आलोचना में जितनी गंभीरता और ईमानदारी होती है उतना ही अध्ययन और परिश्रम भी झलकता है. हिन्दी नवजागरण पर उनका काम बहुत महत्वपूर्ण है. रामविलास शर्मा के बाद उन्होंने हिन्दी नवजागरण संबंधी बहस को नई दृष्टि से देखा हैं. यद्यपि उनके शोध- निष्कर्षों और विश्लेषण की पद्धति से अधिकाँश आलोचकों को असहमति है. भारतेन्दु संबंधी उनके मूल्यांकन को पचा पाना आसान भी नहीं है. फिर भी हिन्दी नवजागरण संबंधी बहस को आगे बढ़ाने में उनकी भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है

‘किसान राष्ट्रीय आन्दोलन और प्रेमचंद’, ‘राष्ट्रीय नवजागरण और साहित्य : कुछ प्रसंग, कुछ प्रवृत्तियां’, ‘हिन्दू नवजागरण की विचारधारा : सत्यार्थ प्रकाश समालोचना का एक प्रयास’, ‘रस्साकसी : 19वीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रान्त’, ‘राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द’,’ सामना : रामविलास शर्मा की विवेचन पद्धति और मार्क्सवाद तथा अन्य निबंध’ आदि उनकी प्रमुख आलोचनात्मक पुस्तकें हैं.

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हिन्दी नवजागरण संबंधी उनकी स्थापनाएं उनकी पुस्तक ‘रस्साकसी : उन्नीसवी सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रांत’ में व्यक्त हुई हैं. उनकी स्थापना है कि “उन्नीसवीं सदी का भारतीय नवजागरण धर्म और समाज को सुधारने के महान साहसिक प्रयासों के रूप मे शुरू हुआ था, जो करीब पचास सालों तक बंगाल और महाराष्ट्र के भद्रवर्गीय प्रबुद्ध समाज में हलचल मचाता रहा. लेकिन फिर उसके खिलाफ हिन्दू -प्रतिक्रिया की शक्तियाँ प्रबल रूप से उठ खड़ी हुईं और पश्चिमोत्तर प्रान्त में जो  जो भी और जैसा भी नवजागरण आया, दुर्भाग्य से वह इसी दौर में आया, जिसे कुछ हिन्दी लेखकों ने ‘हिन्दी नवजागरण’ कहा है.” ( पुस्तक के फ्लैप से ) डॉ. तलवार पूरे साहस के साथ इस मत का खंडन करते हैं और कहते हैं कि वास्तव में इसका नाम ‘हिन्दी आन्दोलन’ होना चाहिए क्योंकि इस आन्दोलन के नेताओं का लक्ष्य यही था. भारतीय नवजागरण मुख्यत: धर्म और समाज के सुधार का आन्दोलन था जबकि हिन्दी पट्टी के लोग, “धर्म के परंपरागत स्वरूप में बुनियादी सुधारों का विरोध करते थे. सामाजिक सुधारों के मामले में सबसे प्रधान मुद्दे -स्त्री प्रश्न -पर उनका नजरिया पिछड़ा हुआ और दुविधाग्रस्त था. आर्यसमाज या ब्राह्मो समाज की तरह उन्होंने स्त्रीशिक्षा का उत्साहपूर्ण आन्दोलन कभी नहीं चलाया.  बालविवाह का विरोध करते हुए भी उन्होंने उसके खिलाफ कोई कारगर कदम नहीं उठाया. विधवा विवाह के प्रश्न पर, एकाध अपवाद को छोड़कर या तो वे इसके विरोधी रहे या दुविधाग्रस्त.” ( फ्लैप से )

रामविलास शर्मा के अलावा भी हिन्दी नवजागरण पर कर्मेन्दु शिशिर और शंभुनाथ जैसे कई आलोचकों ने गंभीर काम किया है और ज्यादातर लोगों की स्थापनाएं डॉ. तलवार की स्थापनाओं से कई अर्थों में भिन्न हैं. वैसे भी हिन्दी नवजागरण की प्रकृति बंगला नवजागरण या मराठी नवजागरण की प्रकृति से अलग है क्यों कि यहां की परिस्थितियां अलग थीं और साम्राज्यवादियों द्वारा यहां शोषण का तरीका भी अलग था. हिन्दी नवजारण के केन्द्र में 1857 का स्वाधीनता संग्राम था जो सीधे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुदध था जबकि बंगला नवजागरण ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध नहीं था. हिन्दू -मुस्लिम, ब्राह्मण- शूद्र सभी ने मिलकर 1857 की लड़ाई लड़ी थी जबकि बंगला नवजागरण सवर्ण हिन्दुओं द्वारा चलाया गया हिन्दुओं के सुधार का आन्दोलन था. बंगला नवजागरण के केन्द्र में बुद्धिवाद था जबकि हिन्दी नवजागरण के केन्द्र में राष्ट्रवाद.

इन सबके बावजूद डॉ. तलवार के सवाल अपनी जगह है कि आखिर, “क्यों हिन्दी भाषी समाज में कोई विद्यासागर या ज्योतिबा फुले नहीं मिलता?  यहाँ के नवजागरण में शिक्षा के आन्दोलन ने क्यों किसी द्वारकानाथ गांगुली और देवराज को, किसी कादंबिनी और सावित्री बाई को पैदा नहीं किया? आर्य समाज आन्दोलन का भी जैसा क्रान्तिकारी सुधारक रूप पंजाब में दिखता है, वैसा हिन्दी -उर्दू प्रदेश में, खासकर बनारस जैसे पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों और बिहार में क्यों नहीं दिखता? “ ( रस्साकसी, पृष्ठ-54)

वीर भारत तलवार की दूसरी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘सामना : रामविलास शर्मा की विवेचन पद्धति  और मार्क्सवाद तथा अन्य निबंध’ है. पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि पुस्तक रामविलास शर्मा की आलोचना पद्धति पर मुख्य रूप से केन्द्रित है. इसमें चार बड़े आलोचनात्मक लेख वास्तव में रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘मार्क्स और पिछड़े हुए समाज’ की विस्तृत आलोचना हैं. पुस्तक में संकलित अन्य हिस्सों में उनके पिछले चालीस वर्षों में समय- समय पर लिखे गये विविध विषयों पर आलोचनात्मक लेख, इंटरव्यू और संस्मरण हैं. इसमें निर्मल वर्मा की कहानियों, अमृत राय द्वारा लिखी प्रेमचंद की जीवनी ‘कलम का सिपाही’ की कमलकिशोर गोयनका द्वारा की गई समीक्षा की समीक्षा, सन् 60 के बाद की कहानियों, प्रेमचंद- शरच्चंद विवाद, चेखव की कहानियों, किसान आन्दोलन आदि पर केन्द्रित सामग्री तथा यशपाल और उत्पल दत्त के इंटरव्यू आदि शामिल हैं.  इस पुस्तक से वीर भारत तलवार की विचार- यात्रा का भी पता चलता है और आलोचनात्मक दृष्टि का भी.

इस पुस्तक के पहले ही लेख से जो ‘आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की इतिहास दृष्टि’ पर केन्द्रित है, डॉ. तलवार की पैनी समीक्षा दृष्टि का पता चलता है, वे लिखते हैं, “द्विवेदी जी के इतिहास लेखन का सबसे शक्तिशाली पक्ष नाथ -सिद्धों और निर्गुण संतों के साहित्य की बिलकुल नयी व्याख्या है. यहीं उनकी दृष्टि सबसे सार्थक प्रतीत होती है. इस साहित्य को उन्होंने बौद्धकाल से चली आ रही ब्राह्मणवाद विरोधी विचारधारा से जोड़कर देखा. शुक्ल जी की मान्यताओं का विरोध करते हुए इस साहित्य को खुद उत्पीड़ित जातियों की अपनी स्थिति के आधार पर, न कि शिक्षित वर्ग की दृष्टि से, समझने का प्रयास करके द्विवेदी जी ने अनजाने में ही उस तरह की दृष्टि का पहला संकेत दिया, जिसे आजकल सबाल्टर्न अध्ययन -दृष्टि के नाम से जाना जाता है.” ( सामना, पृष्ठ- 14)

वीर भारत तलवार ने राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द पर साहित्य अकादमी के लिए विनिबंध भी लिखा है. मात्र 78 पृष्ठों का यह विनिबंध उनकी बेहतरीन शोधदृष्टि का उदाहरण है. 2019 में जब मैं बनारस गया था तो राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द घर देखने भी गया. वहां शिवप्रसाद सितारेहिंद के परिवार के लोगों से पता चला कि वीर भारत तलवार अपने अध्ययन के सिलसिले में उनके यहां गए थे और एक सप्ताह तक रुककर वहां अध्ययन किया था. इससे अध्ययन के प्रति उनकी निष्ठा का पता चलता है.

अपने जीवन के आरंभिक दिनों में वीर भारत तलवार नक्सलवादी आन्दोलन से जुड़े रहे. 1970 का पूरा दशक उन्होंने नक्सलबाड़ी आन्दोलन में पूर्णकालिक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में बिताया. इसीलिए आदिवासी साहित्य और समाज पर उनके द्वारा लिखा गया साहित्य अत्यंत प्रामाणिक है. ‘नक्सलबाड़ी के दौर में’ उनकी एक महत्वपूर्ण पुस्तक भी है. झारखंड के उनके अनुभव उनकी पुस्तक, ‘झारखंड के आदिवासियों के बीच : एक ऐक्टिविस्ट के नोट्स’ शीर्षक से प्रकाशित है.  इस दौरान उन्होंने ‘फिलहाल’ ( पटना), ‘शालपत्र’ ( धनबाद ) तथा ‘झारखंड वार्ता’ ( राँची) नाम की पत्रिकाओं का संपादन और प्रकाशन किया. रांची विश्वविद्यालय में आदिवासी भाषाओं का विभाग खुलवाने के लिए भी उन्होंने आन्दोलन किया था. यह सब उनकी सामाजिक -राजनीतिक चेतना का परिचायक है.

हम वीर भारत तलवार के जन्मदिन पर उनके द्वारा हिन्दी तथा समाजहित के लिए किए गए महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्यों का स्मरण करते हैं और उनके सुस्वास्थ्य व सतत सक्रियता की कामना करते हैं.

 

( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)

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