लोक का सांस्कृतिक पक्ष हमेशा से संवादधर्मी रहा है……………………

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लोक का सांस्कृतिक पक्ष हमेशा से संवादधर्मी रहा है। भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो तीन संस्कृतियाँ मूलतः देखने को मिलती हैं।
लोक का सांस्कृतिक पक्ष हमेशा से संवादधर्मी रहा है। भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो तीन संस्कृतियाँ मूलतः देखने को मिलती हैं।
लोक संवाद करता है। उसके अपने तरीक़े हैं। आप किताबी ज्ञान के ज़रिए उससे संवाद स्थापित नहीं कर सकते। उससे संवाद करने के लिए उसके बीच जाना होगा। उसके लहजे में ही उससे संवाद संभव है। उत्सवों को बचाइए! लोक से संवाद का यह सबसे उत्तम माध्यम है।
  • दीपक कुमार

लोक का सांस्कृतिक पक्ष हमेशा से संवादधर्मी रहा है। भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो तीन संस्कृतियाँ मूलतः देखने को मिलती हैं। पहली- सनातन संस्कृति, जिसे राजनीतिक रूप में हिंदू संस्कृति कह सकते हैं। दूसरी द्रविड़ संस्कृति (आदिवासी संस्कृति- कोई सटीक शब्द नहीं मिला, इसलिए इस शब्द का प्रयोग किया है। अगर आपको कोई दूसरा शब्द सटीक लगे तो उसे व्यवहार कर सकते हैं)। तीसरी इस्लामिक संस्कृति!

इन तीनों में पहले दो का उद्भव भारत की भौगोलिक सीमा में हुआ है। यहाँ के तमाम प्रतीक इन दोनों संस्कृतियों के लोकरंग में घुले मिले हैं। इनमें किसी तरह का अलगाव नहीं किया जा सकता। लोक का जो सांस्कृतिक पक्ष है, वह कृषि परंपरा में परिपक्व हुआ है। इसलिए उससे जुड़े तमाम प्रतीक लोक में नमक की तरह घुले हैं।

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लोक उत्सवधर्मी होता है। उत्सव के बिना उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। समय के साथ लोक का राजनीतिकरण करने की कोशिश हुई है। वक्त वक्त पर ऐसा दौर आया है, जब राजनीति ने लोक की संरचना में दखल दिया है। उसे प्रभावित भी किया है। लेकिन लम्बे समय तक नहीं। वह फिर उठ खड़ा हुआ है। उसने आज भी खुद को बचाए रखा है।

आज हर क्षेत्र में पूँजी का बोलबाला है। पूँजीवादी संस्कृति ने उत्सवों में भी अपनी मौजूदगी बढ़ायी है। जिसे हम स्वतः महसूस कर सकते हैं। अपनी आँखों के सामने इसे बदलते हुए देख रहे हैं। लोक गीतों की जगह डीजे ने ले ली है। आस्था के नाम पर बाज़ार का भौंडा प्रदर्शन भी जगज़ाहिर है। गाँव की सामूहिक संरचना में उद्भूत उत्सव अब दिखावे का साधन बन रहे हैं। आपसी मेल मिलाप में कमी आयी है। बहुत सी चीजें बदल गयी हैं, लेकिन लोक फिर भी है।

इस बदलते समय में वह अपना अस्तित्व बचाए हुए है। लोक की सबसे बड़ी ताक़त है कि वह किसी को सर्वेसर्वा नहीं मानता! वह अपने आइकॉन को पूजता है तो उसे गाली भी देता है। हमारी समस्या यह है कि हम समस्याओं का विरोध करते करते कब लोक विरोधी हो जाते हैं, हमें पता ही नहीं चलता। राजनीति का विरोध करते करते संस्कृति का विरोध करने लगते हैं।

मैं यह नहीं कहता कि विरोध नहीं होना चाहिए। सबक़ुछ स्वीकार कर लेने के पक्ष में मैं भी नहीं। लेकिन यह समझना जरूरी है विरोध किसका होना चाहिए! लोक तत्वों पर आप प्रहार करके प्रगतिशील नहीं हो सकते। बल्कि उससे संवाद करके हो सकते हैं। लोक संवाद करता है। उसके अपने तरीक़े हैं। आप किताबी ज्ञान के ज़रिए उससे संवाद स्थापित नहीं कर सकते। उससे संवाद करने के लिए उसके बीच जाना होगा। उसके लहजे में ही उससे संवाद संभव है। उत्सवों को बचाइए! लोक से संवाद का यह सबसे उत्तम माध्यम है।

(लेखक पश्चिम बंगाल के कालिंम्पोंग में डिग्री कालेज के असिस्यैंट प्रोफेसर हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

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