बिहार विधानसभा में विपक्ष के आरोप और नीतीश की खामोशी को समझें

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नीतीश कुमार के बदले अंदाज और उनकी चुप्पी से बिहार की सियासत में सस्पेंस पैदा हो गया है.
नीतीश कुमार के बदले अंदाज और उनकी चुप्पी से बिहार की सियासत में सस्पेंस पैदा हो गया है.

पटना। बिहार विधानसभा के मौजूदा सत्र में विपक्ष ने सत्ता पक्ष पर जितने आरोप लगाए हैं, उनमें सदस्यों-मंत्रियों की दागदार छवि प्रमुख थी। आरोपों को बेतुका नहीं कह सकते। हालांकि ऐसे हालात मुख्य विपक्षी दल आरजेडी के साथ भी हैं। लेकिन विपक्ष के लिए यह उतनी चिंता की बात नहीं है, इसलिए कि इन्हीं वजहों से तो जनता ने उसे विपक्ष में बैठने को मजबूर किया है। लेकिन सत्ता पक्ष खासकर नीतीश कुमार से लोग शुचिता की उम्मीद जरूर करते हैं। इसलिए अगर विधानसभा में विपक्ष आरोप लगाता है तो इसे सीधे-सीधे खारिज करने के बजाय सत्ता पक्ष को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए।

सरकार या चुनाव आयोग के स्तर पर भले ही इसकी पहचान न की गयी हो, लेकिन विपक्ष ने जो दागदार छवि के लोगों के मंत्री बनने का आरोप लगाया है, उसे झटके में गलत ठहराना उचित नहीं होगा। बिहार में ऐसा होता रहा है कि रेप के आरोपी या उसके परिजन विधायक बन जाते हैं। लूट-मार, हत्या या हत्या के प्रयास के आरोपी विधायक से लेकर मंत्री तक बन जाते हैं। बिहार में नीतीश कुमार की छवि अपराध और अपराधी तत्वों पर नियंत्रक के रूप में रही है। वह कहते भी है कि क्राइम, कम्युनलिज्म और करप्शन से कोई समझौता नहीं करेंगे।

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यह कबूल करने में किसी को हिचक नहीं होगी कि अपने पहले कार्यकाल में नीतीश कुमार ने जिस तरह बड़े अपराध कर्मियों को जेल की सीखचों तक पहुंचाया, वह क्रम बीच में टूट गया। नीतीश कुमार के दूसरे कार्यकाल में दागदार छवि के लोग आ गये। हालांकि नीतीश ने कभी टोकने पर तो कभी स्वतः संज्ञान लेकर ऐसे लोगों को दल या पद से बाहर का रास्ता दिखाया। मंजू वर्मा को मंत्री पद से हटा देना इसका ज्वलंत उदाहरण है। ऐसे दागदार छवि वाले लोग उनके दूसरे कार्यकाल में सक्रिय हो गये थे। तीसरे कार्यकाल में गठबंधन की मजबूरी उन्हें ऐसे तत्वों के खिलाफ एक्शन लेने से मजबूर कर रही है।

विपक्ष इसे ही समझाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन तकनीकी तौर पर नीतीश सरकार को इसे खारिज करने का बहाना मिल गया है। सरकार का यह तर्क है कि जब तक आरोप साबित नहीं होते, तब तक किसी को दोषी ठहराया नहीं जा सकता। यह सभी जानते हैं कि भारतीय कानून व्यवस्था में किसी आरोपी को सजा की दहलीज तक पहुंचाने में इतना लंबा वक्त लगता है या इतने दावं चले जाते हैं कि या तो वह बरी हो जाता है या फिर सजा तक पहुंचते-पहुंचते काफी देर हो चुकी होती है। लालू प्रसाद के इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। उनके किए कार्यों पर जो आरोप लगे, उसे सिद्ध होने और सजा होने में दो दशक गुजर गए। हालांकि अब उन्हें सजा मिल गई है और वे से भुगत भी रहे हैं।

सरकार के सामने संकट यह है कि अगर वह किसी को ऐसे आरोपों के मद्देनजर दरकिनार करती है तो विश्वासमत का भी संकट खड़ा हो सकता है। इसलिए विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच दो दर्जन से कम ही विधायकों का फासला है। जहां तक मंत्रियों की बात है तो अकेले नीतीश कुमार बेदाग होने के बावजूद उन्हें हटाने की हिम्मत नहीं जुटा सकते। क्योंकि वह गठबंधन की सरकार चला रहे हैं और जिन पर आरोप लग रहे हैं, उनमें कई घटक दल के ही हैं। नीतीश कुमार को अगर अपना अस्तित्व बचाए रखना है, अपना आदर्श कायम रखना है तो उन्हें देर सवेर के बजाय सवेर को ही प्राथमिकता देनी होगी। अगर वह ऐसा कर पाते हैं तो जनता के बीच बनी उनकी छवि और बेहतर हो सकती है। इस बार के चुनाव परिणामों की परवाह किए बगैर नीतीश कुमार को विपक्ष के आरोपों पर खास ध्यान देने की जरूरत है, ताकि वे परिमार्जित होकर उसी नीतीश कुमार की तरह उभरें, जिस रूप में वह 2050 5 में अवतरित हुए थे।

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