झारखंड में भाजपा को शिकस्त ने नीतीश कुमार को दे दी संजीवनी

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यह दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगेः अमित शाह का स्वागत करते नीतीश कुमार (फाइल फोटो)
यह दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगेः अमित शाह का स्वागत करते नीतीश कुमार (फाइल फोटो)

RANCHI : झारखंड विधान सभा के चुनाव परिणाम से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कत्तई विचलित नहीं दिखते हैं। भाजपा में भय का वातावरण जरूर है। भाजपा की लगातार तीन राज्यों में पराजय को से भी नीतीश कुमा को संजीवनी मिली है और उनका साहस भी बढ़ा है। केंद्र में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलने के बाद नीतीश कुमार हाशिये पर आ गये थे। इसकी शुरुआत केंद्रीय मंत्रिपरिषद में उनके दल को सांकेतिक तौर पर एक पद देने के भाजपा के निर्णय केल बाद जिस तरह नीतीश ने उसे ठुकराया था, उसे देख कर लगने लगा था कि नीतीश को बिहार में किनारे करने की कवायद भाजपा ने शुरू कर दी है। इस बात को बल मिलने के कारण भी थे। नीतीश ने भाजपा के कई कोर एजेंडों, जिनमें तीन तलाक बिल, कश्मीर में धारा 370, एनआरसी शामिल थे, का विरोध किया था। इसके बाद भाजपा में नीतीश के खिलाफ बगावत के सुर तेज हो गये थ। भाजपा के कद्दावर नेता गिरिराज सिंह समेत कई विधायकों-पार्षदों ने नीतीश को अवकाश लेने तक की सलाह दे डाली थी। इससे नीतीश का मनोबल कमजोर होता हुआ दिखा। वे पहले से भाजपा के जिन मुद्दों के मुखर विरोधी रहे थे, उन मुद्दों पर बाद में बाद में उनका रुख ढीला पड़ने लगा था। नागरिकता संशोधन बिल पर नीतीश को लचीला रुख अपनाना पड़ा था। धारा 370 पर भी संसद में नीतीश की पार्टी जदयू ने प्रतीकात्मक विरोध ही जाताया था। लेकिन महाराष्ट्र, हरियाणा और हालिया झारखंड विधान सभा चुनाव में भाजपा को जिस तरह मुंह की खानी पड़ी है, वह नीतीश कुमार के लिए संजीवनी साबित हुई है।

यह अलग बात है कि एनडीए का घटक दल होने के बावजूद जदयू ने झारखंड में अपने उम्मीदवार उतारे थे, जो भाजपा को नागवार लग सकती थी। लेकिन ऐसा तब होता, जब भाजपा जीतती या जदयू को मिले वोटों से भाजपा को कोई नुकसान पहुंचा होता। सच्चाई यह है कि राष्ट्रीय पार्टी बनने की अर्हता जुटाने के लिए जदयू ने झारखंड समेत आगामी सभी विधान सभा चुनावों में अपने उम्मीदवार उतारने का निर्णय लिया था। लेकिन झारखंड में एक प्रतिशत वोट भी जदयू को नहीं मिला और उसका कोई उम्मीदवार भी नहीं जीत पाया। जदयू की अगली चुनावी तैयारी दिल्ली और बिहार की है।

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बिहार में जदयू ने इसकी तैयारी शुरू भी कर दी है, यद्यपि चुनाव अगले वर्ष नवंबर में होने हैं। जदयू के वरिष्ठ और नीतीश कुमार के भरोसेमंद नेता आरसीपी सिंह को पार्टी ने चुनावी तैयारियों की बागडोर सौंपी है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी खुद इस अभियान में जुटे हुए हैं। पार्टी दो स्तरों पर तैयारियां कर रही है। माइक्रो लेवल तक यानी बूथ स्तर तक पहुंचने की जिम्मैवारी पार्टी ने आरसीपी सिंह को संपी है तो प्रमंडलीय स्तर पर चुनावी अभियान के रूप में नीतीश कुमार जल-जीवन-हरियाली अभियान चला रहे हैं। कहने को तो यह जल संकट और पर्यावरण के खतरे के प्रति लोगों को जागरूक करने का अभियान है, लेकिन इसी बहाने नीतीश अपनी सात महत्वाकांक्षी योजनाओं की समीक्षा भी कर रहे हैं। अफसरों से काम की प्रगति की जानकारी ले रहे हैं और उन्हें जरूरी हिदायतें भी दे रहे हैं।

बिहार में बेलगाम हुए अपराध के बावजूद पार्टी ने नया नारा भी गढ़ लिया है- 15 साल बनाम 15 साल, भय बनाम भरोसा। इस नारे के जरिये लालू-राबड़ी शासन के 15 साल और नीतीश के 15 साल के शासन की तुलना करने की कोशिश की गयी है। इसके पहले दो और नारे इसी साल पार्टी ने दिये। पहला नारा था- क्यों करें विचार, ठीके तो है नीतीश कुमार। लेकिन सबसे पहले पार्टी द्वारा गढ़े गये इस नारे की आलोचना होने लगी। ठीके का भावार्थ कामचलाऊ कहा जाने लगा तो पार्टी ने इस नारे को बदल कर दूसरा नारा दिया- क्यों करें विचार, ठीक है नीतीश कुमार। अब तीसरा नारा आया है- भय बनाम भरोसा। यानी लालू-राबड़ी के 15 साल के शासन और नीतीश के 15 साल के शासन की इसमें तुलना की गयी है।

हालांकि नीतीश को अपनी ताकत का अंदाजा है। उन्हें पता है कि बिना बैशाखी के अपने बूते सरकार बनाना उनके लिए संभव नहीं है। उनके शासन के तकरीब दो साल छोड़ दें तो भाजपा के सहारे ही उनकी नैया पार हुई है। एक बार तो उन्हें राजद के सहारे ही चुनाव लड़ना पड़ा और इसमें भी वे राजद से पिछड़ गये थे। बराबर सीटों पर ड़ने के बाद भी जदयू को राजद से कम ही सीटें मिलीं। अब चूंकि राज्यों में भाजपा की स्थिति कमजोर पड़ती जा रही है, इसलिए नीतीश के सामने यह बड़ी चुनौती है कि वे कौन-सा रास्ता अपनाएं। सीएए पर जदयू के समर्थन के बाद पार्टी के उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर ने जिस तरह का विरोध जताया और अपने भरोसेमंद नेता आरसीपी के स्टैंड के खिलाफ नीतीश को यह कहना पड़ा कि जदयू एनआरसी का विरोध करता रहेगा, उससे साफ है कि नीतीश का मन भी कहीं न कहीं दुविधा में पड़ा है। अब तो झारखंड चुनाव के नतीजों ने इस दुविधा को और बढ़ा ही दिया होगा, क्योंकि भाजपा को विपक्षी एका से करारी शिकस्त मिली है।

इस बीच प्रशांत किशोर ने यह कह कर बिहार एनडीए में राजनीतिक सरगर्मी बढ़ा दी है की बिहार में नीतीश बड़े नेता हैं. इसलिए टिकट बंटवारे में भाजपा का लोकसभा की तरह बराबर-बराबर का फार्मुला नहीं चलेगा. जदयू को भाजपा से ज्यादा सीटें मिलनी चाहिए. इस पर भाजपा भड़की हुई है. भाजपा कोटे से नीतीश सरकार में मंत्री नंदकिशोर यादव कहते हैं कि प्रशांत किशोर ऐसे बयान के लिए पार्टी से अधिकृत नहीं है. इसलिए उनके बयान को तवज्जो नहीं देना चाहिए. जदयू में भी कोई साफ-साफ इस मुद्दे पर नहीं बोल रहा। देखना होगा कि नीतीश अब कौन-सा रास्ता अख्तियार करते हैं। भाजपा से गलबहियां डाले रहते हैं या राजद के रघुवंश जैसे कद्दावर नेता की सलाह मान कर महागठबंधन का नेतृत्व करने का रास्ता अख्तियार करते हैं।

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