- के. विक्रम राव
पश्चिम बंगाल के ”खेला” में जो भी शेष रहा हो, अब एक तथ्य स्पष्ट रूप से उभरा है, जो भारत को कभी भी स्वीकार्य नहीं होगा। अभियान के अंजाम में एक मसला दिखा है : क्षेत्रवाद बनाम राष्ट्रीयता। इससे हर हिन्दुस्तानी का व्यग्र होना स्वाभाविक हैं। क्योंकि राष्ट्र-राज्य की आधुनिक अवधारणा पर इसका साया पड़ेगा। सियासी उलझन अधिक जटिल होगी। सारे प्रदेशों को एक लड़ी में पिरोने वाली प्रक्रिया बाधित होगी।
यह इसलिये भी ज्यादा शोचनीय है क्योंकि आधुनिक भारतीय राष्ट्र के इतिहास के केन्द्र में बंगभूमि रहीं है, उसका अवदान राष्ट्र गठन में असीम रहा। मसलन दिल्ली वाले केन्द्र की व्यापकता और शक्ति बंगाल के जुड़ने से ही बढ़ी है। राष्ट्रीय आंदोलन में भी बंगभूमि की अहम भूमिका रही। यह ऐतिहासिक अनिवार्यता थी। मोहम्मद अली जिन्ना ने कोलकाता के बिना पूर्वी पाकिस्तान मानने से इनकार कर दिया था। व्लादीमीर लेनिन ने तो कहा ही था कि भारत में कम्यूनिज्म बंदरगाह नगर कलकत्ता के द्वार से प्रवेश करेगा। चौंतीस वर्ष वाम शासन रहा भी।
इसी राष्ट्रवादी सोच की वास्तविकता पर कवि रवींद्रनाथ टैगोर तथा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी में तीव्र मतभेद भी था। बापू के चर्खा और असहयोग आंदोलन को टैगोर ने संकीर्ण राष्ट्रवाद का सहायक करार दिया था। वे विश्व मानवता के प्रतिपादक थे। मशहूर पत्रिका ”मार्डन रिव्यू” (कोलकाता से संपादकाचार्य रामानन्द चटर्जी की) में कई लेख टैगोर ने लिखे थे कि बापू के सत्याग्रह से उपजी राष्ट्रवादिता हानिकारक होगी। जवाब में गांधीजी ने कहा था कि उपनिवेशी शासकों से असहयोग भारत का कर्तव्य है। सत्याग्रह द्वारा शासक को शासित जब अपनी शर्तों पर सहयोग हेतु विवश कर सकेगा।
इसी मायने और परिवेश में बंगाल विधानसभा के निर्वाचन परिणाम पर दृष्टि डालें। गांधी तथा टैगोर ने राष्ट्र और संसार की अवधारणा पर विषम नीति प्रतिपादित की थी। मगर इन दोनों से एकदम विपरीत थी उपराष्ट्रीयता के आवरण में द्रविड नेता पेरियार रामास्वामी नायकर की पृथकतावादी नीति। तमिल इतिहास को पेरियार प्रस्तुत करते थे जहां दिल्ली की अधीनता थी ही नहीं। पेरियार के निधन के पश्चात सीएन अन्नादुराई के नेतृत्व में द्रमुक का भारत के प्रति दृष्टिकोण बदला। राष्ट्र-राज्य के यथार्थ को पहचाना। उत्तर-विरोध, हिन्दी से घृणा, विप्र-द्रोह आदि धूमिल हो गये। द्रमुक की सोच भी परिमार्जित हुई। मगर इन्दिरा गांधी ने 1971 में विधानसभा पूर्णतया द्रमुक को समर्पित कर दिया और केवल संसदीय सीटें कांग्रेस के पास रखीं। उसके बाद से गत सप्ताह सम्पन्न तमिलनाडु विधानसभा चुनाव तक राष्ट्रीय पार्टी कट ही गयी।
ऐसी ही गति अब बंगाल की हो रही है, जहां राष्ट्रीय कांग्रेस (ढाई दशक) तथा वाम दल सवा तीन दशकों तक सत्ता में रहने के बाद इसी सप्ताह बंगाल विधानसभा से अपना सूपड़ा साफ होते देख चुके हैं। गनीमत है कि 75 विधायकों वाली भाजपा ने राज्य के राष्ट्रीय रूप को संजोये रखा है।
तो क्या ममता का बंगाल भी तमिलनाडु जैसा हो सकता है? बस इन सब कटु तथ्यों और दुरुह परिस्थितियों के कारण नये भौगोलिक समीकरण पर विचार करना होगा कि भारत राष्ट्र-राज्य एक सूत्र में पिरोये रहेगा? गोपालकृष्ण गोखले ने कभी कहा था, ”बंगाल जो आज सोचता है, शेष भारत कल सोचेगा।” मगर यह अब इतिहास में गुम हो गया। अत: ममता द्वारा रचित बंगभूमि के आकार का परिशीलन हो। बंगाल के नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का नारा था ”जय हिन्द”। ममता ने उसे छोटा कर ”जॉय बांग्ला” बना दिया। मायने कि ”आमरा बंगाली बनाम बहिरागत।” स्वयं ममता के चुनावी भाषण थे कि ”तिलक लगाये, माला टांगे ये यूपीवाले (बिहारी भी) बंगाल कब्जियाना चाहते हैं।” एक महिला राजनीतिज्ञ, जो संसद में वर्षों तक रहीं, केन्द्रीय मंत्री रहीं, वह भी राज्यों को जोड़ने वाले रेल तथा शिक्षा मंत्री, वह अब प्रादेशिक विषमता सर्जायेंगी? वन्दे मातरम् गीत की जन्मस्थली, ”हिन्दू, बौद्ध, सिक्ख, जैन, पारसीक,” तथा ”पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा, द्रविड, उत्कल” के गान को केवल सागरतट तक बांध देंगी? उसमें से ”क्या बंग अलग कर देंगी? अपने क्षुद्र सियासी स्वार्थ हेतु इस पूरे हिन्द भूमि के टुकड़े हो जायेंगे?
कभी पढ़ा था कि स्पेन के सम्राट ने अपनी पुत्री की शादी में ब्रिटेन के राजा को बम्बई द्वीप समूह दहेज में दे दिया था। तो क्या बांग्ला वोटरों ने समूचे राज्य को ममता को उपहार में दान कर दिया? तृणमूल की जागीर बना दी? फिर उनका क्या, जो बांग्लाभाषी अन्य राज्यों में घुल-मिलकर रह रहे हैं? क्या हर बार पुणे के चित्पावन द्विज एक गोडसे के पाप का बोझ ढोयेंगे? दिल्ली के शांतिप्रिय सिख क्या एक बेअंत सिंह द्वारा जघन्य हत्या का खामियाजा भुगतेंगे? यदि सभी क्षेत्रीय बन जायेंगे तो भारतीय कौन कहलायेगा? ममता बनर्जी भारत की हैं अथवा मात्र हावड़ा की?
एक गंभीर पहलू और है। कतिपय समीक्षकों ने, अपनी आरामकुर्सी पर विराजे, लिख डाला कि ”ममता राष्ट्रीय विपक्ष की नेता बन सकती हैं। नरेन्द्र मोदी के समकक्ष हैं। तो क्या गैर तृणमूल पार्टी के लोग ममता को स्वीकारेंगे? येचूरी सीताराम ने ममता से पूछा कि, ”हमारे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी कार्यकर्ताओं को मारकर आप ने कैसा विजयोत्सव मनाया? यही तरीका बचा था?” सोनिया-कांग्रेस के संसदीय नेता अधीर रंजन चौधरी ने ममता के पार्टीजन द्वारा हिंसा पर आक्रोश व्यक्त किया। कौन संसद में तृणमूल का साथ देगा?
मगर प्रश्न उठेगा कि बंगाल के मतदाता यदि पृथकतावादी ममता बनर्जी के समर्थक हैं तो अन्य राज्यों से उसका ताल्लुक कैसे रहेगा? बंगाल राज्य है, गणराज्य नहीं। हां पड़ोसी बांग्लादेश से विलय कर एक भाषावार राष्ट्र बनने का सपना यदि संजोये तो क्या भारत राष्ट्र-राज्य इसे सहेगा? ममता की राजनीतिक प्रौढ़ता पर इसका जवाब निर्भर है। ऐसा प्रयास साठ वर्ष पूर्व हो चुका है। नवरचित पूर्वी पाकिस्तान के मुख्यमंत्री रहे शेरे बंगाल अब्दुल कासिम फजलुल हक अकस्मात कोलकता आये। पश्चिम बंगाल के कांग्रेसी मुख्यमंत्री डा. विधान चन्द्र राय से मिले और पूर्वी तथा पश्चिमी भागों का विलय कर स्वतंत्र बंगाल गणतंत्र की पेशकश की थी। जवाहरलाल नेहरू के साथी, गांधीवादी डा. राय ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। तो क्या ममता भी शेख हसीना के साथ ऐसी ही योजना रचेंगी? इससे बढ़कर मूर्खता क्या होगी? अत: ”जॉय बांग्ला”, ”आमरा बंगाली” इत्यादि विभाजक सूत्रों को उन्हें तजना होगा। भारत अब एक और विभाजन बर्दाश्त नहीं करेगा। समपर्कः Email: k.vikramrao@gmail.com
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